Thursday 21 December 2017

कमाल

एक है अमलतास का पेड़
एक है खाली सड़क
एक खिड़की
घर से घर कि दूरी बस इतनी
कि सांस लो गर डूबकर आवाज़ पहुँच जाए ,
इन सबके बीच ही पला एक इश्क
कमाल का
जिसमे न शब्द थे ...न लिखावट ....न स्वीकार्य
फिर भी सदी के चौथाई हिस्से तक का वक्त थिर किये रहा ,
असल कमाल तो बाकी है अभी
अब शब्द भी हैं
आवाज़ भी है
स्वीकार्य भी है
नहीं है तो बस ज़ालिम इश्क नहीं है ,
गज्ज़ब न !!

रिसाइकिल

तमाम औरतों के लिए रिसाईकल की प्रक्रिया है रात
हर छत से गुप्त नदी का एक सिरा जुडा है जिससे
जैसे देह से आत्मा ,
मौसम खुद को भ्रमित पाते हैं
कि हर रात इन अदृश्य नदियों में उठने वाले ज्वार से आतंकित हैं वो
उनके द्रवित कर देने वाले चीत्कार से चकित
उलझनपूर्ण हो वे समझ नहीं पाते कि ये किस किस्म का सैलाब है
जो हरहरा कर हर रात सब कुछ भिगो देता है
और हर सुबह फिर से सब कुछ वही ....वैसा ही वापस
समझ नहीं पाते की हर रात फूलों पर
ये ढेरों नमक कहाँ से आ जाता है
जो सुबह की रौशनी के साथ ओस सा परिलक्षित होता है
कि हर रात हवा यूँ बिफरी हुयी सी क्यों घूमती है
और दिन भर उसमे फिर वही अतिरिक्त उल्लास कैसे
हर सुबह सूरज की मुस्कान इस कदर अतिरिक्त चमकीली कैसे हो जाती है
अमलतासों गुलमोहरों कचनारों और बसंत मालती
इन सब के बीच वो कड़ी क्या है जो उन्हें रात भर
कुछ ज़र्द बनाये रखती है
पर दिन में फिर वही अतिरिक्त आभा उन पर भी,
उसे नहीं पता
कि तमाम अकेली औरतें
जो संख्या में सितारों से जियादा हैं
रात भर बिस्तर के एक कोने से
छतों के एक हिस्से से
रसोई के खटर पटर से
दिन भर के कुछ लम्हों से भीगे हुए
अपने अपने आँचल के कोरों को कसकर निचोड़ती हैं
निचोड़ती रहती हैं तब तक
जब तक कि उनके सारे दुःख बह नहीं जाते
जब तक कि उनका सारा नमक गल नहीं जाता
कि जब तक वो एक बार फिर
इसी प्रक्रिया के लिए खुद को मुफीद नहीं बना लेतीं
इस तरह वो खुद को धीरे धीरे मुक्त करती हैं
धो पोंछ कर सुचिक्कन करतीं हैं
चुपचाप ख़ामोशी से
बिना किसी को जताए ,
ये सारा आलम जिस वक्त नींद के तप्त आगोश में सो रहा होता है
उस वक्त ये औरतें ही होती हैं
जो परिवार की दी हुयी पीड़ा का ज़हर उगलकर उसे खुशनुमा बनाने का जतन करती हैं
ये औरतें ही होती हैं जो असंख्य अपमानों को भी सींचकर उर्वर बना लेती हैं
उस पर मुस्कानों और खुशियों के फूल खिला देती हैं
ये हर सुबह जो आप मौसम का भीगापन महसूस करते हैं
वो दरअसल इन औरतों की रात भर की जुगत का उपसंहार होता है
उनका प्यार होता है
अपने परिवार अपने परिवेश अपनी मिटटी से ,
अगली बार अपने आस पास की ख़ूबसूरती और जिन्दादिली का कुछ श्रेय
इन औरतों को देना न भूलें
कि ये औरतें कोई भी हो सकती हैं
आपकी माँ बहन बेटी पत्नी या फिर केवल मित्र भर ही |

स्वप्न

रात देखा
वो भाई का कमरा ठीक कर रही थीं
बिखरी आलमारी में
सब कुछ तह कर खूब करीने से रख रही थी
बिस्तर की तुड़ी मुड़ी सिलवटें एक एक कर कितने जतन से मिटा रही थी 
एकदम परफेक्ट कर रही थीं सब कुछ
हमेशा की तरह बुदबुदाते हुए
बहुत लापरवाह है
पता नहीं कैसे संभालेगा खुद को
नीचे गिरी नयी नीली शर्ट पर नज़र पड़ते ही
झुंझला पडीं
ज़रा भी कदर नहीं किसी चीज की
सब कुछ फेंका रहता है
पर इस दरमियान उनकी नज़रें सूक्ष्मता से मुआयना करती रहीं
उसके बटन और काज़ का
फिर सुई धागे का डिब्बा निकाला
चश्मा आँखों पर चढ़ा नीले धागे को पिरोने लगीं
आँखें सिकोड़ बार बार धागे का सिरा सुई में डालने की कोशिश करने लगीं
फिर कुछ मायूस
उफ्फ्फ .....दिखाई भी नहीं पड़ता अब कायदे से
मुझसे हंसकर चिरौरी की
बेटा ज़रा धागा डाल दो
मै नखरे करने लगी
मटकने फुदकने लगी फिर वो थोडा कसकर बोलीं
सुना नहीं तुमने कह रही हूँ न धागा डाल दो
खिसियाई हुयी सी मुंह फुलाए आकर मुझे धागा डालना पड़ा
वो हंसीं और चूम लिया मुझे ,
अपनी उम्र भर वो यही तो करती रहीं
हमें संभालना संवारना perfect बनाने की कोशिश करते रहना
हमारे दुखों का कांधा बनना
हमारी निराशा की उम्मीद बनना
हमारी खुशियों में खिलखिलाहट हो जाना
उपलब्धियों में गर्व हो जाना
कहीं कोई चूक नहीं कोई भूल नहीं कभी भूले से भी ,
फिर ये कैसे हो गया
जो नहीं बताया उन्होंने कभी कि दुःख के पहाड़
आत्मा की घुटन भी हो सकते हैं
कभी नहीं सिखाया
कि हँसते हुए जब कभी कराह निकले तो कैसे छिपाऊं उसे
कि आंसू जब नसों में छाले सा दंश दें तब क्या करूँ
तब भी क्या करूँ जब अपनी जगह मै अपने बच्चों को खड़ा पाऊं
खुद को उनकी जगह ,
पर अब यूँ जीना भी जरूरी है
कि कतरा कतरा ये दुःख पीना भी जरूरी है
सांस लेनी जो है ,
और हाँ वो रात नहीं सपना था
और कमरा भी भाई का नहीं मेरा अपना था |

संशय

उन्हें नहीं पता
इन तमाम नदियों के बीच
उनकी जगह कहाँ है ,
तमाम नदियाँ हंसती हैं 
मुस्कुराती हैं
किल्लोल करती हैं आपस में ही
कसकर एक दुसरे की लहर में उलझी हुयी
गुंथी हुयी ,
तमाम नदियाँ फिजां में लिखती हैं सुंदर सरल कवितायेँ
फिर अपनी ही गोष्ठियों में उसे गाती हैं सुनाती हैं
हर नदी उत्फुल्ल मुक्त कंठ गान करती है
हर नदी सुनती है सराहती फिर प्रतिदान करती है
जगत में फ़ैल जाता है फिर इनका सुन्दर गान व् प्रतिदान
जगत आह्लादित है
आह ! कितनी सुंदर रचनाएँ हैं ये इश्वर की
अद्भुत अप्रतिम
दोनों बाहें पसारे करता है जगत स्वागत इनका
पुरस्कृत करता है
सम्मानित करता है
अपने भावों के बुरांश उन्हें अर्पित करता है
कुछ कचनार के सुन्दर पुष्प
कुछ रंग बिरंगे गुलाब की सुन्दर पंखुडियां
तो कुछ निर्मल निश्छल पवन दूब ही भेंट करते हैं
नदियाँ विनम्रता से दोहरी हुयी जाती हैं
फिर एक उछाल लेती हैं गर्वोक्ति की
विशिष्टता बोध की
इससे अनजान
कि कुछ धाराएँ अभी चिन्हित नहीं हुयी हैं
नहीं हो सकी हैं
पर सजग हैं चिंतातुर हैं
चिन्हित किये जाने को
सृष्टि की मोहकता में अविरल बहते जाने को
उनकी ही ओर देखती
उम्मीद की डोर सहेजती
कि वे इसे उनका कर्तव्य मानती हैं ,
फिलहाल तो
उन्हें नहीं पता
उनकी जगह कहाँ है ,
क्या वो लावारिस हैं ?

आह्वान

हे सखी सीते
धरती माँ की बेटी
अब उठो तुम सज्ज हो
कि वक्त देखो हो चला है युद्ध का ,
वेदनाएं हैं असीमित यातना चहुँओर है
चीख है पीड़ा है और पाप का बस ढेर है ,
जिस समय तुम भ्रूण हो
और कह रहा कोई अवांछित
उस समय विद्रोह करना
अड़ी रहना जन्म को
माँ का बनना हौसला और स्वाभिमान ,
जन्म पर कोई अगर स्वागत न हो
रंच भर भी तुम सखी मायूस मत होना
हर वो क्षण बीता हुआ जो तुम्हें दोयम कहे
त्रिण बना रखना ह्रदय में
एक दिन करना है तुमको प्रज्वलित शुभ अग्नि को ,
गर कहे कोई तुम्हें छूकर कि तुम हो कोमलांगी
और छलके लालसा शब्दों से उसके
उस समय विद्रोह करना
परे करके तोड़ देना स्पर्श का वो स्त्रोत ही
वीर लगना वीर दिखना ,
प्रेम भी करना अगर याचक न होना
प्रेम में प्रतिदान पाना न कि भिक्षा या दया
यदि हो ऐसा तुम उसे इनकार करना
याद रखना हे सखी सम्मान सम कुछ भी नहीं
मान जब खुद का करोगी तब ही पाने की हो तुम अधिकारिणी ,
आज मानवता है कुंठित और दमित कुचली हुयी
कि हों भले ही दुधमुंही या वृद्ध महिला
हो रहीं हैं शिकार वो
आदमी की विकृति का ढो रही हैं भार वो
हर तरफ फैला लहू है हर तरफ है बल प्रयोग
घून मिश्रित हो गया है ये समाज लग गया है इसको रोग ,
अब तुम्हें ही चेतना का ज्वार बन आना पड़ेगा
श्वेतकेतु शिष्या तुमको राह दिखलाना पड़ेगा
हर किसी में तुम समा जाओ बनो खुद अपनी कर्ता
तुम बनो विश्वास उनका जो न खुद में आस धरता
थाम लो तुम तीर और तलवार अब
जांच लो उन पापियों का सब्र अब
फिर करो संहार भी
जो न तो अपनी बहन व बेटियों के हो सके
जो न अपनी माँ का भी सम्मान किंचित कर सके
जिन्दगी भारी हो उन पर ,
हे सखी सीते
धरती माँ की बेटी
अब उठो तुम सज्ज हो
कि वक्त देखो हो चला है युद्ध का |

ग़ज़ल

अपनी सुबहों -शामों का हिसाब रक्खा करें
हजारों सवाल फिजा में हैं ज़वाब रक्खा करें
नसीहतों सहूलतों ,तक़रीरों के इस दौर में
आप भी कुछ धमक जरा रुआब रक्खा करें ,
परिंदे उड़ानों से अब कुछ मुकरने लगे हैं
उनसे कहो कि पंखों में ज़लाल रक्खा करें ,
तबीयत नासाज़ हो बेशक मगर फिर भी
तरन्नुम का कुछ तो लिहाज़ रक्खा करें ,
आइना अगरचे हो भी बेहोशोहवास तो क्या
मोहतरम "राज़" थोडा हिजाब रक्खा करें ||

डर

मुस्लिम प्रेमी की
हिंदू प्रेमिका हूँ मै
मुझे लगता है हमें मार दिया जाएगा
कि अब धर्म हमारे उसूलों में नहीं
हमारे फायदों में रहता है 
हमारे किरदार में नहीं
हमारे कायदों में रहता है ,
प्रेम होना रूहों का नहीं धर्म का मसला है अब
जीने का नहीं ताकत का असलहा है अब ,
कि जिसे खुशबुओं और कम्पनों से नहीं आँका जाता
रुद्राक्ष और खतनाओं से है जांचा जाता
कोई शीरीं न ही लैला न तो फरहाद है
वो बस गुडिया या फिर सलमा या तो जेहाद है
कि इश्क अब डर की सरहदों का कैदी है
कभी आग कभी कुल्हाड़ी कभी भीड़ की मुस्तैदी है ,
नोंच लेते हैं सरेआम वो जिस्म उनके
खींच देते हैं फाड़ देते हैं जो कपडे उनके
नंगी देह पर जो खुलकर मुस्कुराते हैं
हँसते खिलखिलाते जो ठहाके लगाते हैं
क्या वो इंसान हैं मुझको तो शक होता है
उनकी माओं पर बहनों पर दुःख होता है
सारी प्रार्थनाएं सारे अज़ान बेकार हैं अब
सारी दुआएं सारी मन्नतें बेजान है अब ,
इश्क अब दिल से नहीं दिमाग से करना होगा
उसकी जाति उसका गोत्र उसका धर्म भी देखना होगा
जो ऐसा न किये तो बेतरह पछताओगे
बेमकसद ही एक रोज़ तुम मार दिए जाओगे
सरकार और धर्म के पहरुओं से उम्मीद मत रखना
कभी भूलकर भी उनसे अपने दिल की कुछ मत कहना
पहले वो अपनी राजनीती अपने ऊंट की करवट देखेंगे
फिर अपने लोगों से कहकर फसादात के ज़हर छीटेंगे
लम्बी लम्बी तकरीरें लम्बे लम्बे शहादत के भाषण होंगे
काहिलों की महफ़िल कमीनगी के नजारत होंगे
मसला तुम्हारा यूँ ही बेसहारा रह जाएगा
बिना किसी न्याय के अन्याय सा हो जाएगा ,
कि ये दौर मुहब्बतों का नहीं नफरतों का है
इस दौर में बचकर रहना होगा
ज़ज्बात कितना भी मचलें सीने में
होंठ सिलकर सहना होगा ,
पर जिन्हें हो गयी है उनका क्या
अंधियारी रात के किसी कोने में
डरते सहमते आँखों में आंसू भरे
गिडगिडाती सी
वो अपनी सहेलियों के सीने से लग कह रही हैं
कि मुस्लिम प्रेमी की
हिन्दू प्रेमिका हूँ मै
मुझे लगता है हमें मार दिया जाएगा |

गुस्सा

समझ नहीं पाई
ये गुस्सा तुम्हें ही क्यों आता है
मुझे क्यों नहीं आता ,
घनघोर किस्म के गुस्से में भी 
बस मुट्ठियाँ ही कसीं
कहर कभी नहीं हुयीं मेरी आँखें
कभी फेंक नहीं पायी मै खाने की थाली
कभी ग्लास या कप नहीं तोडा
कभी नहीं फेंकी तड़ाक से कोई भी घडी
या मोबाइल
कभी दरवाज़ा नहीं पटका
गालियाँ भी नहीं दीं
पता नहीं क्यों ,
शायद मेरा गुस्सा संस्कारी है
आपे से बाहर नहीं जाता
बस अन्दर से खुद को कडा कर देता है
जैसे कडा कर देता है ज्वालामुखी का असीमित ज्वार
काली सुन्दर चट्टानों को
कुछ रुखा कुछ कड़वा भी
मुझे चुप कर देता है
और तुमसे मेरी आत्मा को कुछ और दूर ,
ये ख़ामोशी मुझे डराती है
इसलिए नहीं
कि मै क्रोध संयमित करने में भी अग्नि का इस्तेमाल करती हूँ
इसलिए
कि एक दिन कहीं यही अग्नि तुम्हारे लिए अग्निकुंड न साबित हो
साथी |

यादें बचपन की

ओसारे की खटिया
पुरानी रजाई , रजाई में तुम
तुम्हारी ही छाती में दुबकी हुयी सी चिपटी सी मै
जैसे बिल्ली हो भूरी ,
गले जब भी देह ठंडक से सुर सुर
तुम्हारा वो ताप मद्धिम सा लगता ओढा देता फिर
मुझे नींद अपनी
बाहों का तकिया हथेली की नरमी
माथे पर चुम्बन सज़ा देतीं तुम
कि जैसे मै कोई थी राजकुमारी
ऐसी वो लज्ज़त थी गाँवों के ठंडक की
ऐसी ठनक थी कि जब तुम थीं सच की ,
कहाँ हो तुम अब
कहो न
कि गाँवों में जाना मटर कच्ची खाना
लाइ का लड्डू
गरम गुड का चखना छोड़ दिया है
पुआलों में छुपना कच्ची नींद सोना
गरम दूध पीना
नमक लहसुन वाला अमरूदों के संग
खाना खिलाना भी छोड़ दिया है
कि छोड़ दिया है गरम गरम चावल में गड्ढे बनाना
चटकारी सब्जी फिर उसमे मिलाना
फूंक फूंक खाना ,
नहीं करता दिल कि बोरसी के आगे हथेली फैलाऊं
गाल छुआऊँ
मुलायम सी दहक से किलक किलक जाऊं
नारंगी चमक होठों पर सजाऊं
ये भी नहीं कि भरी दोपहरी सबको छकाऊँ
अदरक वाली चाय पियूं पिलाऊं ,
नहीं करता दिल ये करने को अब कुछ
मेड़ों के रस्ते भटकने को अब कुछ
कि अब तो ये ठंडक भी वैसी नहीं है
पीली सी धूप शैतानी करती रगों में बहकती
जैसी नहीं है
जैसी थी पहले
कि जब साथ तुम थीं ,
तुम अब नहीं हो तो गाँवों में जाना भी छूट गया है
शायद वो रिश्ता इनारे के जैसा अब टूट गया है ||

Saturday 9 December 2017

मुमकिन

मुमकिन है
कुछ सालों बाद तुम समझ पाओ
कि रेशम भी छीजता है
नदी भी टूटती है
और बदरंग होती है हल्दी की गाँठ भी ,
अगरबत्तियां झड जाती हैं
कुरेद कर लिखे नामो में सीलन भर जाती है
काली हो जाती हैं सुंदर आँखें
उँगलियाँ सख्त हो जाती हैं
मुमकिन है
तुम कहो उसे वक्त की बदमिजाजी
कहो चश्मे को बदला हुआ
या समझ की तस्वीर को धुंधला कहो ,
ये सब कहा जाना बेकार है मेरे हमनफ़ज़
कि टूटने के बाद आइना खुद का नहीं होता
कि टूटने के बाद बेशक चेहरे भी कई हो जाते हैं
पर भूलना मत कि वो तकसीम भी हो जाते हैं ,
भुलावों पर प्रेम नहीं टिकता
तुम चाहो तब पर भी नहीं |

यादें

ओसारे की खटिया
पुरानी रजाई , रजाई में तुम
तुम्हारी ही छाती में दुबकी हुयी सी चिपटी सी मै
जैसे बिल्ली हो भूरी ,
गले जब भी देह ठंडक से सुर सुर
तुम्हारा वो ताप मद्धिम सा लगता ओढा देता फिर
मुझे नींद अपनी
बाहों का तकिया हथेली की नरमी
माथे पर चुम्बन सज़ा देतीं तुम
कि जैसे मै कोई थी राजकुमारी
ऐसी वो लज्ज़त थी गाँवों के ठंडक की
ऐसी ठनक थी कि जब तुम थीं सच की ,
कहाँ हो तुम अब
कहो न
कि गाँवों में जाना मटर कच्ची खाना
लाइ का लड्डू
गरम गुड का चखना छोड़ दिया है
पुआलों में छुपना कच्ची नींद सोना
गरम दूध पीना
नमक लहसुन वाला अमरूदों के संग
खाना खिलाना भी छोड़ दिया है
कि छोड़ दिया है गरम गरम चावल में गड्ढे बनाना
चटकारी सब्जी फिर उसमे मिलाना
फूंक फूंक खाना ,
नहीं करता दिल कि बोरसी के आगे हथेली फैलाऊं
गाल छुआऊँ
मुलायम सी दहक से किलक किलक जाऊं
नारंगी चमक होठों पर सजाऊं
ये भी नहीं कि भरी दोपहरी सबको छकाऊँ
अदरक वाली चाय पियूं पिलाऊं ,
नहीं करता दिल ये करने को अब कुछ
मेड़ों के रस्ते भटकने को अब कुछ
कि अब तो ये ठंडक भी वैसी नहीं है
पीली सी धूप शैतानी करती रगों में बहकती
जैसी नहीं है
जैसी थी पहले
कि जब साथ तुम थीं ,
तुम अब नहीं हो तो गाँवों में जाना भी छूट गया है
शायद वो रिश्ता इनारे के जैसा अब टूट गया है ||

प्रश्न

समझ नहीं पाई
ये गुस्सा तुम्हें ही क्यों आता है
मुझे क्यों नहीं आता ,
घनघोर किस्म के गुस्से में भी 
बस मुट्ठियाँ ही कसीं
कहर कभी नहीं हुयीं मेरी आँखें
कभी फेंक नहीं पायी मै खाने की थाली
कभी ग्लास या कप नहीं तोडा
कभी नहीं फेंकी तड़ाक से कोई भी घडी
या मोबाइल
कभी दरवाज़ा नहीं पटका
गालियाँ भी नहीं दीं
पता नहीं क्यों ,
शायद मेरा गुस्सा संस्कारी है
आपे से बाहर नहीं जाता
बस अन्दर से खुद को कडा कर देता है
जैसे कडा कर देता है ज्वालामुखी का असीमित ज्वार
काली सुन्दर चट्टानों को
कुछ रुखा कुछ कड़वा भी
मुझे चुप कर देता है
और तुमसे मेरी आत्मा को कुछ और दूर ,
ये ख़ामोशी मुझे डराती है
इसलिए नहीं
कि मै क्रोध संयमित करने में भी अग्नि का इस्तेमाल करती हूँ
इसलिए
कि एक दिन कहीं यही अग्नि तुम्हारे लिए अग्निकुंड न साबित हो
साथी |

डर

मुस्लिम प्रेमी की
हिंदू प्रेमिका हूँ मै
मुझे लगता है हमें मार दिया जाएगा
कि अब धर्म हमारे उसूलों में नहीं
हमारे फायदों में रहता है 
हमारे किरदार में नहीं
हमारे कायदों में रहता है ,
प्रेम होना रूहों का नहीं धर्म का मसला है अब
जीने का नहीं ताकत का असलहा है अब ,
कि जिसे खुशबुओं और कम्पनों से नहीं आँका जाता
रुद्राक्ष और खतनाओं से है जांचा जाता
कोई शीरीं न ही लैला न तो फरहाद है
वो बस गुडिया या फिर सलमा या तो जेहाद है
कि इश्क अब डर की सरहदों का कैदी है
कभी आग कभी कुल्हाड़ी कभी भीड़ की मुस्तैदी है ,
नोंच लेते हैं सरेआम वो जिस्म उनके
खींच देते हैं फाड़ देते हैं जो कपडे उनके
नंगी देह पर जो खुलकर मुस्कुराते हैं
हँसते खिलखिलाते जो ठहाके लगाते हैं
क्या वो इंसान हैं मुझको तो शक होता है
उनकी माओं पर बहनों पर दुःख होता है
सारी प्रार्थनाएं सारे अज़ान बेकार हैं अब
सारी दुआएं सारी मन्नतें बेजान है अब ,
इश्क अब दिल से नहीं दिमाग से करना होगा
उसकी जाति उसका गोत्र उसका धर्म भी देखना होगा
जो ऐसा न किये तो बेतरह पछताओगे
बेमकसद ही एक रोज़ तुम मार दिए जाओगे
सरकार और धर्म के पहरुओं से उम्मीद मत रखना
कभी भूलकर भी उनसे अपने दिल की कुछ मत कहना
पहले वो अपनी राजनीती अपने ऊंट की करवट देखेंगे
फिर अपने लोगों से कहकर फसादात के ज़हर छीटेंगे
लम्बी लम्बी तकरीरें लम्बे लम्बे शहादत के भाषण होंगे
काहिलों की महफ़िल कमीनगी के नजारत होंगे
मसला तुम्हारा यूँ ही बेसहारा रह जाएगा
बिना किसी न्याय के अन्याय सा हो जाएगा ,
कि ये दौर मुहब्बतों का नहीं नफरतों का है
इस दौर में बचकर रहना होगा
ज़ज्बात कितना भी मचलें सीने में
होंठ सिलकर सहना होगा ,
पर जिन्हें हो गयी है उनका क्या
अंधियारी रात के किसी कोने में
डरते सहमते आँखों में आंसू भरे
गिडगिडाती सी
वो अपनी सहेलियों के सीने से लग कह रही हैं
कि मुस्लिम प्रेमी की
हिन्दू प्रेमिका हूँ मै
मुझे लगता है हमें मार दिया जाएगा |

Tuesday 28 November 2017

टीस

मै सोचती थी इश्क है
उसने मगर सुविधा चुनी
तर्कों को कसकर
खीझकर
फिर कह दिया मुझको अजब 
क्या गजब ,
मै अभी भी भ्रम में हूँ
कुछ गम में हूँ
क्या हूँ मै ,
संभव है वो ही सच है शायद
झूठ तो मै भी नहीं पर ,
वक्त शायद हो चला है वापसी का
चल समेटें खुद को साथी
राह देखें अपनी अपनी
नीड़ का निर्माण अब मुमकिन नहीं .

Monday 27 November 2017

इश्क

इश्क आदत है निभाते रहिये
दर्द सरेराह यूँ बिछाते रहिये,
भर उठे जब भी आँसुओं से हलक
नगमा महफिल में सुनाते रहिये,
रख कर हाशिये पर राहतोें को
खुद में बेचैनियां जगाते रहिये,
कभी रियाज तो कभी चोटों से
दिल को शबनमी बनाते रहिये,
रात टूटी है बङी देर के बाद
जाम उसको भी पिलाते रहिये,
यकबयक सामने आ जायें कभी
उनको इस तरह बुलाते रहिये,
न हुये मेरे तो कोई बात नहीं
"राज "गैर न हों ये सिखाते रहिये।

शाम

शाम की कनी चुप है
कुछ उदास शायद
मन धूप की सफेद दरारों के बीच फंसा है,
सुुबह कह रहा था कोई बूँद भर प्यास की कहानी 
बता रहा था कि कैसे छाती भर आग में मोती छनछनाते हैं
कैसे बजता है संगीत जब बादल फटते हैं,
मिट्टी में रेत मिली है
जैसे उम्मीद में दुख
जैसे मदिरा में जल
या जैसे चाह में निराशा,
शाम जब रोशनी थी
खुश थी
शाम अब अंधेरा है
तो समझ दार है।।

माँ

हवा की मुट्ठी में बंध कर आया है वो मौसम
कि जिसमें भरा करती थी माँ स्वाद और चमक
कि जिसमे भरती थी वो खुशियाँ
और लचक,
घर के आंगन में सरसों की गमक
घर के अंदर से चंदन की महक
माँ की आरती हवन घंटियों की मीठी खनक
रचा करती थी संसार अदभुत वो
कि प्रसादी लाचीदाने से
माँ के ऊंगलियों की महक आती थी माथे छुआ कर खाना
मुस्कुराकर वो कहती थी
वो कहती थी बुटुल प्यार से मुझे
भर लेती थी बाँहों में दुलार से मुझे
मेरी शैतानियां वो हँसकर टाल देती थी
मेरी बदमाशियां पर आँखों से गुस्साती थी
न जाने कहाँ से किस्से कहानियों की पोटली वो लाती थी
गुड्डे गुङियों के शादी की दावत करवाती थी,
ये मौसम मेरी याद का सितारा है
ये मौसम मेरी माँ को भी तो प्यारा है
कि जो वो होती
तो आज भी घर से मेरे
मंदिर के होने की सी श्रद्धा आती
कि जो वो होती
तो आज भी घर से मेरे
मेरे नाम की गूंजती सदा आती।

माँ

तुम्हीं कहती थीं
तुम्हीं कहती थीं न माँ मुस्कुराकर
तुम्हें देखकर दिल खुश हो जाता है
मेरे पास बैठो कि मेरे बच्चे बहुत अच्छे हैं
और अपने कमजोर मुलायम हाथों से पकड़ कर मुझे पास बैठा लेती थीं,
तुम्हीं कहती थीं न हमेशा
बताओ क्या बनवाऊं क्या खाओगी ये बनवा दूँ वो बनवा दूँ
फिर मनुहारतीं कि चलो आओ
आज माँ बेटी साथ में खाते हैं,
तुम्हीं कहती थीं न चिंतातुर हो
बेटा खुश तो हो
कोई तकलीफ तो नहीं
कोई कुछ कहता तो नहीं
कहे तो बताना
माँ से कुछ मत छिपाना
मेरी प्यारी बेटी
और हथेलियों से सहलाते अपनी गोद में छिपा लेतीं
मेरी कम उम्र शादी तुम्हें हमेशा सालती,
तुम्हीं कहती थीं न
कि पूरे हास्टल मे
मुझे तुमसे सुंदर कोई नहीँ लगता
तुम सा प्यारा तुम सा स्मार्ट कोई नहीं लगता
और मुझे बाहों में भर मेरा माथा चूम लेती,
तुम्हीं थीं न माँ
कि नीम बेहोशी में भी
जब तब केवल मेरा नाम पुकारतीं
बस मुझे याद करतीं
पापा को उलाहना देतीं
मेरी दूर शादी का
मेरी तकलीफों का
भाई का नाम तक नहीं लिया था तुमने,
तुम्हीं थीं न माँ
कि आई सी यू में भी
मशीनों से घिरे होने पर
जब सबने कहा कि किसी को नहीं पहचान पा रही
मुझे एकदम से पहचान लिया था
हुलसकर कहा था
ये तो मेरी बेटी है
मेरी बेटी,
तुम्हीं थीं न माँ
कि मेरी बेटियों की झूठी शिकायत पर
मुझे झूठ मूठ ही डांटती
और उनके खुश होने पर हँस देतीं खुलकर
उन्हीं की तरह
फेवरिट नानी थीं तुम,
तो अब कहाँ हो
क्यों नहीं दिखती मुझे
क्यों नहीं हथेलियों से पकड़ कर सीने से लगा लेती मुझे
क्यों नहीं पूछती मुझसे मेरी मर्जी
क्यों नहीं पुकारती मेरा नाम
क्यों नहीं चूम लेती एक बार फिर मुझे
क्यों नहीं आज फिर जानना चाहतीं मुझसे मेरी तकलीफ
कि आज सच ही बहुत तकलीफ में हूँ माँ
भयानक उदासी
क्रूर खामोशी
और खूब घुटन
कोई नहीं ऐसा जैसी तुम
आओ न माँ
भाई की बात सच कर दो
कि मम्मी तुम्हें ज्यादा मानती हैं,
आज मैं भी तो देखूं भाई सच थे या नहीं?

माँ

कौन सा सितारा हो तुम 
कहाँ देखूँ कि देख पाऊँ तुमको 
सप्तर्षि के पास या ध्रुव तारे के करीब 
मुक्ति के बाद मुक्त हो सकी हो माँ 
या मेरा दुख मेरे आँसूं अब भी पहुँच पाते हैं तुम तक 
तुम बादलों की ओट लेती हो
या वहाँ से भी देख पाती हो मुझे
कहो न
कहो न माँ कहाँ हो तुम
कहाँ देखूँ कहाँ ढूंढूं तुम्हें
कि तुम्हारा जाना सच नहीं लगता
नहीँ लगता कि अब तुम कभी नहीं लौटेगी मेरे पास
लगता है जैसे अभी पुकारोगी
अभी लोगी मेरा नाम
मुझे छुओगी और अपनी बाहों में भर चूम लोगी मेरा माथा
तुमसे लिपटकर तुम्हारी खुशबू से भर जाऊँगी मैं
एक बार लौट आओ माँ
बस एक बार कि तुम्हारी आवाज़ से भर लूँ मन
कि तुमसे लिपटकर तुम्हारी खुशबू से तर कर लूँ अपनी आत्मा
अपनी हथेलियों से एक बार सहला दो मेरे बाल मेरा चेहरा
फिर चाहे तो चली जाना
चली जाना फिर
बस कुछ देर के लिए मेरे पास आ जाओ माँ
अंतिम बार जाने के लिए
मेरी इतनी सी बात तो सुन लो न माँ।।।

किरण

पीसकर रख ल़ो
सभी अपनी उर्जाओं को
उस एक दिन हेतु
जब सूर्य नहीं उगेगा
और होगा घना अंधकार चहुंओर
और जब हमें होगी सर्वाधिक आवश्यकता इसकी
उजास की एक लौ भर के लिए।

सवाल

जब ये कहा जाये
कि चुप रहो
तुम बोलते रहना,
जब ये कहा जाये
कि मत सुनो
तुम जरूर सुनना,
जब ये कहा जाये
कि मत देखो
निश्चित ही देखना,
ये प्रतिक्रियाओं का दौर है दोस्त
राजा निरंकुश है।

माँ

अपना पूरा जीवन लगा
बहुत करीने से गढती है मां
बच्चों को
उनकी मुस्कान,उनकी हंसी, उनका सुख,
मां कोई भी काम अधूरा नहीं करती
इसलिये जाते जाते भी
खूब करीने से गढ जाती है
बच्चों के भीतर
वृहद स्थायी दुख।

तुम सी

एक फर्क है बस
आज की शाम और महीने भर पहले की उस शाम में,
आज एकांत अंधियारे मेँ चुपचाप बैठी हूं
अकेली.. उदास
कोई नहीं है आस पास,
जबकि उस शाम खूब चहल पहल थी
शोर शराबा और लोगों की लंबी भीड़
तस्वीर सजी थी तुम्हारी
तारीफों की झडी
तुम्हारी याद में आंसू
तुम्हारे खूब भाग्यवान होने का जिक्र
तुम्हारी जिद्द ,तुम्हारे ठाट ,तुम्हारी शाही तबीयत के किस्से
सभी कुछ तो था
नहीं थीं तो बस तुम,
ये सब था
कि कह सकें तुमको अंतिम विदा
कर सकें तुमको रुखसत
पर सब बेमानी था मां
बेकार गया
तुम तो यहीं हो
तुम अब भी हो
कि तुम सी मैं जो हूँ ।

माँ

मां
गुडिया बनाती थीं मेरे लिये
कपडों की ,
बार्बी डाल्स नहीं होती थी न तब
अपनी पुरानी सुंदर साडियाँ कुछ कतरनें 
मेरे फ्राक की फ्रिल्स
रंग बिरंगे बटन्स
और चमकीले सोने चांदी से गोटे
इन सबको मिलाकर बनती थी एक गुडिया
रंगीन धागों से फिर मां बनाती थीं
उनकी आंखें, नाक,होंठ
और चटक लाल बिंदी बडे से माथे पर
जो मुझे सबसे ज्यादा लुभाती,
जब मैं उन्हें छूती तो मां कहतीं हंसकर
तुम्हें भी ऐसे ही लगाऊंगी
मैं खुश हो जाती
फिर मां मेरी मालाओं के बिखरे मोतियों से चूडियां बनातीं
मां उन्हें पायल भी पहनातीं
मेरी पुरानी टूट चुकी पायल के घुंघरू बस
फिर गोटे वाले आंचल से सिर ढककर कहतीं
लो हो गई मेरी गुडिया की गुडिया तैयार
मैं दौडकर उनसे लिपट जाती
उन्हें चूम लेती,
आज फिर जी चाहता है
मां एक गुडिया बनायें
जिनके कपडों से उन्हीं की सी खुशबू आये
जिनकी आंखों से उन्हीं का सा दुलार झरे
जिनके होंठों पर उन्हीं की सी लोरी गूंजे
और हां
जिनके माथे पर सजी हो बडी सी
चटक लाल बिंदी
जैसे वो लगाती थीं
कि जैसे अब मैं लगाती हूँ,
पर मां नहीं बनातीं गुडिया अब
दूर चली गई हैं बहुत।

दुःख

एक रोज धूप बरसी हम पर मुट्ठी मुट्ठी ,
उस रोज हुआ पीपल कि शनिचर हो जैसे
उस रोज भई मिट्टी भी जैसे राख,
लगे फिर पत्ती थामे फूल कि जैसे हों चूरा,
उस रोज हरहरा आइ गई गंगा छाती मेँ ,
सब परबत पत्थर हों कसकर सन्नाय गये फिर देह पर जैसे,
सन्नाटा पसरा आवाज के भीतर भीतर
और धप्प से सूरज पूरा का पूरा पलटा आंखों के ऊपर,
उस रोज लगा कोई छूट गया
कुछ टूट गया
उस रोज लगा दुख पारे वाला झरना है
इसको जीवन भर गिरना है
मन पर मेरे।

मन

मन कहे मन की तू कर
मौसम ये मद सा घुल हवाओं में रहा
गहरे उतर ,
रुक गयी तो सोचती रह जायेगी 
डर गयी तो कसकती रह जायेगी ,
बढ़ तू आगे थाम ले मुट्ठी में कसकर
पी ले उसको ढाल कर प्याले में
और फिर नाच
हाँ नाच होकर मलंग जैसे
जैसे नाची थी कभी मीरा दीवानी
और जैसे नाच उट्ठी थी कभी सब गोपियां
कान्हां के सदके
नाच वैसे ,
तो अब मन कहे मन की तू कर
मौसम ये मद सा घुल हवाओं में रहा
गहरे उतर
तू सांस भर गहरी जो पहुंचे आत्मा तक री सखी !!

औरतें

औरतें
कई दफे वैसी नहीं होतीं जैसा उन्हें होना चाहिए
ये कुछ अजीब है
यूँ उनका होना हो सकता है आपको चमत्कृत करे
पर यकीन मानिए यही सच है ,
कई दफे औरत नहीं चाहती किसी रिश्ते का होना
किसी रिश्ते में होना
जहाँ उम्मीद के मुताबिक हर पल उसका आंकलन होता रहे
हर नज़र संतुष्टि के हिसाब से देखे उसे
तौले उसे फिर प्रमाणित करे
उसके सफल और असफल होने को
ये बोझ है जिससे वो उकता जाती है झुंझला जाती है
कठोर हो जाती है
नहीं करती वैसे जैसे आप चाहते हैं
तो अगली बार जब किसी झुंझलाई उकताई कठोर औरत को देखें
बजाय आक्षेप व् क्रोध तनिक उसके पास जाएँ
उसे स्नेहिल स्पर्श दें
अपनी निश्छल मुस्कान दें
उसे प्रेम दें ,
पर कई दफे औरत प्रेम भी नहीं चाहती
उब चुकी होती है दोहराई जाने वाली प्रेम क्रियाओं से
वितृष्णा की हद तक
वो बेटी बहन पत्नी माँ कुछ नहीं होना चाहती
उसे एकांत की जरूरत है
सिर्फ एकांत
जहाँ वो कर सके अपनी मनमर्जी
अपनी बेवकूफियां
कर सके आईने से बात
जोर जोर से ताली बजाकर हंस सके ,
तो अब
दरअसल
कई दफे वो चाहती है एक मित्र बिना किसी पूर्वाग्रह के
कि जिससे कर सके वो अपने दिल की बात खुलकर
रिश्तों की मर्यादा के चश्मे के बगैर
कह सके वो सब कुछ जो वो कहना चाहती है बेबाक होकर
जो नहीं कह सकती माँ बाप से ,भाई बहन से बच्चों से साथी से
या फिर अपनी निकटतम मित्र से भी
समाज खांचे में फिट किये बैठा जो है सबको
वो सब कुछ कह देना चाहती है जो सालों से उसके अन्दर कैद है
जो सालों से उसे डरा रहा है
जो सालों से उसे घुटन से भर रहा है
जो सालों से उसके मन को पल पल तोड़ रहा है
बिना किसी चरित्र चित्रण के डर के
बिना किसी प्रमाण पत्र के खौफ के
बिना किसी स्वर्णिम मुहर के ,
कुछ लम्हा वो जीना चाहती है खुद होकर
उसे चरित्रहीन मत कहिये
उसे मुक्त होने दीजिये अपनी पीड़ा से
अपनी कुंठाओं से
सरल सहज निश्छल स्त्री होने दीजिये
इससे बेहतरीन इस दुनिया में कुछ भी नहीं !!

सर्दियाँ

सांवली हंसी पर
पीली नरम धूप सी तुम
जो कहती है मुझसे
कौन हो तुम,
मैं सोचता हूं
हां कौन हूं मैं आखिर,
तुम्हारी ही तिरछी मीठी नजरें
तुम्हारा यूँ उत्तप्त होना
निहारना मुझे
खोल देता है फिर भेद ,
मैं विहंस पडता हूँ
दिल अब भरा भरा सा है
जैसे भरा होता है झरने के नीचे का गड्ढा
या जैसे भरा होता है पहाड़ी चश्मा
या जैसे उन्मुक्त जंगल
या जैसे बुरांश के पेड़
गुलाबों का बगीचा
या जैसे भरा हो तालाब ढेरों कमल से,
ओहह प्रेम
तुमने दस्तक दे ही दी ,
कया सर्दियां लौट आई हैं
फिर ??

माँ

कुछ यादें हैं मीठी सी तो कुछ लम्हे बहुत सुहाने हैं
मेरी नींदों में अब भी वो मौजूद पुराने गाने हैं ,
बचपन में जब भी मै तुमसे कहती मुझको गुडिया ला दो
तुम कहतीं कि तैयार है बस कंगन उसको पहनाने हैं ,
तुम थपकी देकर कहती थीं सो जा मेरी बच्ची सो जा
मै भर दुलार से कहती थी माँ किस्से अभी सुनाने हैं ,
तुम छोड़ गयीं जिन लम्हों को पूरा करना न याद रहा
उन लम्हों को ही जोड़ जोड़ यादों के महल सजाने हैं ,
आती हो याद बहुत मुझको भाई भी रोया करते हैं
हम दोनों को मिलकर ही बस जीने सारे अफ़साने हैं !!

यूँ ही

जब हम बीमार हों
हमारे आस पास की हवा हो अलसाई
जब उबी हुई सी महक आये
जीभ लगे कसैली
उकताहट भरे हों दिन और धूप
और रात खूब लंबी ,
क्या करें फिर
सिवाय इसके
कि सिर तक तानकर चादर
सोते रहें
कुढते रहें.।

भावचित्र

ये उस दौर का एक भावचित्र
जब धरती हुआ करती रही
आग का एक विशाल गोला
तपती ,दहकती , निर्लिप्त ,एकाकी ,
और जब बारिश पहली बार छलकी होगी
फिर और छलकी होगी
फिर बरसी होगी बेहिसाब
टूट पड़े होंगे रेले
और छन्न से गूंजा होगा संगीत
सरगम का पहला सुर
पहली धुन
और फिर बजता ही चला गया होगा
उन्मत्त बूंदों के सतरंगी प्रवाह में
नाच उठा होगा मन मयूर
आत्मा तृप्त हो प्रमुदित हुयी होगी
जग बौराया होगा
गगन मुस्काया होगा
अहा ....अद्भुत ....
आंख मीचे मुदित मगन हो करें कल्पना !!

बहने

बहनें जरूरी होती हैं
लड़ने झगड़ने शिकवे शिकायतों 
रूठने मनाने व् फिर लड़ने के लिए
सब्र आजमाने बेफुजूल सुनाने
कुछ लम्हें उनके चुराने कुछ अपने बनाने के लिए
बहनें जरूरी होती हैं ,
मन का भेद कहने
थोडा उनके हिस्से को बांटने अपनी बंटाने
दुःख सुख साझा करने
हौसलों को थामे रखने
किसी से कहीं भी कभी भी लड़ भिड जाने के लिए
बहनें जरूरी होती हैं ,
बहनें जरूरी होती हैं
कि बहनें रूह का आधा हिस्सा होती हैं
बचपन का पूरा किस्सा होती हैं
रात के अँधेरे में करती चुहलबाजियाँ
सहेलियों में बघारी शेखियां होती हैं
फिर आम का अचार चटपटा सा प्यार
बूंदी का गर्म लड्डू और चोरी का समोसा होती हैं ,
हो कोई भी त्यौहार या फिर हो रविवार
वो साथ का खज़ाना
यौवन का हर अफसाना
एक थाली का खाना संग गुनगुनाना
बोरसी की आग बेसुरा सा राग
कच्चा अमरुद खट्टी सी इमली या बडका तालाब
रजाई की गर्मी बिस्तर का आधा साइड
दिल से थोड़ी वाइड
पापा की दुलारी मम्मी की रानी बिटिया
मेरे जलन की पुडिया होती है ,
पर पराई इस दुनिया में जो सबकुछ अपना बना दे
मन को सज़ा दे
जो खूबसूरत तसल्ली सी लगे
अजनबी लोगों में अपनी सी लगे
वो कस्तूरी होती हैं
बहने जरूरी होती हैं !!

हो सकता है

राख से रचा फूल
आग में पकी कविता
हो सकती है ,
हो सकता है 
दूध का चन्द्रमा बनना
और सूरज का होना रेत ,
पहाड़ का मिटटी बनना भी मुश्किल नहीं
न ही नदी का सूखकर कुछ जगह उधार देना
अगर बोना हो उसमे गुलाब
उगानी हो नज़्म ,
एक हरे आसमान की कल्पना भी नामुमकिन नहीं
महसूसनी हो गर वहां समन्दर की आत्मा
देखना हो ढेरों बत्तखों का झुण्ड ,
तितलियों को मौसम का प्रेम भी कह सकते हैं
जो बिखरा होता है उनके पंखों पर
उड़ते हुए कभी कभी छिटक भी जाता है
जैसे छिटक जाती है रोली टीका करते समय
या जैसे छिटक जाता है सिन्दूर भरते हुए कोई सूनी मांग ,
ये सब उतना ही संभव है
कि जितना संभव है
आलमारी में पड़ी पुरानी किसी डायरी का अचानक हाथ लगना
पीले पड चुके पन्नों में से किसी एक का गुलाबी हो जाना
उस पर बार बार तराशकर लिखे गए एक नाम का पिघलकर गीला हो जाना
और हो जाना नज़रों का पहले झिलमिल
और फिर क्रमशः आत्मा का बोझिल हो जाना !!

छोटी बच्ची

मै आज भी
उस दौर में हूँ
जब तितली के परों पर
खुशबुओं से नज़्म लिखा करते थे ,
जब हवाओं पर उड़े उड़े फिरा करते थे 
जब आंगन में चूल्हे होते थे
जब पेड़ों में झूले होते थे ,
जब माँ की गोद लिहाफ सी हुआ करती थी
जब कुनमुनाई सी नींद बाहों में गुजरती थी
जब सरसों के तेल तालू पर थपक थपक कर रखे जाते थे
जब अमरुद गाजर का हलवा भूनी मूंगफली
साथ बैठकर खाते थे
वो अन्ताक्षरियों का वक्त था
पो शम पा और गुड्डे गुड़ियों का वक्त था ,
मुझे फिर से उसी वक्त में बस लौट जाना है
मुझे फिर से अपनी माँ की छोटी बच्ची भर
बन जाना है |

सुनो साथी

सुनो साथी
तुम मत बदलना
कि बदलती हैं स्त्रियाँ प्रेम में 
पुरुष नहीं ,
जब तुम हमें टोकते हो बांधते हो
हम उसे प्रेम मान लेते हैं
जब तुम हमारे कपड़ों को संतुलित करते हो
हम उसे भी प्रेम मान लेते हैं ,
हमें तो वो भी प्रेम ही लगता है
जब तुम हमारा किसी से बात किया जाना बाधित करते हो
या जब तुम ये कहते हो
तुम अपनी सहेली से ज्यादा सभ्य व् सुसंस्कृत हो
तुम ज्यादा परिपक्व हो
हमारे पुराने ढर्रों को भी तुम स्वाभाविक मान लेते हो
कमतर होने को सामाजिकता ,
प्रेम तो हम स्त्रियाँ उसे भी समझ लेते हैं
जब बीमारी में तुम पानी का गिलास पकडाते हो
या पूछते हो डॉक्टर के पास चलना है ?
या जब कहते हो
ठीक लग रहा हो तो ज्यादा कुछ नहीं खिचडी ही बना लो ,
हमारे जीवन पर आदतों पर आधिकारिक नियंत्रण
सामान्य है तुम्हारे लिए
कि ये तो होता ही है
हम स्त्रियाँ भी प्रेम की खुशफहमियों का जाल ओढ़े
स्वाभाविक मान लेते हैं इसे
कि ये तो होता ही है ,
पर यदि प्रेम है तो ये होना क्यों साथी
कभी सोचा है
कभी सोचा है हमारे और अपने बदलाव का अनुपात
प्रेम में
तुम्हारा मानना तर्क और हमारा बहस
तुम्हारे प्रतिबन्ध प्रेम और हमारे केवल शक ?
तुम्हारा श्रेष्ठ होना स्वाभाविक और हमारा आघात
तुम्हारा कहना मान्य और हमारा कहना जिद्द ?
साथी
मत बदलना तुम तब तक
जब तक हम स्त्रियाँ प्रेम का मापदंड नहीं बदलती
खुद को काबिल नहीं समझतीं
कि प्रेम साझे अनुपात में होता है
स्वीकार्य अस्वीकार्य का दर्शन समभाव होना चाहिये
एक होना चाहिए व्यवहार की परम्परा भी
कम या अधिक में नहीं
कि इसमें तो सिर्फ गुलामी होती है
मालिक की दास द्वारा ,
जल्द ही बदलना होगा पर
ऐसा लगता है
तुम्हें और तुम्हारे तथाकथित सखा भाव को भी साथी !!

Thursday 23 November 2017

प्रेम

पलकें हौले से कांपी थी उसकी ....नमी से आँखें भर जो आई थीं कि जो समाता नहीं है वो बिखर जाता है चाहे आंसू हो या प्रेम ....ये जरूर  है कि आंसुओं का बिखरना दिख जाता  है पर प्रेम का बिखरना बस महसूस होता है ...आंसू सामने वाले पर असर छोड़ता है पर प्रेम अन्दर ही अन्दर छीलता रहता है खुद को  .... तोड़ता रहता है ...भर देता है घुटन से ...घुटन जो जीने नहीं देती ...मरने भी तो नहीं देती ...बस उम्मीद सी पलती रहती है सीने में ..आँखों में ..किसी एक पल के सुकून की ज़मीन सी या फिर कुछ रूहानी राहत की तस्कीन सी कि जब नसों में पडी गांठें धीरे-धीरे खुलने लगेंगी और लहू बेबाकी से  ह्रदय में अठखेलियाँ कर सकेगा ...

ऐसा ही कुछ था पूजा के साथ कि वो जिन्दा तो थी पर जिन्दा नहीं थी ...कि वो शामिल तो थी जिन्दगी में पर खोयी हुयी सी ...उसके अन्दर  भी कहीं कुछ टूटा हुआ था ..गहरे ..बहुत गहरे ...कभी कभी कुछ सुर्ख सा झलक आता जो उसकी सियाहियों से तो सवालिया नज़रें तन जातीं पर फिर वैसे ही मिट भी जातीं कि उसे जो भी देखता पुरसुकून पाता ....खुशमिजाज़ पाता ........ जहन में शक के लिए कोई वजह नहीं बचती क्योंकि उसके अंतस का दुःख उसके लहू में बेशक टूटता-फूटता रहे पर उसे वो कभी ज़ाहिर नहीं करती....संभाले रखती ...सेती रहती किसी खजाने सा कि जो उसका था ...केवल उसका अपना निजी ...

प्रेम यूँ ही तो खास नहीं हुआ करता न ..... इसमे जिंदगियों को कैद करने या शासित करने का स्वाभाविक गुण होता है ....कि इसकी थरथराहट अमृत भर देती है और इसकी उदासी ....वो तो धीमे जहर की तरह जिन्दगी की मुस्कुराहटों को निगल जाती है

पूजा की जिन्दगी में भी यही मसला था कि उसे प्रेम हुआ था ...बेहद प्रेम ...गहरा प्रेम ....रूहानी प्रेम ....पर वो उसे हासिल न हो सका ...और फिर एक निश्चित उदासी का अनिश्चित दौर उस पर छा गया ...दिन भर सबके सामने ..सबके साथ वो सहज होती सरल होती ...जिंदादिल होती पर तन्हाई में उसके अन्दर का एक शख्स उसके पहलू में होता जिसे वो सांस-सांस महसूस करना चाहती ....जिसकी हरारत से वो भर जाना चाहती कि जिसके कम्पनो से वो पिघल जाना चाहती ...पर वो सिर्फ कल्पनाओं का आईना भर बनकर ठहर जाता  जिसमे अक्स तो नज़र आ सकता है पर स्पर्श नहीं होता ......और इसी स्पर्श की अनुपस्थिति उसे कुंठित करती ...करती रहती लगातार और उसके सीने का पत्थर हर बार कुछ और भारी हो जाता ...होता रहता निरंतर ..

जब वो मिला था तब भी पूरा नहीं  मिला था ...और जब वो गया तब भी पूरा नहीं जा पाया ...रह गया थोडा या शायद बहुत ....उससे भी कहीं ज्यादा कि जब वो हासिल था क्योंकि अगर प्रेम कि किस्में होती हैं तो ये एक ख़ास किस्म का प्रेम था जिसमे शब्दों की अदला-बदली उँगलियों पर गिनी जा सकती थी ...कि जिसमे पत्रों की संख्या शून्य थी  ( उस दौर में मोबाइल ,इन्टरनेट या whatsapp जैसी तकनीकी सुविधाएँ मौजूद नहीं थीं ) ...बस एक फ़ोन हुआ करता था कमबख्त जो सबकी नज़रों की जद में होता और इसी वजह से उससे बात करना मुमकिन नहीं हो पाया कभी ...वैसे हिम्मत भी  नहीं हुयी कभी ...कि आवाज़ सुन पाने की कल्पना से ही जिस्म कंपकंपाने लगता ..हलक सूख जाता और उंगलियाँ गलत नंबर पर टिक जातीं ...पर हाँ ..निगाहों से जितनी बातें की जा सकनी मुमकिन थीं वो सब हुयी थीं ...कसमे-वादे ,शिकायतें इज़हार रूठना मनाना ख़ुशी आंसू बेचैनी ख्वाहिश ....इन सबको बांटा गया था ..और इसी अधूरी थाती को बूँद बूँद पीकर उसने लहू में घोल दिया है कि जिससे उसकी हर धड़कन तपती रहे ...तडपती रहे ...कसकती रहे ..रोती  रहे ....सिसकती रहे ...कि उसकी प्रीत उसमे पलती रहे .

प्रेम यूँ भी होता है ....प्रेम यूँ ही होता है ..कि जब उसे प्रेम कहा जाता है ...कहा जा सकता है कि जिसे रूहों से बांधकर माथे पर सज़ा लिया जाता है .