Friday 5 April 2013

सम्मान / चेतावनी

बंजर धरती पर भी स्वप्न उगते हैं छितराए से
हरे नहीं होते बस
कुछ पीले -मटमैले और धारदार से नज़र आते हैं
कभी-कभी लहूलुहान से भी ,

दरारों से ताकते-झाँकते रहते हैं सूरज को
चाँद को भी और खुले आसमान को भी
पर उनकी हसरतें टिश्शू पेपर सी होती हैं ,
अंजाम भी ----अक्सर फेंक दिया जाना
इस्तेमाल की सुविधा के बाद ,

( अब ये मत कहें की बंजर धरती का कैसा इस्तेमाल
क्योंकि कुछ भी बेमकसद नहीं है यहाँ )

हर तरफ पसरे कंकणो और काँटों से भिन्नाती नहीं
बस सहेज लेती हैं ---- संभाल लेती  हैं
माँ के से दुलार और आँचल की ममता से
बावजूद इसके कि ये वही हैं जो उन पर उग आए हैं या पसरे हुए हैं
उनमे कुछ और तलाशते हैं -----कहते नहीं ----- करते रहते हैं बस
बिना उसकी मर्ज़ी जाने
बिना सहमति के ------- ज़बरदस्ती ,

धरती अपने स्वप्नों को जीने की आज़ादी देती है
हंसने की और कभी-कभी हवाओं संग अठखेलियों की भी
यूं तो ज़्यादातर हवाएँ यहाँ बगल से ही गुजर जाती हैं
अछूत समझकर या निकृष्ट ही
पर इनकी सहनशीलता अद्भुत है
सबकुछ सहकर भी ये अपना मूल अस्तित्व नहीं गंवातीं
धरती होना नहीं छोडतीं ,

विरोध उठता तो जरूर होगा ------ हाहाकार भी
पर यहाँ समय कि बंदिश बहुत कड़ी है
घटनाओं का ताप भी उतना ही क्षणभंगुर
पर यही अंत नहीं है ---- सम्पूर्ण भी नहीं ,

ये स्वप्न और हकीकत की टकराहट है
समझने के लिए इतिहास जानना जरूरी है ,

इनके सपनों को नज़रअंदाज़ मत करिए
एक दिन यही मंडेला के स्वप्न से हो जाएँगे
या फिर माओत्से तुंग के
तब नकार असंभव होगा
तो या तो स्वीकारिए सहजता से
या फिर तैयार रहिए मानवता के एक और युद्ध के लिए ,

चुनाव के वक्त का काउंटडाउन शुरू हो चुका है !!!



अर्चना राज़

Thursday 4 April 2013

बेबसी

देह खंडित
आत्मा भी ,
स्वप्न तार-तार हैं ,

हर कोशिश जिंदा रहने की
अब यहाँ बेकार है ,

प्यास को थोड़ा गुनो
भूख को तुम मत चुनो
प्रक्रियाओं की जटिलता कह रही जो वो सुनो ,

हम नहीं इंसान है
भीतर हमारे जान है
बेबसी के बोझ से ढकते हम उनकी आन हैं ,

मुट्ठियों मे है लहू
है तक़ाज़ा की सहूँ
जिस्म की बेचारगी मै भला किससे कहूँ ,

मै हूँ इक आँसू खुदा का सूख जाता हूँ स्वयं ही
मै हूँ इक नेमत खुदा की खत्म हो जाता हूँ खुद ही ,

मै हूँ इक मजबूर बच्चा
मै हूँ इक लाचार बच्ची
मै हूँ इक बूढ़ा अपाहिज
मै भी हूँ ---------------
पर कौन हूँ मै ,

देह खंडित
आत्मा भी
स्वप्न तार-तार है ,

हर कोशिश जिंदा रहने की
अब यहाँ बेकार है !!!



अर्चना राज़

Tuesday 2 April 2013

पीड़ा

पीड़ा गहन है
 मौन है
अदृश्य है ---चेतन भी ,


अनुगूंज शब्दों की प्रक्रिया है
आह से चीत्कार तक विस्तृत
स्थूल है --- प्रभावी भी ,

दोनों ही जीवित रहते हैं सदियों तक
सदियों के लिए
परीक्षण की तरह
दिलासे की तरह भी !!!


 अर्चना राज़

बेचारगी

तटों से टकराकर हर बार निराश लौट आना
भर देता है लहरों को असीम यातना से
मानो कोई आन्ना किसी ब्रोन्स्की के इंतज़ार मे उध्वेलित है
या फिर ज्ञानेन्द्र किसी चेतना पारीक के
पीड़ा बड़ी संजीदगी से चेतन है यहाँ...... अनवरत ,

यहाँ चाहतें गुलाबी पन्नों मे दर्ज़ नहीं होतीं
न ही दर्द उकेरने को किसी स्याही की दरकार है
बस नियंत्रित रहने की अथक कोशिश मे लहरों का जिस्म नीला पड़ जाता है
और स्वाद खारा------------तकलीफ नमकीन हो गयी है अब  ,

मुट्ठी भर रेत की संवेदना भी अपर्याप्त है  सुकून के लिए
विवशता मे  जो साथ ले आती हैं लहरें बड़ी बेचारगी से
उम्मीदों का चप्पू थामे
पर डूब नहीं पातीं उसमे पल भर को  भी
खालीपन अथाह है  ---- अनंत भी ,

सदियों की स्व-प्रताड़णा अब आदत सी हो गयी है
पर उनका कराहना रात की निस्तब्धता मे हाहाकार सरीखा होता है
सहम उठता है खुद तट भी उस दुख के अतिरेक से
पर विवशता यहाँ भी है----- पूर्वनियत
चाहकर भी वो आलिंगनबद्ध नहीं हो सकते
सवाल अस्तित्व का जो है
प्रतीक का भी ........

कुछ तकलीफ़ें अनिवार्यता है तो कुछ सहज स्वीकार्य
यहाँ लहरों की यातना असीम है पर निश्चित भी
और तटों की विवशता निश्चित है पर असीम भी !!!


अर्चना राज़