Tuesday 28 November 2017

टीस

मै सोचती थी इश्क है
उसने मगर सुविधा चुनी
तर्कों को कसकर
खीझकर
फिर कह दिया मुझको अजब 
क्या गजब ,
मै अभी भी भ्रम में हूँ
कुछ गम में हूँ
क्या हूँ मै ,
संभव है वो ही सच है शायद
झूठ तो मै भी नहीं पर ,
वक्त शायद हो चला है वापसी का
चल समेटें खुद को साथी
राह देखें अपनी अपनी
नीड़ का निर्माण अब मुमकिन नहीं .

Monday 27 November 2017

इश्क

इश्क आदत है निभाते रहिये
दर्द सरेराह यूँ बिछाते रहिये,
भर उठे जब भी आँसुओं से हलक
नगमा महफिल में सुनाते रहिये,
रख कर हाशिये पर राहतोें को
खुद में बेचैनियां जगाते रहिये,
कभी रियाज तो कभी चोटों से
दिल को शबनमी बनाते रहिये,
रात टूटी है बङी देर के बाद
जाम उसको भी पिलाते रहिये,
यकबयक सामने आ जायें कभी
उनको इस तरह बुलाते रहिये,
न हुये मेरे तो कोई बात नहीं
"राज "गैर न हों ये सिखाते रहिये।

शाम

शाम की कनी चुप है
कुछ उदास शायद
मन धूप की सफेद दरारों के बीच फंसा है,
सुुबह कह रहा था कोई बूँद भर प्यास की कहानी 
बता रहा था कि कैसे छाती भर आग में मोती छनछनाते हैं
कैसे बजता है संगीत जब बादल फटते हैं,
मिट्टी में रेत मिली है
जैसे उम्मीद में दुख
जैसे मदिरा में जल
या जैसे चाह में निराशा,
शाम जब रोशनी थी
खुश थी
शाम अब अंधेरा है
तो समझ दार है।।

माँ

हवा की मुट्ठी में बंध कर आया है वो मौसम
कि जिसमें भरा करती थी माँ स्वाद और चमक
कि जिसमे भरती थी वो खुशियाँ
और लचक,
घर के आंगन में सरसों की गमक
घर के अंदर से चंदन की महक
माँ की आरती हवन घंटियों की मीठी खनक
रचा करती थी संसार अदभुत वो
कि प्रसादी लाचीदाने से
माँ के ऊंगलियों की महक आती थी माथे छुआ कर खाना
मुस्कुराकर वो कहती थी
वो कहती थी बुटुल प्यार से मुझे
भर लेती थी बाँहों में दुलार से मुझे
मेरी शैतानियां वो हँसकर टाल देती थी
मेरी बदमाशियां पर आँखों से गुस्साती थी
न जाने कहाँ से किस्से कहानियों की पोटली वो लाती थी
गुड्डे गुङियों के शादी की दावत करवाती थी,
ये मौसम मेरी याद का सितारा है
ये मौसम मेरी माँ को भी तो प्यारा है
कि जो वो होती
तो आज भी घर से मेरे
मंदिर के होने की सी श्रद्धा आती
कि जो वो होती
तो आज भी घर से मेरे
मेरे नाम की गूंजती सदा आती।

माँ

तुम्हीं कहती थीं
तुम्हीं कहती थीं न माँ मुस्कुराकर
तुम्हें देखकर दिल खुश हो जाता है
मेरे पास बैठो कि मेरे बच्चे बहुत अच्छे हैं
और अपने कमजोर मुलायम हाथों से पकड़ कर मुझे पास बैठा लेती थीं,
तुम्हीं कहती थीं न हमेशा
बताओ क्या बनवाऊं क्या खाओगी ये बनवा दूँ वो बनवा दूँ
फिर मनुहारतीं कि चलो आओ
आज माँ बेटी साथ में खाते हैं,
तुम्हीं कहती थीं न चिंतातुर हो
बेटा खुश तो हो
कोई तकलीफ तो नहीं
कोई कुछ कहता तो नहीं
कहे तो बताना
माँ से कुछ मत छिपाना
मेरी प्यारी बेटी
और हथेलियों से सहलाते अपनी गोद में छिपा लेतीं
मेरी कम उम्र शादी तुम्हें हमेशा सालती,
तुम्हीं कहती थीं न
कि पूरे हास्टल मे
मुझे तुमसे सुंदर कोई नहीँ लगता
तुम सा प्यारा तुम सा स्मार्ट कोई नहीं लगता
और मुझे बाहों में भर मेरा माथा चूम लेती,
तुम्हीं थीं न माँ
कि नीम बेहोशी में भी
जब तब केवल मेरा नाम पुकारतीं
बस मुझे याद करतीं
पापा को उलाहना देतीं
मेरी दूर शादी का
मेरी तकलीफों का
भाई का नाम तक नहीं लिया था तुमने,
तुम्हीं थीं न माँ
कि आई सी यू में भी
मशीनों से घिरे होने पर
जब सबने कहा कि किसी को नहीं पहचान पा रही
मुझे एकदम से पहचान लिया था
हुलसकर कहा था
ये तो मेरी बेटी है
मेरी बेटी,
तुम्हीं थीं न माँ
कि मेरी बेटियों की झूठी शिकायत पर
मुझे झूठ मूठ ही डांटती
और उनके खुश होने पर हँस देतीं खुलकर
उन्हीं की तरह
फेवरिट नानी थीं तुम,
तो अब कहाँ हो
क्यों नहीं दिखती मुझे
क्यों नहीं हथेलियों से पकड़ कर सीने से लगा लेती मुझे
क्यों नहीं पूछती मुझसे मेरी मर्जी
क्यों नहीं पुकारती मेरा नाम
क्यों नहीं चूम लेती एक बार फिर मुझे
क्यों नहीं आज फिर जानना चाहतीं मुझसे मेरी तकलीफ
कि आज सच ही बहुत तकलीफ में हूँ माँ
भयानक उदासी
क्रूर खामोशी
और खूब घुटन
कोई नहीं ऐसा जैसी तुम
आओ न माँ
भाई की बात सच कर दो
कि मम्मी तुम्हें ज्यादा मानती हैं,
आज मैं भी तो देखूं भाई सच थे या नहीं?

माँ

कौन सा सितारा हो तुम 
कहाँ देखूँ कि देख पाऊँ तुमको 
सप्तर्षि के पास या ध्रुव तारे के करीब 
मुक्ति के बाद मुक्त हो सकी हो माँ 
या मेरा दुख मेरे आँसूं अब भी पहुँच पाते हैं तुम तक 
तुम बादलों की ओट लेती हो
या वहाँ से भी देख पाती हो मुझे
कहो न
कहो न माँ कहाँ हो तुम
कहाँ देखूँ कहाँ ढूंढूं तुम्हें
कि तुम्हारा जाना सच नहीं लगता
नहीँ लगता कि अब तुम कभी नहीं लौटेगी मेरे पास
लगता है जैसे अभी पुकारोगी
अभी लोगी मेरा नाम
मुझे छुओगी और अपनी बाहों में भर चूम लोगी मेरा माथा
तुमसे लिपटकर तुम्हारी खुशबू से भर जाऊँगी मैं
एक बार लौट आओ माँ
बस एक बार कि तुम्हारी आवाज़ से भर लूँ मन
कि तुमसे लिपटकर तुम्हारी खुशबू से तर कर लूँ अपनी आत्मा
अपनी हथेलियों से एक बार सहला दो मेरे बाल मेरा चेहरा
फिर चाहे तो चली जाना
चली जाना फिर
बस कुछ देर के लिए मेरे पास आ जाओ माँ
अंतिम बार जाने के लिए
मेरी इतनी सी बात तो सुन लो न माँ।।।

किरण

पीसकर रख ल़ो
सभी अपनी उर्जाओं को
उस एक दिन हेतु
जब सूर्य नहीं उगेगा
और होगा घना अंधकार चहुंओर
और जब हमें होगी सर्वाधिक आवश्यकता इसकी
उजास की एक लौ भर के लिए।

सवाल

जब ये कहा जाये
कि चुप रहो
तुम बोलते रहना,
जब ये कहा जाये
कि मत सुनो
तुम जरूर सुनना,
जब ये कहा जाये
कि मत देखो
निश्चित ही देखना,
ये प्रतिक्रियाओं का दौर है दोस्त
राजा निरंकुश है।

माँ

अपना पूरा जीवन लगा
बहुत करीने से गढती है मां
बच्चों को
उनकी मुस्कान,उनकी हंसी, उनका सुख,
मां कोई भी काम अधूरा नहीं करती
इसलिये जाते जाते भी
खूब करीने से गढ जाती है
बच्चों के भीतर
वृहद स्थायी दुख।

तुम सी

एक फर्क है बस
आज की शाम और महीने भर पहले की उस शाम में,
आज एकांत अंधियारे मेँ चुपचाप बैठी हूं
अकेली.. उदास
कोई नहीं है आस पास,
जबकि उस शाम खूब चहल पहल थी
शोर शराबा और लोगों की लंबी भीड़
तस्वीर सजी थी तुम्हारी
तारीफों की झडी
तुम्हारी याद में आंसू
तुम्हारे खूब भाग्यवान होने का जिक्र
तुम्हारी जिद्द ,तुम्हारे ठाट ,तुम्हारी शाही तबीयत के किस्से
सभी कुछ तो था
नहीं थीं तो बस तुम,
ये सब था
कि कह सकें तुमको अंतिम विदा
कर सकें तुमको रुखसत
पर सब बेमानी था मां
बेकार गया
तुम तो यहीं हो
तुम अब भी हो
कि तुम सी मैं जो हूँ ।

माँ

मां
गुडिया बनाती थीं मेरे लिये
कपडों की ,
बार्बी डाल्स नहीं होती थी न तब
अपनी पुरानी सुंदर साडियाँ कुछ कतरनें 
मेरे फ्राक की फ्रिल्स
रंग बिरंगे बटन्स
और चमकीले सोने चांदी से गोटे
इन सबको मिलाकर बनती थी एक गुडिया
रंगीन धागों से फिर मां बनाती थीं
उनकी आंखें, नाक,होंठ
और चटक लाल बिंदी बडे से माथे पर
जो मुझे सबसे ज्यादा लुभाती,
जब मैं उन्हें छूती तो मां कहतीं हंसकर
तुम्हें भी ऐसे ही लगाऊंगी
मैं खुश हो जाती
फिर मां मेरी मालाओं के बिखरे मोतियों से चूडियां बनातीं
मां उन्हें पायल भी पहनातीं
मेरी पुरानी टूट चुकी पायल के घुंघरू बस
फिर गोटे वाले आंचल से सिर ढककर कहतीं
लो हो गई मेरी गुडिया की गुडिया तैयार
मैं दौडकर उनसे लिपट जाती
उन्हें चूम लेती,
आज फिर जी चाहता है
मां एक गुडिया बनायें
जिनके कपडों से उन्हीं की सी खुशबू आये
जिनकी आंखों से उन्हीं का सा दुलार झरे
जिनके होंठों पर उन्हीं की सी लोरी गूंजे
और हां
जिनके माथे पर सजी हो बडी सी
चटक लाल बिंदी
जैसे वो लगाती थीं
कि जैसे अब मैं लगाती हूँ,
पर मां नहीं बनातीं गुडिया अब
दूर चली गई हैं बहुत।

दुःख

एक रोज धूप बरसी हम पर मुट्ठी मुट्ठी ,
उस रोज हुआ पीपल कि शनिचर हो जैसे
उस रोज भई मिट्टी भी जैसे राख,
लगे फिर पत्ती थामे फूल कि जैसे हों चूरा,
उस रोज हरहरा आइ गई गंगा छाती मेँ ,
सब परबत पत्थर हों कसकर सन्नाय गये फिर देह पर जैसे,
सन्नाटा पसरा आवाज के भीतर भीतर
और धप्प से सूरज पूरा का पूरा पलटा आंखों के ऊपर,
उस रोज लगा कोई छूट गया
कुछ टूट गया
उस रोज लगा दुख पारे वाला झरना है
इसको जीवन भर गिरना है
मन पर मेरे।

मन

मन कहे मन की तू कर
मौसम ये मद सा घुल हवाओं में रहा
गहरे उतर ,
रुक गयी तो सोचती रह जायेगी 
डर गयी तो कसकती रह जायेगी ,
बढ़ तू आगे थाम ले मुट्ठी में कसकर
पी ले उसको ढाल कर प्याले में
और फिर नाच
हाँ नाच होकर मलंग जैसे
जैसे नाची थी कभी मीरा दीवानी
और जैसे नाच उट्ठी थी कभी सब गोपियां
कान्हां के सदके
नाच वैसे ,
तो अब मन कहे मन की तू कर
मौसम ये मद सा घुल हवाओं में रहा
गहरे उतर
तू सांस भर गहरी जो पहुंचे आत्मा तक री सखी !!

औरतें

औरतें
कई दफे वैसी नहीं होतीं जैसा उन्हें होना चाहिए
ये कुछ अजीब है
यूँ उनका होना हो सकता है आपको चमत्कृत करे
पर यकीन मानिए यही सच है ,
कई दफे औरत नहीं चाहती किसी रिश्ते का होना
किसी रिश्ते में होना
जहाँ उम्मीद के मुताबिक हर पल उसका आंकलन होता रहे
हर नज़र संतुष्टि के हिसाब से देखे उसे
तौले उसे फिर प्रमाणित करे
उसके सफल और असफल होने को
ये बोझ है जिससे वो उकता जाती है झुंझला जाती है
कठोर हो जाती है
नहीं करती वैसे जैसे आप चाहते हैं
तो अगली बार जब किसी झुंझलाई उकताई कठोर औरत को देखें
बजाय आक्षेप व् क्रोध तनिक उसके पास जाएँ
उसे स्नेहिल स्पर्श दें
अपनी निश्छल मुस्कान दें
उसे प्रेम दें ,
पर कई दफे औरत प्रेम भी नहीं चाहती
उब चुकी होती है दोहराई जाने वाली प्रेम क्रियाओं से
वितृष्णा की हद तक
वो बेटी बहन पत्नी माँ कुछ नहीं होना चाहती
उसे एकांत की जरूरत है
सिर्फ एकांत
जहाँ वो कर सके अपनी मनमर्जी
अपनी बेवकूफियां
कर सके आईने से बात
जोर जोर से ताली बजाकर हंस सके ,
तो अब
दरअसल
कई दफे वो चाहती है एक मित्र बिना किसी पूर्वाग्रह के
कि जिससे कर सके वो अपने दिल की बात खुलकर
रिश्तों की मर्यादा के चश्मे के बगैर
कह सके वो सब कुछ जो वो कहना चाहती है बेबाक होकर
जो नहीं कह सकती माँ बाप से ,भाई बहन से बच्चों से साथी से
या फिर अपनी निकटतम मित्र से भी
समाज खांचे में फिट किये बैठा जो है सबको
वो सब कुछ कह देना चाहती है जो सालों से उसके अन्दर कैद है
जो सालों से उसे डरा रहा है
जो सालों से उसे घुटन से भर रहा है
जो सालों से उसके मन को पल पल तोड़ रहा है
बिना किसी चरित्र चित्रण के डर के
बिना किसी प्रमाण पत्र के खौफ के
बिना किसी स्वर्णिम मुहर के ,
कुछ लम्हा वो जीना चाहती है खुद होकर
उसे चरित्रहीन मत कहिये
उसे मुक्त होने दीजिये अपनी पीड़ा से
अपनी कुंठाओं से
सरल सहज निश्छल स्त्री होने दीजिये
इससे बेहतरीन इस दुनिया में कुछ भी नहीं !!

सर्दियाँ

सांवली हंसी पर
पीली नरम धूप सी तुम
जो कहती है मुझसे
कौन हो तुम,
मैं सोचता हूं
हां कौन हूं मैं आखिर,
तुम्हारी ही तिरछी मीठी नजरें
तुम्हारा यूँ उत्तप्त होना
निहारना मुझे
खोल देता है फिर भेद ,
मैं विहंस पडता हूँ
दिल अब भरा भरा सा है
जैसे भरा होता है झरने के नीचे का गड्ढा
या जैसे भरा होता है पहाड़ी चश्मा
या जैसे उन्मुक्त जंगल
या जैसे बुरांश के पेड़
गुलाबों का बगीचा
या जैसे भरा हो तालाब ढेरों कमल से,
ओहह प्रेम
तुमने दस्तक दे ही दी ,
कया सर्दियां लौट आई हैं
फिर ??

माँ

कुछ यादें हैं मीठी सी तो कुछ लम्हे बहुत सुहाने हैं
मेरी नींदों में अब भी वो मौजूद पुराने गाने हैं ,
बचपन में जब भी मै तुमसे कहती मुझको गुडिया ला दो
तुम कहतीं कि तैयार है बस कंगन उसको पहनाने हैं ,
तुम थपकी देकर कहती थीं सो जा मेरी बच्ची सो जा
मै भर दुलार से कहती थी माँ किस्से अभी सुनाने हैं ,
तुम छोड़ गयीं जिन लम्हों को पूरा करना न याद रहा
उन लम्हों को ही जोड़ जोड़ यादों के महल सजाने हैं ,
आती हो याद बहुत मुझको भाई भी रोया करते हैं
हम दोनों को मिलकर ही बस जीने सारे अफ़साने हैं !!

यूँ ही

जब हम बीमार हों
हमारे आस पास की हवा हो अलसाई
जब उबी हुई सी महक आये
जीभ लगे कसैली
उकताहट भरे हों दिन और धूप
और रात खूब लंबी ,
क्या करें फिर
सिवाय इसके
कि सिर तक तानकर चादर
सोते रहें
कुढते रहें.।

भावचित्र

ये उस दौर का एक भावचित्र
जब धरती हुआ करती रही
आग का एक विशाल गोला
तपती ,दहकती , निर्लिप्त ,एकाकी ,
और जब बारिश पहली बार छलकी होगी
फिर और छलकी होगी
फिर बरसी होगी बेहिसाब
टूट पड़े होंगे रेले
और छन्न से गूंजा होगा संगीत
सरगम का पहला सुर
पहली धुन
और फिर बजता ही चला गया होगा
उन्मत्त बूंदों के सतरंगी प्रवाह में
नाच उठा होगा मन मयूर
आत्मा तृप्त हो प्रमुदित हुयी होगी
जग बौराया होगा
गगन मुस्काया होगा
अहा ....अद्भुत ....
आंख मीचे मुदित मगन हो करें कल्पना !!

बहने

बहनें जरूरी होती हैं
लड़ने झगड़ने शिकवे शिकायतों 
रूठने मनाने व् फिर लड़ने के लिए
सब्र आजमाने बेफुजूल सुनाने
कुछ लम्हें उनके चुराने कुछ अपने बनाने के लिए
बहनें जरूरी होती हैं ,
मन का भेद कहने
थोडा उनके हिस्से को बांटने अपनी बंटाने
दुःख सुख साझा करने
हौसलों को थामे रखने
किसी से कहीं भी कभी भी लड़ भिड जाने के लिए
बहनें जरूरी होती हैं ,
बहनें जरूरी होती हैं
कि बहनें रूह का आधा हिस्सा होती हैं
बचपन का पूरा किस्सा होती हैं
रात के अँधेरे में करती चुहलबाजियाँ
सहेलियों में बघारी शेखियां होती हैं
फिर आम का अचार चटपटा सा प्यार
बूंदी का गर्म लड्डू और चोरी का समोसा होती हैं ,
हो कोई भी त्यौहार या फिर हो रविवार
वो साथ का खज़ाना
यौवन का हर अफसाना
एक थाली का खाना संग गुनगुनाना
बोरसी की आग बेसुरा सा राग
कच्चा अमरुद खट्टी सी इमली या बडका तालाब
रजाई की गर्मी बिस्तर का आधा साइड
दिल से थोड़ी वाइड
पापा की दुलारी मम्मी की रानी बिटिया
मेरे जलन की पुडिया होती है ,
पर पराई इस दुनिया में जो सबकुछ अपना बना दे
मन को सज़ा दे
जो खूबसूरत तसल्ली सी लगे
अजनबी लोगों में अपनी सी लगे
वो कस्तूरी होती हैं
बहने जरूरी होती हैं !!

हो सकता है

राख से रचा फूल
आग में पकी कविता
हो सकती है ,
हो सकता है 
दूध का चन्द्रमा बनना
और सूरज का होना रेत ,
पहाड़ का मिटटी बनना भी मुश्किल नहीं
न ही नदी का सूखकर कुछ जगह उधार देना
अगर बोना हो उसमे गुलाब
उगानी हो नज़्म ,
एक हरे आसमान की कल्पना भी नामुमकिन नहीं
महसूसनी हो गर वहां समन्दर की आत्मा
देखना हो ढेरों बत्तखों का झुण्ड ,
तितलियों को मौसम का प्रेम भी कह सकते हैं
जो बिखरा होता है उनके पंखों पर
उड़ते हुए कभी कभी छिटक भी जाता है
जैसे छिटक जाती है रोली टीका करते समय
या जैसे छिटक जाता है सिन्दूर भरते हुए कोई सूनी मांग ,
ये सब उतना ही संभव है
कि जितना संभव है
आलमारी में पड़ी पुरानी किसी डायरी का अचानक हाथ लगना
पीले पड चुके पन्नों में से किसी एक का गुलाबी हो जाना
उस पर बार बार तराशकर लिखे गए एक नाम का पिघलकर गीला हो जाना
और हो जाना नज़रों का पहले झिलमिल
और फिर क्रमशः आत्मा का बोझिल हो जाना !!

छोटी बच्ची

मै आज भी
उस दौर में हूँ
जब तितली के परों पर
खुशबुओं से नज़्म लिखा करते थे ,
जब हवाओं पर उड़े उड़े फिरा करते थे 
जब आंगन में चूल्हे होते थे
जब पेड़ों में झूले होते थे ,
जब माँ की गोद लिहाफ सी हुआ करती थी
जब कुनमुनाई सी नींद बाहों में गुजरती थी
जब सरसों के तेल तालू पर थपक थपक कर रखे जाते थे
जब अमरुद गाजर का हलवा भूनी मूंगफली
साथ बैठकर खाते थे
वो अन्ताक्षरियों का वक्त था
पो शम पा और गुड्डे गुड़ियों का वक्त था ,
मुझे फिर से उसी वक्त में बस लौट जाना है
मुझे फिर से अपनी माँ की छोटी बच्ची भर
बन जाना है |

सुनो साथी

सुनो साथी
तुम मत बदलना
कि बदलती हैं स्त्रियाँ प्रेम में 
पुरुष नहीं ,
जब तुम हमें टोकते हो बांधते हो
हम उसे प्रेम मान लेते हैं
जब तुम हमारे कपड़ों को संतुलित करते हो
हम उसे भी प्रेम मान लेते हैं ,
हमें तो वो भी प्रेम ही लगता है
जब तुम हमारा किसी से बात किया जाना बाधित करते हो
या जब तुम ये कहते हो
तुम अपनी सहेली से ज्यादा सभ्य व् सुसंस्कृत हो
तुम ज्यादा परिपक्व हो
हमारे पुराने ढर्रों को भी तुम स्वाभाविक मान लेते हो
कमतर होने को सामाजिकता ,
प्रेम तो हम स्त्रियाँ उसे भी समझ लेते हैं
जब बीमारी में तुम पानी का गिलास पकडाते हो
या पूछते हो डॉक्टर के पास चलना है ?
या जब कहते हो
ठीक लग रहा हो तो ज्यादा कुछ नहीं खिचडी ही बना लो ,
हमारे जीवन पर आदतों पर आधिकारिक नियंत्रण
सामान्य है तुम्हारे लिए
कि ये तो होता ही है
हम स्त्रियाँ भी प्रेम की खुशफहमियों का जाल ओढ़े
स्वाभाविक मान लेते हैं इसे
कि ये तो होता ही है ,
पर यदि प्रेम है तो ये होना क्यों साथी
कभी सोचा है
कभी सोचा है हमारे और अपने बदलाव का अनुपात
प्रेम में
तुम्हारा मानना तर्क और हमारा बहस
तुम्हारे प्रतिबन्ध प्रेम और हमारे केवल शक ?
तुम्हारा श्रेष्ठ होना स्वाभाविक और हमारा आघात
तुम्हारा कहना मान्य और हमारा कहना जिद्द ?
साथी
मत बदलना तुम तब तक
जब तक हम स्त्रियाँ प्रेम का मापदंड नहीं बदलती
खुद को काबिल नहीं समझतीं
कि प्रेम साझे अनुपात में होता है
स्वीकार्य अस्वीकार्य का दर्शन समभाव होना चाहिये
एक होना चाहिए व्यवहार की परम्परा भी
कम या अधिक में नहीं
कि इसमें तो सिर्फ गुलामी होती है
मालिक की दास द्वारा ,
जल्द ही बदलना होगा पर
ऐसा लगता है
तुम्हें और तुम्हारे तथाकथित सखा भाव को भी साथी !!

Thursday 23 November 2017

प्रेम

पलकें हौले से कांपी थी उसकी ....नमी से आँखें भर जो आई थीं कि जो समाता नहीं है वो बिखर जाता है चाहे आंसू हो या प्रेम ....ये जरूर  है कि आंसुओं का बिखरना दिख जाता  है पर प्रेम का बिखरना बस महसूस होता है ...आंसू सामने वाले पर असर छोड़ता है पर प्रेम अन्दर ही अन्दर छीलता रहता है खुद को  .... तोड़ता रहता है ...भर देता है घुटन से ...घुटन जो जीने नहीं देती ...मरने भी तो नहीं देती ...बस उम्मीद सी पलती रहती है सीने में ..आँखों में ..किसी एक पल के सुकून की ज़मीन सी या फिर कुछ रूहानी राहत की तस्कीन सी कि जब नसों में पडी गांठें धीरे-धीरे खुलने लगेंगी और लहू बेबाकी से  ह्रदय में अठखेलियाँ कर सकेगा ...

ऐसा ही कुछ था पूजा के साथ कि वो जिन्दा तो थी पर जिन्दा नहीं थी ...कि वो शामिल तो थी जिन्दगी में पर खोयी हुयी सी ...उसके अन्दर  भी कहीं कुछ टूटा हुआ था ..गहरे ..बहुत गहरे ...कभी कभी कुछ सुर्ख सा झलक आता जो उसकी सियाहियों से तो सवालिया नज़रें तन जातीं पर फिर वैसे ही मिट भी जातीं कि उसे जो भी देखता पुरसुकून पाता ....खुशमिजाज़ पाता ........ जहन में शक के लिए कोई वजह नहीं बचती क्योंकि उसके अंतस का दुःख उसके लहू में बेशक टूटता-फूटता रहे पर उसे वो कभी ज़ाहिर नहीं करती....संभाले रखती ...सेती रहती किसी खजाने सा कि जो उसका था ...केवल उसका अपना निजी ...

प्रेम यूँ ही तो खास नहीं हुआ करता न ..... इसमे जिंदगियों को कैद करने या शासित करने का स्वाभाविक गुण होता है ....कि इसकी थरथराहट अमृत भर देती है और इसकी उदासी ....वो तो धीमे जहर की तरह जिन्दगी की मुस्कुराहटों को निगल जाती है

पूजा की जिन्दगी में भी यही मसला था कि उसे प्रेम हुआ था ...बेहद प्रेम ...गहरा प्रेम ....रूहानी प्रेम ....पर वो उसे हासिल न हो सका ...और फिर एक निश्चित उदासी का अनिश्चित दौर उस पर छा गया ...दिन भर सबके सामने ..सबके साथ वो सहज होती सरल होती ...जिंदादिल होती पर तन्हाई में उसके अन्दर का एक शख्स उसके पहलू में होता जिसे वो सांस-सांस महसूस करना चाहती ....जिसकी हरारत से वो भर जाना चाहती कि जिसके कम्पनो से वो पिघल जाना चाहती ...पर वो सिर्फ कल्पनाओं का आईना भर बनकर ठहर जाता  जिसमे अक्स तो नज़र आ सकता है पर स्पर्श नहीं होता ......और इसी स्पर्श की अनुपस्थिति उसे कुंठित करती ...करती रहती लगातार और उसके सीने का पत्थर हर बार कुछ और भारी हो जाता ...होता रहता निरंतर ..

जब वो मिला था तब भी पूरा नहीं  मिला था ...और जब वो गया तब भी पूरा नहीं जा पाया ...रह गया थोडा या शायद बहुत ....उससे भी कहीं ज्यादा कि जब वो हासिल था क्योंकि अगर प्रेम कि किस्में होती हैं तो ये एक ख़ास किस्म का प्रेम था जिसमे शब्दों की अदला-बदली उँगलियों पर गिनी जा सकती थी ...कि जिसमे पत्रों की संख्या शून्य थी  ( उस दौर में मोबाइल ,इन्टरनेट या whatsapp जैसी तकनीकी सुविधाएँ मौजूद नहीं थीं ) ...बस एक फ़ोन हुआ करता था कमबख्त जो सबकी नज़रों की जद में होता और इसी वजह से उससे बात करना मुमकिन नहीं हो पाया कभी ...वैसे हिम्मत भी  नहीं हुयी कभी ...कि आवाज़ सुन पाने की कल्पना से ही जिस्म कंपकंपाने लगता ..हलक सूख जाता और उंगलियाँ गलत नंबर पर टिक जातीं ...पर हाँ ..निगाहों से जितनी बातें की जा सकनी मुमकिन थीं वो सब हुयी थीं ...कसमे-वादे ,शिकायतें इज़हार रूठना मनाना ख़ुशी आंसू बेचैनी ख्वाहिश ....इन सबको बांटा गया था ..और इसी अधूरी थाती को बूँद बूँद पीकर उसने लहू में घोल दिया है कि जिससे उसकी हर धड़कन तपती रहे ...तडपती रहे ...कसकती रहे ..रोती  रहे ....सिसकती रहे ...कि उसकी प्रीत उसमे पलती रहे .

प्रेम यूँ भी होता है ....प्रेम यूँ ही होता है ..कि जब उसे प्रेम कहा जाता है ...कहा जा सकता है कि जिसे रूहों से बांधकर माथे पर सज़ा लिया जाता है .