Thursday 21 December 2017

कमाल

एक है अमलतास का पेड़
एक है खाली सड़क
एक खिड़की
घर से घर कि दूरी बस इतनी
कि सांस लो गर डूबकर आवाज़ पहुँच जाए ,
इन सबके बीच ही पला एक इश्क
कमाल का
जिसमे न शब्द थे ...न लिखावट ....न स्वीकार्य
फिर भी सदी के चौथाई हिस्से तक का वक्त थिर किये रहा ,
असल कमाल तो बाकी है अभी
अब शब्द भी हैं
आवाज़ भी है
स्वीकार्य भी है
नहीं है तो बस ज़ालिम इश्क नहीं है ,
गज्ज़ब न !!

रिसाइकिल

तमाम औरतों के लिए रिसाईकल की प्रक्रिया है रात
हर छत से गुप्त नदी का एक सिरा जुडा है जिससे
जैसे देह से आत्मा ,
मौसम खुद को भ्रमित पाते हैं
कि हर रात इन अदृश्य नदियों में उठने वाले ज्वार से आतंकित हैं वो
उनके द्रवित कर देने वाले चीत्कार से चकित
उलझनपूर्ण हो वे समझ नहीं पाते कि ये किस किस्म का सैलाब है
जो हरहरा कर हर रात सब कुछ भिगो देता है
और हर सुबह फिर से सब कुछ वही ....वैसा ही वापस
समझ नहीं पाते की हर रात फूलों पर
ये ढेरों नमक कहाँ से आ जाता है
जो सुबह की रौशनी के साथ ओस सा परिलक्षित होता है
कि हर रात हवा यूँ बिफरी हुयी सी क्यों घूमती है
और दिन भर उसमे फिर वही अतिरिक्त उल्लास कैसे
हर सुबह सूरज की मुस्कान इस कदर अतिरिक्त चमकीली कैसे हो जाती है
अमलतासों गुलमोहरों कचनारों और बसंत मालती
इन सब के बीच वो कड़ी क्या है जो उन्हें रात भर
कुछ ज़र्द बनाये रखती है
पर दिन में फिर वही अतिरिक्त आभा उन पर भी,
उसे नहीं पता
कि तमाम अकेली औरतें
जो संख्या में सितारों से जियादा हैं
रात भर बिस्तर के एक कोने से
छतों के एक हिस्से से
रसोई के खटर पटर से
दिन भर के कुछ लम्हों से भीगे हुए
अपने अपने आँचल के कोरों को कसकर निचोड़ती हैं
निचोड़ती रहती हैं तब तक
जब तक कि उनके सारे दुःख बह नहीं जाते
जब तक कि उनका सारा नमक गल नहीं जाता
कि जब तक वो एक बार फिर
इसी प्रक्रिया के लिए खुद को मुफीद नहीं बना लेतीं
इस तरह वो खुद को धीरे धीरे मुक्त करती हैं
धो पोंछ कर सुचिक्कन करतीं हैं
चुपचाप ख़ामोशी से
बिना किसी को जताए ,
ये सारा आलम जिस वक्त नींद के तप्त आगोश में सो रहा होता है
उस वक्त ये औरतें ही होती हैं
जो परिवार की दी हुयी पीड़ा का ज़हर उगलकर उसे खुशनुमा बनाने का जतन करती हैं
ये औरतें ही होती हैं जो असंख्य अपमानों को भी सींचकर उर्वर बना लेती हैं
उस पर मुस्कानों और खुशियों के फूल खिला देती हैं
ये हर सुबह जो आप मौसम का भीगापन महसूस करते हैं
वो दरअसल इन औरतों की रात भर की जुगत का उपसंहार होता है
उनका प्यार होता है
अपने परिवार अपने परिवेश अपनी मिटटी से ,
अगली बार अपने आस पास की ख़ूबसूरती और जिन्दादिली का कुछ श्रेय
इन औरतों को देना न भूलें
कि ये औरतें कोई भी हो सकती हैं
आपकी माँ बहन बेटी पत्नी या फिर केवल मित्र भर ही |

स्वप्न

रात देखा
वो भाई का कमरा ठीक कर रही थीं
बिखरी आलमारी में
सब कुछ तह कर खूब करीने से रख रही थी
बिस्तर की तुड़ी मुड़ी सिलवटें एक एक कर कितने जतन से मिटा रही थी 
एकदम परफेक्ट कर रही थीं सब कुछ
हमेशा की तरह बुदबुदाते हुए
बहुत लापरवाह है
पता नहीं कैसे संभालेगा खुद को
नीचे गिरी नयी नीली शर्ट पर नज़र पड़ते ही
झुंझला पडीं
ज़रा भी कदर नहीं किसी चीज की
सब कुछ फेंका रहता है
पर इस दरमियान उनकी नज़रें सूक्ष्मता से मुआयना करती रहीं
उसके बटन और काज़ का
फिर सुई धागे का डिब्बा निकाला
चश्मा आँखों पर चढ़ा नीले धागे को पिरोने लगीं
आँखें सिकोड़ बार बार धागे का सिरा सुई में डालने की कोशिश करने लगीं
फिर कुछ मायूस
उफ्फ्फ .....दिखाई भी नहीं पड़ता अब कायदे से
मुझसे हंसकर चिरौरी की
बेटा ज़रा धागा डाल दो
मै नखरे करने लगी
मटकने फुदकने लगी फिर वो थोडा कसकर बोलीं
सुना नहीं तुमने कह रही हूँ न धागा डाल दो
खिसियाई हुयी सी मुंह फुलाए आकर मुझे धागा डालना पड़ा
वो हंसीं और चूम लिया मुझे ,
अपनी उम्र भर वो यही तो करती रहीं
हमें संभालना संवारना perfect बनाने की कोशिश करते रहना
हमारे दुखों का कांधा बनना
हमारी निराशा की उम्मीद बनना
हमारी खुशियों में खिलखिलाहट हो जाना
उपलब्धियों में गर्व हो जाना
कहीं कोई चूक नहीं कोई भूल नहीं कभी भूले से भी ,
फिर ये कैसे हो गया
जो नहीं बताया उन्होंने कभी कि दुःख के पहाड़
आत्मा की घुटन भी हो सकते हैं
कभी नहीं सिखाया
कि हँसते हुए जब कभी कराह निकले तो कैसे छिपाऊं उसे
कि आंसू जब नसों में छाले सा दंश दें तब क्या करूँ
तब भी क्या करूँ जब अपनी जगह मै अपने बच्चों को खड़ा पाऊं
खुद को उनकी जगह ,
पर अब यूँ जीना भी जरूरी है
कि कतरा कतरा ये दुःख पीना भी जरूरी है
सांस लेनी जो है ,
और हाँ वो रात नहीं सपना था
और कमरा भी भाई का नहीं मेरा अपना था |

संशय

उन्हें नहीं पता
इन तमाम नदियों के बीच
उनकी जगह कहाँ है ,
तमाम नदियाँ हंसती हैं 
मुस्कुराती हैं
किल्लोल करती हैं आपस में ही
कसकर एक दुसरे की लहर में उलझी हुयी
गुंथी हुयी ,
तमाम नदियाँ फिजां में लिखती हैं सुंदर सरल कवितायेँ
फिर अपनी ही गोष्ठियों में उसे गाती हैं सुनाती हैं
हर नदी उत्फुल्ल मुक्त कंठ गान करती है
हर नदी सुनती है सराहती फिर प्रतिदान करती है
जगत में फ़ैल जाता है फिर इनका सुन्दर गान व् प्रतिदान
जगत आह्लादित है
आह ! कितनी सुंदर रचनाएँ हैं ये इश्वर की
अद्भुत अप्रतिम
दोनों बाहें पसारे करता है जगत स्वागत इनका
पुरस्कृत करता है
सम्मानित करता है
अपने भावों के बुरांश उन्हें अर्पित करता है
कुछ कचनार के सुन्दर पुष्प
कुछ रंग बिरंगे गुलाब की सुन्दर पंखुडियां
तो कुछ निर्मल निश्छल पवन दूब ही भेंट करते हैं
नदियाँ विनम्रता से दोहरी हुयी जाती हैं
फिर एक उछाल लेती हैं गर्वोक्ति की
विशिष्टता बोध की
इससे अनजान
कि कुछ धाराएँ अभी चिन्हित नहीं हुयी हैं
नहीं हो सकी हैं
पर सजग हैं चिंतातुर हैं
चिन्हित किये जाने को
सृष्टि की मोहकता में अविरल बहते जाने को
उनकी ही ओर देखती
उम्मीद की डोर सहेजती
कि वे इसे उनका कर्तव्य मानती हैं ,
फिलहाल तो
उन्हें नहीं पता
उनकी जगह कहाँ है ,
क्या वो लावारिस हैं ?

आह्वान

हे सखी सीते
धरती माँ की बेटी
अब उठो तुम सज्ज हो
कि वक्त देखो हो चला है युद्ध का ,
वेदनाएं हैं असीमित यातना चहुँओर है
चीख है पीड़ा है और पाप का बस ढेर है ,
जिस समय तुम भ्रूण हो
और कह रहा कोई अवांछित
उस समय विद्रोह करना
अड़ी रहना जन्म को
माँ का बनना हौसला और स्वाभिमान ,
जन्म पर कोई अगर स्वागत न हो
रंच भर भी तुम सखी मायूस मत होना
हर वो क्षण बीता हुआ जो तुम्हें दोयम कहे
त्रिण बना रखना ह्रदय में
एक दिन करना है तुमको प्रज्वलित शुभ अग्नि को ,
गर कहे कोई तुम्हें छूकर कि तुम हो कोमलांगी
और छलके लालसा शब्दों से उसके
उस समय विद्रोह करना
परे करके तोड़ देना स्पर्श का वो स्त्रोत ही
वीर लगना वीर दिखना ,
प्रेम भी करना अगर याचक न होना
प्रेम में प्रतिदान पाना न कि भिक्षा या दया
यदि हो ऐसा तुम उसे इनकार करना
याद रखना हे सखी सम्मान सम कुछ भी नहीं
मान जब खुद का करोगी तब ही पाने की हो तुम अधिकारिणी ,
आज मानवता है कुंठित और दमित कुचली हुयी
कि हों भले ही दुधमुंही या वृद्ध महिला
हो रहीं हैं शिकार वो
आदमी की विकृति का ढो रही हैं भार वो
हर तरफ फैला लहू है हर तरफ है बल प्रयोग
घून मिश्रित हो गया है ये समाज लग गया है इसको रोग ,
अब तुम्हें ही चेतना का ज्वार बन आना पड़ेगा
श्वेतकेतु शिष्या तुमको राह दिखलाना पड़ेगा
हर किसी में तुम समा जाओ बनो खुद अपनी कर्ता
तुम बनो विश्वास उनका जो न खुद में आस धरता
थाम लो तुम तीर और तलवार अब
जांच लो उन पापियों का सब्र अब
फिर करो संहार भी
जो न तो अपनी बहन व बेटियों के हो सके
जो न अपनी माँ का भी सम्मान किंचित कर सके
जिन्दगी भारी हो उन पर ,
हे सखी सीते
धरती माँ की बेटी
अब उठो तुम सज्ज हो
कि वक्त देखो हो चला है युद्ध का |

ग़ज़ल

अपनी सुबहों -शामों का हिसाब रक्खा करें
हजारों सवाल फिजा में हैं ज़वाब रक्खा करें
नसीहतों सहूलतों ,तक़रीरों के इस दौर में
आप भी कुछ धमक जरा रुआब रक्खा करें ,
परिंदे उड़ानों से अब कुछ मुकरने लगे हैं
उनसे कहो कि पंखों में ज़लाल रक्खा करें ,
तबीयत नासाज़ हो बेशक मगर फिर भी
तरन्नुम का कुछ तो लिहाज़ रक्खा करें ,
आइना अगरचे हो भी बेहोशोहवास तो क्या
मोहतरम "राज़" थोडा हिजाब रक्खा करें ||

डर

मुस्लिम प्रेमी की
हिंदू प्रेमिका हूँ मै
मुझे लगता है हमें मार दिया जाएगा
कि अब धर्म हमारे उसूलों में नहीं
हमारे फायदों में रहता है 
हमारे किरदार में नहीं
हमारे कायदों में रहता है ,
प्रेम होना रूहों का नहीं धर्म का मसला है अब
जीने का नहीं ताकत का असलहा है अब ,
कि जिसे खुशबुओं और कम्पनों से नहीं आँका जाता
रुद्राक्ष और खतनाओं से है जांचा जाता
कोई शीरीं न ही लैला न तो फरहाद है
वो बस गुडिया या फिर सलमा या तो जेहाद है
कि इश्क अब डर की सरहदों का कैदी है
कभी आग कभी कुल्हाड़ी कभी भीड़ की मुस्तैदी है ,
नोंच लेते हैं सरेआम वो जिस्म उनके
खींच देते हैं फाड़ देते हैं जो कपडे उनके
नंगी देह पर जो खुलकर मुस्कुराते हैं
हँसते खिलखिलाते जो ठहाके लगाते हैं
क्या वो इंसान हैं मुझको तो शक होता है
उनकी माओं पर बहनों पर दुःख होता है
सारी प्रार्थनाएं सारे अज़ान बेकार हैं अब
सारी दुआएं सारी मन्नतें बेजान है अब ,
इश्क अब दिल से नहीं दिमाग से करना होगा
उसकी जाति उसका गोत्र उसका धर्म भी देखना होगा
जो ऐसा न किये तो बेतरह पछताओगे
बेमकसद ही एक रोज़ तुम मार दिए जाओगे
सरकार और धर्म के पहरुओं से उम्मीद मत रखना
कभी भूलकर भी उनसे अपने दिल की कुछ मत कहना
पहले वो अपनी राजनीती अपने ऊंट की करवट देखेंगे
फिर अपने लोगों से कहकर फसादात के ज़हर छीटेंगे
लम्बी लम्बी तकरीरें लम्बे लम्बे शहादत के भाषण होंगे
काहिलों की महफ़िल कमीनगी के नजारत होंगे
मसला तुम्हारा यूँ ही बेसहारा रह जाएगा
बिना किसी न्याय के अन्याय सा हो जाएगा ,
कि ये दौर मुहब्बतों का नहीं नफरतों का है
इस दौर में बचकर रहना होगा
ज़ज्बात कितना भी मचलें सीने में
होंठ सिलकर सहना होगा ,
पर जिन्हें हो गयी है उनका क्या
अंधियारी रात के किसी कोने में
डरते सहमते आँखों में आंसू भरे
गिडगिडाती सी
वो अपनी सहेलियों के सीने से लग कह रही हैं
कि मुस्लिम प्रेमी की
हिन्दू प्रेमिका हूँ मै
मुझे लगता है हमें मार दिया जाएगा |

गुस्सा

समझ नहीं पाई
ये गुस्सा तुम्हें ही क्यों आता है
मुझे क्यों नहीं आता ,
घनघोर किस्म के गुस्से में भी 
बस मुट्ठियाँ ही कसीं
कहर कभी नहीं हुयीं मेरी आँखें
कभी फेंक नहीं पायी मै खाने की थाली
कभी ग्लास या कप नहीं तोडा
कभी नहीं फेंकी तड़ाक से कोई भी घडी
या मोबाइल
कभी दरवाज़ा नहीं पटका
गालियाँ भी नहीं दीं
पता नहीं क्यों ,
शायद मेरा गुस्सा संस्कारी है
आपे से बाहर नहीं जाता
बस अन्दर से खुद को कडा कर देता है
जैसे कडा कर देता है ज्वालामुखी का असीमित ज्वार
काली सुन्दर चट्टानों को
कुछ रुखा कुछ कड़वा भी
मुझे चुप कर देता है
और तुमसे मेरी आत्मा को कुछ और दूर ,
ये ख़ामोशी मुझे डराती है
इसलिए नहीं
कि मै क्रोध संयमित करने में भी अग्नि का इस्तेमाल करती हूँ
इसलिए
कि एक दिन कहीं यही अग्नि तुम्हारे लिए अग्निकुंड न साबित हो
साथी |

यादें बचपन की

ओसारे की खटिया
पुरानी रजाई , रजाई में तुम
तुम्हारी ही छाती में दुबकी हुयी सी चिपटी सी मै
जैसे बिल्ली हो भूरी ,
गले जब भी देह ठंडक से सुर सुर
तुम्हारा वो ताप मद्धिम सा लगता ओढा देता फिर
मुझे नींद अपनी
बाहों का तकिया हथेली की नरमी
माथे पर चुम्बन सज़ा देतीं तुम
कि जैसे मै कोई थी राजकुमारी
ऐसी वो लज्ज़त थी गाँवों के ठंडक की
ऐसी ठनक थी कि जब तुम थीं सच की ,
कहाँ हो तुम अब
कहो न
कि गाँवों में जाना मटर कच्ची खाना
लाइ का लड्डू
गरम गुड का चखना छोड़ दिया है
पुआलों में छुपना कच्ची नींद सोना
गरम दूध पीना
नमक लहसुन वाला अमरूदों के संग
खाना खिलाना भी छोड़ दिया है
कि छोड़ दिया है गरम गरम चावल में गड्ढे बनाना
चटकारी सब्जी फिर उसमे मिलाना
फूंक फूंक खाना ,
नहीं करता दिल कि बोरसी के आगे हथेली फैलाऊं
गाल छुआऊँ
मुलायम सी दहक से किलक किलक जाऊं
नारंगी चमक होठों पर सजाऊं
ये भी नहीं कि भरी दोपहरी सबको छकाऊँ
अदरक वाली चाय पियूं पिलाऊं ,
नहीं करता दिल ये करने को अब कुछ
मेड़ों के रस्ते भटकने को अब कुछ
कि अब तो ये ठंडक भी वैसी नहीं है
पीली सी धूप शैतानी करती रगों में बहकती
जैसी नहीं है
जैसी थी पहले
कि जब साथ तुम थीं ,
तुम अब नहीं हो तो गाँवों में जाना भी छूट गया है
शायद वो रिश्ता इनारे के जैसा अब टूट गया है ||

Saturday 9 December 2017

मुमकिन

मुमकिन है
कुछ सालों बाद तुम समझ पाओ
कि रेशम भी छीजता है
नदी भी टूटती है
और बदरंग होती है हल्दी की गाँठ भी ,
अगरबत्तियां झड जाती हैं
कुरेद कर लिखे नामो में सीलन भर जाती है
काली हो जाती हैं सुंदर आँखें
उँगलियाँ सख्त हो जाती हैं
मुमकिन है
तुम कहो उसे वक्त की बदमिजाजी
कहो चश्मे को बदला हुआ
या समझ की तस्वीर को धुंधला कहो ,
ये सब कहा जाना बेकार है मेरे हमनफ़ज़
कि टूटने के बाद आइना खुद का नहीं होता
कि टूटने के बाद बेशक चेहरे भी कई हो जाते हैं
पर भूलना मत कि वो तकसीम भी हो जाते हैं ,
भुलावों पर प्रेम नहीं टिकता
तुम चाहो तब पर भी नहीं |

यादें

ओसारे की खटिया
पुरानी रजाई , रजाई में तुम
तुम्हारी ही छाती में दुबकी हुयी सी चिपटी सी मै
जैसे बिल्ली हो भूरी ,
गले जब भी देह ठंडक से सुर सुर
तुम्हारा वो ताप मद्धिम सा लगता ओढा देता फिर
मुझे नींद अपनी
बाहों का तकिया हथेली की नरमी
माथे पर चुम्बन सज़ा देतीं तुम
कि जैसे मै कोई थी राजकुमारी
ऐसी वो लज्ज़त थी गाँवों के ठंडक की
ऐसी ठनक थी कि जब तुम थीं सच की ,
कहाँ हो तुम अब
कहो न
कि गाँवों में जाना मटर कच्ची खाना
लाइ का लड्डू
गरम गुड का चखना छोड़ दिया है
पुआलों में छुपना कच्ची नींद सोना
गरम दूध पीना
नमक लहसुन वाला अमरूदों के संग
खाना खिलाना भी छोड़ दिया है
कि छोड़ दिया है गरम गरम चावल में गड्ढे बनाना
चटकारी सब्जी फिर उसमे मिलाना
फूंक फूंक खाना ,
नहीं करता दिल कि बोरसी के आगे हथेली फैलाऊं
गाल छुआऊँ
मुलायम सी दहक से किलक किलक जाऊं
नारंगी चमक होठों पर सजाऊं
ये भी नहीं कि भरी दोपहरी सबको छकाऊँ
अदरक वाली चाय पियूं पिलाऊं ,
नहीं करता दिल ये करने को अब कुछ
मेड़ों के रस्ते भटकने को अब कुछ
कि अब तो ये ठंडक भी वैसी नहीं है
पीली सी धूप शैतानी करती रगों में बहकती
जैसी नहीं है
जैसी थी पहले
कि जब साथ तुम थीं ,
तुम अब नहीं हो तो गाँवों में जाना भी छूट गया है
शायद वो रिश्ता इनारे के जैसा अब टूट गया है ||

प्रश्न

समझ नहीं पाई
ये गुस्सा तुम्हें ही क्यों आता है
मुझे क्यों नहीं आता ,
घनघोर किस्म के गुस्से में भी 
बस मुट्ठियाँ ही कसीं
कहर कभी नहीं हुयीं मेरी आँखें
कभी फेंक नहीं पायी मै खाने की थाली
कभी ग्लास या कप नहीं तोडा
कभी नहीं फेंकी तड़ाक से कोई भी घडी
या मोबाइल
कभी दरवाज़ा नहीं पटका
गालियाँ भी नहीं दीं
पता नहीं क्यों ,
शायद मेरा गुस्सा संस्कारी है
आपे से बाहर नहीं जाता
बस अन्दर से खुद को कडा कर देता है
जैसे कडा कर देता है ज्वालामुखी का असीमित ज्वार
काली सुन्दर चट्टानों को
कुछ रुखा कुछ कड़वा भी
मुझे चुप कर देता है
और तुमसे मेरी आत्मा को कुछ और दूर ,
ये ख़ामोशी मुझे डराती है
इसलिए नहीं
कि मै क्रोध संयमित करने में भी अग्नि का इस्तेमाल करती हूँ
इसलिए
कि एक दिन कहीं यही अग्नि तुम्हारे लिए अग्निकुंड न साबित हो
साथी |

डर

मुस्लिम प्रेमी की
हिंदू प्रेमिका हूँ मै
मुझे लगता है हमें मार दिया जाएगा
कि अब धर्म हमारे उसूलों में नहीं
हमारे फायदों में रहता है 
हमारे किरदार में नहीं
हमारे कायदों में रहता है ,
प्रेम होना रूहों का नहीं धर्म का मसला है अब
जीने का नहीं ताकत का असलहा है अब ,
कि जिसे खुशबुओं और कम्पनों से नहीं आँका जाता
रुद्राक्ष और खतनाओं से है जांचा जाता
कोई शीरीं न ही लैला न तो फरहाद है
वो बस गुडिया या फिर सलमा या तो जेहाद है
कि इश्क अब डर की सरहदों का कैदी है
कभी आग कभी कुल्हाड़ी कभी भीड़ की मुस्तैदी है ,
नोंच लेते हैं सरेआम वो जिस्म उनके
खींच देते हैं फाड़ देते हैं जो कपडे उनके
नंगी देह पर जो खुलकर मुस्कुराते हैं
हँसते खिलखिलाते जो ठहाके लगाते हैं
क्या वो इंसान हैं मुझको तो शक होता है
उनकी माओं पर बहनों पर दुःख होता है
सारी प्रार्थनाएं सारे अज़ान बेकार हैं अब
सारी दुआएं सारी मन्नतें बेजान है अब ,
इश्क अब दिल से नहीं दिमाग से करना होगा
उसकी जाति उसका गोत्र उसका धर्म भी देखना होगा
जो ऐसा न किये तो बेतरह पछताओगे
बेमकसद ही एक रोज़ तुम मार दिए जाओगे
सरकार और धर्म के पहरुओं से उम्मीद मत रखना
कभी भूलकर भी उनसे अपने दिल की कुछ मत कहना
पहले वो अपनी राजनीती अपने ऊंट की करवट देखेंगे
फिर अपने लोगों से कहकर फसादात के ज़हर छीटेंगे
लम्बी लम्बी तकरीरें लम्बे लम्बे शहादत के भाषण होंगे
काहिलों की महफ़िल कमीनगी के नजारत होंगे
मसला तुम्हारा यूँ ही बेसहारा रह जाएगा
बिना किसी न्याय के अन्याय सा हो जाएगा ,
कि ये दौर मुहब्बतों का नहीं नफरतों का है
इस दौर में बचकर रहना होगा
ज़ज्बात कितना भी मचलें सीने में
होंठ सिलकर सहना होगा ,
पर जिन्हें हो गयी है उनका क्या
अंधियारी रात के किसी कोने में
डरते सहमते आँखों में आंसू भरे
गिडगिडाती सी
वो अपनी सहेलियों के सीने से लग कह रही हैं
कि मुस्लिम प्रेमी की
हिन्दू प्रेमिका हूँ मै
मुझे लगता है हमें मार दिया जाएगा |