Sunday 28 January 2018

चिड़िया

बहुत सर्दी थी कल रात
चिड़िया ठिठुरन से जम गयी
टटोलती रही कोई मकसूम तपिश ,एक मजबूत दामन
जो भर ले उसे छाती में
अपने देह की गर्मी से उसे महफूज़ कर दे 
पर ऐसा कुछ नहीं हुआ ,
रात भर गीले सपने डराते रहे
बहकाते रहे
रात भर बिछौने का कोना थामे कटकटाती रही
रात भर लगता रहा कि फकत आसमान छत है उसकी
कहीं दूर बज रहा था वादियाँ मेरा दामन रास्ते मेरी बाहें
और उसे लगा की जिस्म लकडिया जाने तक ये गलन उसे नहीं छोड़ेगी
डर से उसने आँखें मूँद लीं
पर डर वो तो पुतलियों के बीच भी था
खो जाने का डर
मर जाने का डर ,
किसीने कहा था जब डर लगे गायत्री मन्त्र पढना
वो बुदबुदाने लगी ॐ भूर्भुवः स्वः
एक बार फिर ॐ भूर्भुवः स्वः
पर उसके आगे क्या था याद नहीं आ रहा
गलन रक्तप्रवाह पर हावी है शायद
गलन याददाश्त भी मिटा देती है शायद
मन्त्र अधूरा रहा डर बढ़ता रहा
सपनो की गलन हड्डी तक पहुँच गयी
देह चरमराने लगी
मुंह से थोड़ी थोड़ी भाप भी निकली
उसे लगा वो बरफ से भर गयी है ,
नीम बेहोशी में किसी का हाथ थामे वो मस्जिद जा रही है
खुश ,चहकती
अब हलकी हलकी नींद भी आ रही है
कोई उसे दुआ माँगना सीखा रहा है
नन्हीं नन्हीं हथेलियों में प्यार बरसा रहा है
फ्रॉक की जेबें मीठे बेरों से भर गयी हैं
अब गलन कुछ कम है ,
माथे पर एक बोसे की तपिश चमकी
माथा भर गया
एक बोसा मानो लिहाफ बन गया
तस्ल्लीकुं नींद का असबाब बन गया
अब नींद गहराने लगी चिड़िया मुस्कुराने लगी ,
और रात फिर एक चिड़िया इस तरह जिंदा बच सकी |

मन

रात में चुपके से भिगो देता है कोई
मन,
गिल्ली डंडे के खेल में माहिर थी
पर उस रोज पिट्ठू खेलते खेलते नज़र खो गयी 
अंतिम टुकड़ा मुट्ठी से नीचे गिर गया
नज़र खोयी हुयी है अब तक
सपनो में उस नज़र से पूरी गृहस्थी सजाई
सुन्दर सुन्दर रंगोली ,फूलों के गमले ,महावर ,नेल पोलिश तक
एक रोज बरम बाबा की मनौती भी मांगी ,
फिर जाना पड़ा दूसरे शहर
वहां भी गृहस्थी सजाई
सुन्दर सुन्दर रंगोली ,महावर, नेल पोलिश
इस बार गमले में कांटे वाले फूल उगाये
जब जब फूल खिला ,नेल पोलिश लगी ,महावर रचा
नज़र में रेत आ पडी
उसी पुराने शहर की रेत
सुना था पिट्ठू का वो आख़िरी टुकड़ा किसी तुलसी चौरे का तल है
बरम बाबा विचरते हैं शायद आस पास
असीस का जल लेकर |

खोटते चना

खोटते खोटते चना
खोट लेती हूँ मन का एक हिस्सा भी
लहसुन मिर्चे वाला नमक मिला
एक गस्सा जीभ पर धरते ही गज़ब का चटकारा लगता है
गज़ब लगता है फुनगी का बिछोह मिटटी से 
तर कर देता है कौले इश्क में टूटन के पहले सूखेपन को
उन क्षणों को भी
कि जब रात रात भर रजाई का एक कोना भिगोया
अपने ही चेहरे को परत दर परत नमक किया
हर कॉपी के पिछले पन्ने पर वो नाम लिख लिख मरी
बार बार हथेलियों पर बेंत की मार सही
अकेलेपन को ओढ़ खुद को ख़ाक किया
हर खुशी के उजाले को रात किया
वो सब तिर आया
मन के जल में तन के जंगल में ,
अन्दर से सांकल लगा जार जार रोई फिर बेआवाज़
दीवारें खुरचीं
ज़मीन लोट पोट की
अँधेरे का इंतज़ार किये बिना ही बत्ती बुझा
ताक पर सहेजी ढिबरी जलाई
उसकी गंध उसके धुएं को भरती रही छाती में
सुख का दुःख और दुःख का सुख करती रही छाती में
अज़ब घालमेल कि तब थोड़ी आग भभकी और बह गयी पोर पोर से ,
सखियों संग अब जांता पीसने की बारी
खाली गेहूं नहीं उसकी बालियाँ भी पीसती हूँ
खुद को उससे एकमेक कर अलट पलट कर देती हूँ
अपने नहीं उसके होने को कोसती हूँ
अपना भुला उसका दुःख पोसती हूँ ,
कि ये दुःख ही है जो अल्हड इश्क का पहला जाया होता है ||

मकर संक्रांति

मकर संक्रांति की पतंगें
अखबार और लेई से बनी पतंगें
सींक के परफेक्ट घुमाव पर चिपकी पतंगें
हवा का रुख भांप लम्बी सी पूँछ लिए लहराती पतंगें
लिख दिया करती थीं प्रेम का आख्यान आसमान में 
प्रेम जहां अंगडाइयां लेता तिल के लड्डू हथेलियों में सरकाता
गुड पट्टी पर नाखूनों की खरोंच से एक नाम लिखता
और जहाँ एक का लिखा नाम दुसरे के लिखे नाम को चूम लेता
वही होता कि जब बिना कुछ कहे बिना सुने वो हो जाता
और कहीं झुण्ड में बैठे ठहाका लगाकर बड़े कहते
खिचडी के चार यार
घी पापड़ दही अचार ,
इसी वक्त से शुरू होती थी डायरियों की खोज बीन
लिखी जातीं थीं अनगढ़ कच्ची कवितायें और नए नवेले प्रेम का पूरा खाका
विरहन आंसुओं और मीठे मीठे सिहरन वाले दर्द की पूरी तफसील
उन्हें आलमारी में छुपा छुपाकर रखने का सिलसिला
और प्रेम के आदर्शवाद का गहन गंभीर भाव ,
और फिर एक रोज कुछ यूँ होता
कि रफ़ी के गानों की जगह मुकेश के गाने बजने लगते
कभी ये भी सुनाई पड़ता
जब दिल ही टूट गया या फिर मेरी किस्मत में तू नहीं शायद
और तब डायरी में लिखे अलफ़ाज़ गमजदा व् परिपक्व होने लगते
कवितायेँ अब पक चुकी सी होतीं
व्यक्तित्व संजीदा होता
चेहरे भी कुछ गाम्भीर्य लिए से दिखते ,
पर ये कमबख्त मकर संक्रांति की पतंगे
एक बार फिर आसमान में लहरातीं
फिर तिल के लड्डू और गुड पट्टियाँ खाई जातीं
झुण्ड में बैठे बड़े भी ठहाका लगाते और कहते कि खिचडी के चार यार
घी पापड़ दही अचार
पर जो नहीं होता वो ये कि इस बार उन पतंगों पर कोई नाम नहीं होता
दिल में कच्चे इश्क का कोई तूफ़ान नहीं होता
नहीं होतीं गुड पट्टियों पर तराशे हुए नाखूनों की कोई खुरचन
न ही चेहरे पर प्रेम का एक किस्म का मादक रुआब ,
डायरियों में अब लिखे जा रहे होते अनगढ़ से कुछ विरह गीत
रखे होते फटी पतंग के कुछ पुराने छोटे छोटे टुकड़े
खुशबूदार इतर से गमकती एक चिट्ठी
किसी और के बगीचे से तोडी गयी नन्हें गुलाब की एक कटिंग
अतिउत्साह में खून से लिखा किसी का नाम
और उस पर बिखरी ढेरों आंसुओं की बूँदें ,
मकर संक्रांतियों के पतंग चेतावनी हैं
प्रेम के मीठेपन
और दर्द के खारेपन की ,
ओ प्पा |

दुःख

दुःख
इस संसार का सबसे जगमग सितारा है
रात का सबसे भरोसेमंद साथी
दुःख अकेला नहीं छोड़ता
सर्वाधिक सुख में भी 
उसकी एक कनी आँखों में उतर ही आती है
उसका एक बगूला छाती को भर ही देता है ,
दुःख
आत्मा की ज़मीनों पर बोई जाने वाली सबसे उपजाऊ फसल है
लम्हों के हलों की जुताई की पीड़ात्मक जरूरत
दुःख सर्वांगी विकास का पोषक है
दुःख प्रेम का द्योतक है
ईश्वर रच देता है यहाँ खुद को
प्रकृति झोंक देती है यहाँ खुद को
आसान नहीं दुखों का प्रतिनिधि होना ,
दुःख
मौसमों की सबसे बड़ी शिकायत है
उनका सबसे बड़ा उलाहना
कि इस एक वक्त भीतर का एकांत बदल जाता है
दहल जाता है
हर मौसम जाते हुए अपना एक अंश समर्पित कर देता है
आत्मा कभी ठण्ड ,कभी गर्मी तो कभी बारिश हो जाती है बेहद
अनगिनत परकोटो के भीतर
सबका अलग अलग जुड़ाव ,सार संभाल भी
कि दुःख सबसे ज्यादा सहेजे जाने वाला भाव है
कि दुःख आत्मा का घाव है
कि दुःख परछाई है किसी की
कि दुःख काई है नदी की ,
दुखों का होना जरूरी है
कि नहीं अगर
तो साँसों का सिलसिला चलेगा कैसे
ईश्वर का होना बचेगा कैसे |

दो प्रेमी

पर्वत के पीछे चम्बेला गाँव
गाँव में दो प्रेमी रहते हैं
बचपन से लगता कि ये गाना सिर्फ हमारे लिए है
गुदगुदी होती पेट में कि हाय किसी और को कैसे पता 
पर फिर लगता उंह
सपने में किसी रोज़ किसी फ़रिश्ते ने सुना होगा
और लिख दिया होगा
तब मुझे नहीं पता था कि फ़रिश्ते कौन होते हैं
क्यों होते हैं बस होते हैं इतना पता था
ये भी सुना था कि फ़रिश्ते अच्छा अच्छा ही करते हैं
मन की करते हैं
तब नहीं पता था कि उस फ़रिश्ते का नाम आनंद बख्शी था
और ये गीत मेरे पैदा होने के चार साल में ही लिख दिया गया था
तो क्या फ़रिश्ते ज्योतिषी भी होते हैं
हमें तो लगता इन दूर तक फैली कैमूर घाटियों के पीछे ही है वो गाँव
वो मधुर राग सा
वो पहली आग सा
पहली छुअन सा
बांसुरी की धुन सा एक अकेला गाँव
दुकेला इस तरफ था
झरिया के पास चट्टानों पर बैठे
कभी चाय कभी अमरुद और कुछ न हो तो नमक खटाई और लाल मिर्च चुभलाते
कभी लम्बे से झरने के नीचे तक गिरते शोर के साथ अपलक टकटकी लगाये देखते हम उस सुन्दर देवनुमा पहाडी को
सोचते जरूर कोई होगा वहां पर अकेला
दुकेले तो हम थे
मन ही मन न जाने कितनी बार जोर से आवाज़ लगाई है उस अनजान प्रेमी के लिए
कितनी बार चेहरे के गुलाबी होने, होठों के सूख जाने और हाथ पैर के ठन्डे होने तक पुकारते रहे हैं उसका नाम
जो हमें नहीं पता था
जो अनजान था
पर जो प्रेमी था ,
प्रेम के सातों सुर उस पहाडी के पीछे थे
जहाँ बहती थी सोन नदी
जहाँ के एक घर में रहती थी एक मोहाविष्ट लडकी
जहाँ के जंगल मोहक थे
जहाँ पर लिल्ली घोड़ों के झुण्ड के झुण्ड नज़र आते थे
और जहाँ नज़र आता था बहुतायत से लाल मखमली कीड़ा बीरबहूटी
अपनी हथेलियों पर उसे धर उसके नन्हें नन्हें कदमो कि गति से प्रेम की पहली सिहरन महसूस करते हम
छोटी छोटी चट्टानों. पर , दरारों में उग आये पीपल के छोटे पौधों में भी प्रेम महसूस करते हम
कोहरे की अभेद्य दीवार के पीछे मन में टिमटिमाते दिए की रौशनी में भी प्रेम महसूस करते हम ,
हम जो कि एक छोटी जगह की पैदाइश थे
कि हमारे सपने भी हमारी जिन्दगी की आज़माइश थे
कि हम तुरपनों में सीख लेते थे खुद को छुपाना
कि हम रसोई से सीखते थे मिलना मिलाना
कि हमारी कापियों के पिछले पन्ने हमारी रचनात्मकता थे
कि वहां बार बार आड़ी तिरछी रेखाओं में छुपे अक्षर हमारी सजगता थे
हम प्रेम छुपकर करते थे
हम दुःख खुलकर जीते थे ,
आज भी बजता है ये गीत रेडियो पर
अब भी लगता है कि ये हमारे लिए है
पर्वत के पीछे चम्बेला गाँव
गाँव में दो प्रेमी रहते हैं
पर अब हम प्रेम को साधना जानते हैं
जानते हैं कि वहां सच में दो प्रेमी रहते हैं
साथ साथ ,
तमाम सीखों समझदारियो को धता बताकर हम प्रेम अब भी जीते हैं
बूँद बूँद दर्द हर रोज़ पीते हैं
हर एकांत में हम उन्हें शोभा गुर्टू बना लेते हैं
याद पिया की आये
या फिर जगजीत सिंह
चाँद के साथ कई दर्द पुराने निकले
कभी कभी कुमार विश्वास भी
कि फिर मेरी याद आ रही होगी
फिर वो दीपक बुझा रही होगी
और इस तरह हम तकियों को छाती में भींचे नींद का बहाना करते करते एक और रात गुजार देते हैं
प्रेम को कुछ और सहेज हम थोडा सा सो पाते हैं |

Tuesday 16 January 2018

कविता

१-मैं धूप के पन्नों पर इक नज्म लिखना चाहती हूँ
नज्म वो
कि जिसमें तपिश के तीव्र पीङादायी झोंकों के
सागर हों 
विकलताओं की वेदना का खारापन हो
और जो संवर सके शैवालों सीपियों व रंगीन पत्थरों के
टूटे आँसुओं से,
नज्म वो भी
जिसमें गूंजता हो जंगल का सौम्य हाहाकार
कि जिसमें तैरती हों ढेरों मछलियां बिलबिलाई सी
और जिसमें हवाओं पर जलकुंभियों का भीषण प्रतिबंध हो
और हो ढेरों कण उदासियों के छितराये हुए,
इस नज्म को ढालकर सुरों में इकतारे पर रच दूँगी
कस दूँगी
फिर सौंप दूँगी उस एक अदभुत नायिका को
जो जीवंत कर सके इसकी आत्मा नाट्य गृहों के मंच पर
प्रस्तुत कर सके इसे अदम्य यातना के सफल मनोहारी चित्र सा
कि जिसे उकेरा जा सके वहां की खाली सूनी उपेक्षित दीवारों पर
या फिर दर्शक दीर्घा में बैठे अनगिनत कसमसाते हृदयों पर
युगों -युगों तक के लिए।।


2-

कवितायेँ

१-प्रेम यूँ 
कि जैसे बांसुरी पर होंठ पहले 
यूँ भी कुछ 
जैसे कि पहली आंच कोई 
मन जलाये 
हो कि जैसे कोई स्वस्तिक लाल रंग में
और खङे हों
हम वहां सर को झुकाये
आँख मूँदे।।

2-
कल नींद की नीली रौशनी में इक ख्वाब लिखा 
करवटों ने ढेरों रंग भरे
और इंद्रधनुष सा कर दिया उसे,
आधी बारिश और आधे उमस के बीच 
वो कुछ नमक हो उठा
जीभ पर जिसका स्वाद छालों सा लगा,
नीलेपन, इंद्रधनुष और उमस से भरे नमक ने
लटपटाई बारिश से भीगी रात को गर्म
बेहद गर्म और सुंदर कर दिया
ज्यों घी से चुपङी राख
या फिर देह का मन,
आज की सुबह थोड़ी जख्मी
पर मीठी व खुशगवार थी
हर रोज की तरह।।


३-रात चाँद संग झूले पर थी बादल के,
तेज हवा सर - सर बहती थी
कानों में ख्वाहिश कहती थी
जब तक धङकन छम से थमकर ठहर न गयी,
बेसुध होकर आसमान ने तान लगाई
लीन हुए मंदिर चौबारे
कांपे सारे ताल -तलैया
बहक उठा फिर मन भी जब तक सहर न हुई,
जोगी बैठा देर तलक मनकों को गुनता
कुछ -कुछ सुनता
नीम तले की भर गहराई
जब भी समाई सीने में कुछ लहर सी हुई,
रात चाँद संग झूले पर थी बादल के मै
निर्मल,निश्छल काँधे पर गुनगुनापन लिए।।


४-रात चाँद संग झूले पर थी बादल के,
तेज हवा सर - सर बहती थी
कानों में ख्वाहिश कहती थी
जब तक धङकन छम से थमकर ठहर न गयी,
बेसुध होकर आसमान ने तान लगाई
लीन हुए मंदिर चौबारे
कांपे सारे ताल -तलैया
बहक उठा फिर मन भी जब तक सहर न हुई,
जोगी बैठा देर तलक मनकों को गुनता
कुछ -कुछ सुनता
नीम तले की भर गहराई
जब भी समाई सीने में कुछ लहर सी हुई,
रात चाँद संग झूले पर थी बादल के मै
निर्मल,निश्छल काँधे पर गुनगुनापन लिए।।

कवितायेँ

१-बचपने का सौंधापन लौट आया 
गुच्छेवाले ढेरों फूलों की रंगत के साथ
मकोय का अद्भुत स्वाद लिए
मुट्ठी में भर लेने पर
रच-बस जाती थी जिसकी अजब सी कडवी मनमोहक खुशबू 
समूची हथेली में ,
भुट्टे के इस मादक मौसम में अंगीठियां शबाब पर हैं
दानों का तडकना बेचैनियों की इन्तेहाँ है
जिद्द का जूनून भी
और उसकी महक मानो मासूम सी
बस ताज़ी-ताज़ी फूटी यौवन गंध ,
इस बार मिट्टी में दरारें नहीं पड़ीं
बस सुन्दर फूल खिले पसरे आलस से भरे
नीले बैंगनी नारंगी जामुनी और न जाने कितने रंगों को साधे
दहेलिया लिली गुलाब और हाँ ज़ीनिया को भी मोहपाश में बांधे
नन्हें किलकते होठों की हंसी से ,
इस बार तितलियाँ लुभा रही हैं ललचा रही हैं
इन्द्रधनुषी छटा बिखरा रही हैं
पीछे भागने पकड़ने और उनके पंखों को सहलाने
सिहरने का गज़ब कौतुक जगा रही हैं
फिर से बच्चा बना रही हैं ,
कभी-कभी कुछ यादें कुछ लम्हे कोई हंसी एक आवाज़
बहुत होती है
मिचमिचाई आँखों में रेशमी चमक भरने को
गहराती झुर्रियों में खुशबूदार दमक भरने को ,
बचपन सलीके का भ्रम है
समझदारी में कुछ कम है
पर मासूमियत की झिल्ली में मुस्कुराता
शरारती क्रंदन है ,
आह बचपन
आहा बचपन !!
2-मुट्ठी भर सहमतियों का संबल लिए
समय लिखता रहा विद्रोह
चुनरिया सतह पर
धुँआ उठता रहा चीखते रहे लोग
बर्दाश्त फिर भी चुप रहा ,
दुस्साहसी समय ने इस बार लिखी मृत्यु
नन्हें पैरों के कोमल तलवों पर
सहमतियाँ क्रुद्ध होगयीं
विरुद्ध हो गयीं
बर्दाश्त मुखर हो उठा ,
बारिशें इस बार सुनहरी हैं
टिकी रहती हैं दूब के मुहाने पर
पूरे दिन तक
सलज्ज ,
,
सूरज बच्चे की हंसी सा किलक रहा है
लगातार इस आस में
कि कभी तो
नन्हें पैर तब्दील होंगे
फलक पर हौसलों का परचम होकर !!

३-भूख
आरक्षित नहीं होती
रक्षित भी नहीं
धार्मिक या नास्तिक भी नहीं
जातिसूचक या उम्र सूचक भी नहीं,
बस पेट के खालीपन की खुजली
जो दिमाग तक पहुंच आगाह करती है
कि वक्त हो चला
मिल जाये तो ठीक
वरना
उठता है तल्ख मरोड़ फिर जलजला
और ज्वाला की तीव्रता
जो एकदम भक्क से दिमाग में पैठ जाती है
नियंत्रित करती है सोच को
उसकी दिशा को,
फिर अनजाने ही कोई सभ्य
कभी सुसंस्कृत भी
मासूम सा इंसां
जो नहीं जानता
पेट पर गीला कपड़ा बांधने की कला
या गीली मिट्टी का चमत्कार
बन जाता है चोर
अनायास ही,
तथाकथित संपन्न व अधिकृत भीङ के बीच
आधिकारिक नामकरण सहित
चोर.... रोटी चोर।।

४-मन की मत सुन 
मन झूठा है,
जिद्द है पक्की
जिद्द है सच्ची 
जिद्द किससे पर,
वो जो लम्हा बीत गया
या
वो क्षण फिर जो आना है,
टीस प्रबल है
पीर दोगुनी,
दोनों चुप पर
अपने -अपने परकोटों में,
प्रेम है यूँ भी
साथी मेरे।।

कवितायेँ ग़ज़ल

१---कभी साथ चल मेरेमगरकभी खुद को तू आजाद कर 
ये मोहब्बतों की जो रस्म है इसे यूं ही खानाखराब कर,
तेरा साथ मुझको अजीज है तेरे साथ ही तो नसीब है
इन चक्करों में पङ मगर न खुद को तू बरबाद कर,
वो दुआ सरीखी शाम थी जब साथ तेरा सलाम था
इन दायरों से हो अलग अब खुद को तू आबाद कर,
ये फिरंगियों सी जिंदगी न जाने कब जाये गुजर
इसे ताब में मत ले कभी इसको फकत बेजार कर,
जो तू गुनगुना तो यूँ लगे कि है मुकम्मिल सी गजल
बस चंद लफ्जों में मत उलझ कि "राज" तू अशआर कर।।

2-रिवायत आम थी ये भी यहाँ 
परदानशीनों में,
किया करती थीं वो भी इश्क
पर चिलमन के सीनो में,
गुजरी जिंदगी उनकी यूँ जैसे
साथ दुश्मन का,
न जी पाईं न मर पाईं मुहब्बत की
जमीनों में।।
खुदा कैसा था इनका?????
३-अकेली रात के किस्से
टूटी बात के हिस्से
बङे गमगीन होते हैं
ये रोते हैं,
ये रोते हैं बिना आंसू
बिखरते हैं बिना आँसू
ये जब महरूम होते हैं,
ये जब महरूम होते हैं
बङे मासूम होते हैं
इनकी बात तीजी है,
इनकी बात तीजी है
सहेली कोई दूजी है
जो साझी हो नहीं पाई,
जो साझी हो नहीं पायी
वो पूरी हो नहीं पायी
अधूरी अब भी लगती है,
अधूरी अब भी लगती है
सिसकती है तङपती है
अकेली रात में अक्सर,
अकेली रात में अक्सर
हैं किस्से दूर तक गिरते
टूटी बात के हिस्से
बदल जाते हैं चेहरों में
जिन्हें हम चूम लेते हैं
लगा लेते हैं माथे से
दुआओं सा।।

४-रात चखी कल 
घोल के शक्कर यादों की
मीठी थी
फीकी भी कुछ -कुछ
नमक भी था कुछ जरा सा 
उसमें रोने का,
रात चखी कल
बटलोई में उबली थी जो
पहरों तक
कंडे का सोंधापन जिसमें
सीझ गया था
भीज गया था,
रात चखी कल
तारा -तारा बरसी थी जो
आँगन में
ताल-तलैया सब थे उसके
रंग रंगे
एक छूटकर अटक गया था
बांस के ऊपर दाने सा,
वैसे ही जैसे तुम
अटके हो अब तक मुझमे
तारा बनकर
शक्कर बनकर
बटलोई की उबल रही यादों में
सोंधापन बनकर,
टीस तो है पर रस भी है
कि जितना पी लूँ प्यास है बढती
जितना जी लूँ आस है बढ़ती
अटके को पूरा पाने की
फिर से जिंदा हो पाने की
साथी मेरे।।

कवितायेँ ग़ज़ल

१-वक्त
सहन में रखे सिल सा
खिसकता ही नहीं
सालों,
पिसता रहता है दर्द
मेहीं
कुछ और मेहीं
कि गटक सकें
एकबारगी
न अटके कोई पल
या पल का टुकड़ा,
वक्त
सहन में रखे सिल सा
मेरे सीने पर
खिसकता ही नहीं
सालों तक,
कभी यूँ
कि मानो कल की बात हो।।


2-उधार ली गईं रात
पंखे के आस पास
नज्म कोई लिखती है
सियाहियां छिङककर 
रंगोली रचती है
कमरे में बूंद बूंद
इत्र सी महकती है,
रोओ तो बिस्तर में
देर तक किलकती है,
उधार ली गई रात
आसमान गढती है
सीने में उगकर
देह तक पसरती है
ठक ठक ठक ठक
लाठियों सी चलती है,
उधार ली गई रात।।


३-पहरों की उदासी को संवारा जाये 
कुछ दर्द जरा और मिलाया जाये,
दिल के टूटे की आवाज नहीं होती
कांच जरा जोर से गिराया जाये,
कोई कहता था कि चुप मुश्किल है
रूठकर कभी उसको दिखाया जाये,
यूँ बजती नहीं है घंटियां मंदिर की
जब तक कि न श्रद्धा से बजाया जाये,
ये जो रूतबा है बेफजूल जो ये कहते हैं
उनको अकङकर "राज" दिखाया जाये।।


४-नहीं होकर भी होते हो तुम्हारी याद आती है 
धङक उठते हो जब तुम साँसे रूक सी जाती है,
बहुत सोचा कह दूँ अलविदा अब इस कहानी को
नहीं जाती मगर फिर भी ये पीङा जो सताती है,
ये जो कमबख्त है मेरी रगों में यूँ पिघलता सा
न रूह वो छोड़ पाती है न उसमे भीग पाती है,
बङा दुश्वार है जीना मेरा अब संग तेरे हमदम
धङकन रूक नहीं सकती न जिंदा रह ही पाती है,
सुलगती हूँ यहाँ दिन रात बस यादों के जंगल में
बिलखते दर्द की चादर बङी राहत दिलाती है,
जो तुम भी साथ होते रात फिर होती सुहानी सी
मगर तेरे बिना साथी बहुत मुझको रुलाती है,
ये मेरी चाह है ऐसा समझकर भूल मत करना
ये मेरा इश्क है कि" राज "अब यूँ जी न पाती है।।

खाली शाम

पीली सी आँखों में खाली शाम पडी थी
अलसाई मुरझाई सी ,
बिना किसी सपने को थामे ,
उतर रहा था एक परिंदा धीरे-धीरे 
मौसम को मुट्ठी में लेकर मुस्काता सा
हुआ सुनहरा शर्बत जैसा ,
फ़ैल रहा हर ओर था कोई शोर
कि जैसे हो मंजीरा
या ढोलक की थाप हो कोई
या फिर कोई सारंगी हो ,
मदमाती सी गूँज उठी हर सांस
कि जैसे आस हो कोई
पर्वत पीछे प्रेम को भींचे मधुर किलकती
रास हो कोई ,
लेकर अंगडाई फिर शाम हुयी मतवाली
बाहों में भर ढेरों कंगन पैरों में छनकाती पायल
चलती आलता संग लिए नाखूनों पर
सपनो के दामन को खुद में भींच लिया
सींच लिया फिर सूखा पौधा
पडा था जो बरसों से बस यूँ ही एकाकी ,
फूल लगे हैं खिलने उसमे सरसों हो या रजनीगंधा
कुछ गुलाब है कुछ है गेंदा
कुछ थोड़े जो सूख गए थे बरसों पहले
उनमे भी अब प्यास जगी है जीवन की
उनमे भी अब आस जगी है प्रियतम की ,
कि लगी बिखरने खुशबू अब है
लगी बरसने प्रीत भी होकर मीत की जैसे हो दीवानी
सपने भी अब फूट रहे हैं निर्झर सरिता के सोतों से
निर्मल होकर कोमल होकर जीवित होकर
हँसते-हंसते !!

कवितायेँ

१-उदास हूँ 
कि मेरी उदासियों को तुम भरते हो
अपनी अनुपस्थिति से
खुशबुओं से बहकते हो मेरे आस पास
पूरी आवारगी के साथ 
जब तक मैं कुछ और उदास नहीं हो जाती
जैसे खामोश वीणा,
उठा लाते हो एक बुरांश की डाल
जाने कहाँ से
थोङे अमलतास
फिर रच देते हो मुझे
रचते रहते हो मेरी उदासियों को
और गुलमोहर की दो फुनगियां भी
जिन्हें टकराकर हम जांचते थे
एक दूजे के प्रेम का ठहराव
और उनका देर तक स्पंदित होना
मैं हार जाती थी तब भी,
एक पूरे जंगल जितना वीराना
मेरे आस पास पसर जाता है
जब तुम्हारी शर्मीली यादों को
पगडंडियों और एकांत की जरूरत होती है
कि तुम मेरे कानों में चुपचाप कुछ बुदबुदा सको
कह सको अपना प्रेम शायद
या फिर वक्त की बेवफाई का हवाला ही दे सको,
उदास हूँ
कि मैं तुम्हारे मन के कैनवस पर
लाल गुङहलों सा रंग दिया जाना चाहती हूँ
चाहती हूँ कि कभी किसी रोज तुम मन में झांको
और पोत दो उसको कोरी हथेलियों से
मैं तुम्हारी हथेलियों की कच्ची गरमाहट हो जाऊँगी
तुम्हारे भीतर की एक अतिरिक्त ऊर्जा
जो तुम्हें जब तब सिझाती रहेगी
मुझे भी
कि लौ बुझती नहीं आँधियों से कभी
जिंदा रहती है जिंदा रखती है
बाद मरने के भी।

2-तुम गिरो 
जितना भी चाहो
तुम्हारा गिरना नजर नहीं आता,
नजर तो आता है बस 
बूँदों का गिरना
फूलों का गिरना
झरने का गिरना
कि जी चाहता है
इन्हें अपलक निहारा करूँ,
इन सबका गिरना सुंदर है
और तुम्हारा गिरना असुंदर,
इसलिए
तुम गिरो
जितना भी चाहो
कि तुम्हारा गिरना नजर नहीं आता
मनुष्य।।


३-सनाया 
चलो कहीं दूर चले
रास्ते पर तहरीर लिखें,
हवाओं को बांध मुट्ठी मुट्ठी 
फेफड़ों में खूब भरें
फिर उङेल दें
एक दूसरे की पीठ पर
चुहल करते,
चिड़ियों की तरह उङें
पंखों में थोड़ा आसमान भरें
कर दें आसमानी सूरज को
कि सूरज को थोड़ा बादल करें
मुझे बारिशें पसंद हैं,
रास्ते की मिट्टी पर
एक दूजे का नाम लिखें
कुरेदकर लकड़ी से
फिर धप से कूदें बगल में
धूल उङा दें उसपर
जोर जोर से ताली बजाकर
फिर खूब हँसें,
चलो न
चलो न सनाया
कहीं दूर चलें
जिंदगी को जरा और जियें।।


४-

कवितायेँ

१-मैं शाम का कोई भी टुकड़ा 
तोडती हूँ जब कभी
न जाने कैसे रंग मिट्टी का चिपक जाता है
मेरी आत्मा से,
मैं शाम का कोई भी टुकड़ा
निगलती हूँ जब कभी
न जाने कैसे
आँसुओं का जाम भर जाता है
मेरी आत्मा में,
शाम ऐसी क्यों है
ऐसी क्यों नहीं
जैसे कि शेष प्रहर सब
निर्लिप्त हैं।


2-झूला कुरसी हिलती जब 
लगता कि बैठे हैं उसपर दादाजी
हाथ में पेपर नाक पर चश्मा घङी बंधी हाथों में,
थोङे थोड़े अंतराल पर जतलाते होना खुद का 
चाय पिला दो या कहते कि कहाँ हैं सब,
कभी घुमाते कभी मनाते
कभी झूठ ही होते गुस्सा फिर हँस देते
माँ से कहते डांटो मत
फिर बैठाकर गोदी में मुझको सच समझाते
मुशकिल बातों को किस्सों में ढालकर कहते
मुश्किल प्रश्नों को कर देते खेलों सा,
उनके संग पूरी दुनिया होती काबू में
उनके संग मैं आसमान की चिड़िया होती
थामे रखते वो मुट्ठी में डर मेरा
और मुस्कानों से मेरा उत्साह बढाते,
दादाजी गर होते मेरे
खूब मजे का बचपन होता
खूब मजे की शैतानी भी
माँ जब मुझको डांट न पाती
पापा फिर हिटलर न होते,
काश कि होते दादाजी
झूला कुरसी पर बैठे
हाथ में पेपर नाक पर चश्मा
घङी देखते हाथों में फिर कहते कि
क्या आई नहीं अभी तक
बङी देर कर दी।।।।।।।।
३-शहद घुली निंबौलियों सा नेह
सालों साल गटका
सिकङी लगी रही पट बाहर
भीतर भीत रही घुलती,
लीपी मिट्टी की सोंधी गंध का
ताजा टुकड़ा लिए
तोङी हुयी कांटी डुबोकर
छाती में उतार ली इक नजर
महुए में भीगी,
पल पल दर्द की पीठी बेली
सेंका कच्ची आग पर
और तोड़कर चिड़ियों को खिलाया,
सुना है उनकी दुआयें जल्दी असर करती हैं।।

४-रेत झरना 
शाम पाखी भीगती होकर मगन
ये गगन
जब देर तक पकता है औंधे मुंह
कच्ची धूप में,
हवा सर सर
रच रही है हीर
रांझे मचल मचल हो बावरे
सुनते मगन
जागे अगन भीतर प्राण मन,
हे सखे
तू है कहाँ पूछे है मेरा मन
बारंबार
अपरंपार तुझसे प्रेम
हिय बेचैन हो तुझको पुकारे
आ जरा मुझको ले जो थाम
और फिर सँवारे
देह भर
और आत्मा भर भी कभी।।

कवितायेँ

१-सर्दियों की अतीत होती एक उदास शाम 
उसने सौंप दी अपनी बंद मुट्ठी
मेरी हथेलियों कों,
तमाम किस्म के अहसास 
मीठे गर्म आसव से हुये
बहते रंध्रों की नदी में,
बेहिसाब झुनझुनी पसरी
टूटकर फागुन बरसा
मन में
देह में
आत्मा में,
इस तरह
जाते हुए मौसम ने दिया मुझे
प्रेम।।


2-शाम की पीठ जख्मी 
पीले गुलाबी दर्द की गठरी लदी
घिसट कर आगे बढ़ी
गिर गई
फिर रात के आंचर में देखो,
खींचने आई हवा
बजा सीटी
नाचती
बरगद की चोटी पकङ उसको हिलाती
कान में बंसहट बजाती,
शाम पर अब रात के आंचर में थी
लुढकी पड़ी
सीने की गरमी ओढकर
मदमस्त सी
जख्म पर लासा लगा
और कोर पकङे,
नींद से जब शाम जागी
सुबह उसकी आत्मा था मुस्कुराता
तपतपाता
शाम से फिर सुबह और फिर शाम के
इस चक्र में
बंदी सफर की
वो तो बस कुछ आहटों का लेख थी।।
३-प्रेम गुलाबी हरा दिल लिए
करता है इकरार फकत,
दर्द बदलकर नशा हो लिया
बेमतलब ही यार फकत,
टुकड़ा टुकड़ा सांसें मेरी
पैमाने से गुजरी थीं,
पैमाना भी इश्क हो गया
जाने कैसे यार फकत।।
४- उङेलकर नफरतें 
गाङ दो जमीनों में गहरे
सङने दो
खूब सङने दो
इतना कि एक दिन मिट जाये 
उसकी कडवाहट
उसका छिछोरापन
सारी काई भी,
मिट्टी का अरक
कर दे पावन उसकी आत्मा को
और फिर वहाँ हम बोयें
गुलाब चमेली चंपा
गुडहल
करें अर्पित
समस्त मानव जाति को
समभाव से।।

कवितायेँ

१-भोर से सांझ तक,
आँगन बुहारना
मिट्टी के दुआर पर पानी छिङकना
बांधना फहराई लूह 
ओसारे मे रखे घङे को भरते रहना
मोट चले ठीक से
इसके लिए बाहर की छोटी खिड़की से
आधा मुंह लपेटे गोहराना
थककर लेटना बंसहट पर कुछ देर
फिर से बौराई फिरना
कोठी दर कोठी
ओसारे ओसारे,
इन सब के बीच
वो जो कुछ जलता रहता है भक्क भक्क
सूखी छाती में
उसे पाले हुए ही जीती रहती है
अधूरे प्रेम में गले तक धंसी औरत।।


2-ओ अमलतास 
तुम आओ मुझमें खो जाओ
मैं भरूँ रहूँ भरती तेरे कङवे रस से
जैसे कुनैन
मैं भीग उठूँ झर झर झर तेरी रंगत से 
तुम कर दो मुझको बूँद बूँद पीला संदल
मैं महक उठूँ फिर बहक उठूँ
खुद के प्यासे में नारे (कुआं) सी,
ओ अमलतास
तुम आओ मुझमें खो जाओ
मैं देह देह भर प्रीत लुटाऊं फिर कसकर।।


३-तुम्हारे साथ रहना है,
कि जब एक खास लम्हे में
नदी की पीली मिट्टी से
मेरे हाथों में रच दो तुम नया संसार 
और घर बार
जिसका दर खुले मेरी निगाहों से
तुम्हारी दृष्टि की गहरी तलहटी तक
जहाँ ढेरों हों बिखरे मोतियों के सीप
रंगों की कई टोली
कि जब तुम आँख मूँदो
वो बिखर जायें रगों में
कुछ मचलती कुछ फिसलती
देर तक अठखेलियों का खेल करतीं
तुम्हारी उंगलियां लेतीं लपक उनकी शरारत
छुअन का जब जरा हलका सा ही
आभास होता मेरे चेहरे को
उसी पल ठीक एक तारा मनौती का मेरे आँगन में गिरता
सुदूर आकाश में फिर चांद खुलकर मुस्कुराता
गीत गाता प्रीत के,
इस नेह की खातिर ही कहना है
तुम्हारे साथ रहना है।।


४-माटी रचे 
संसार
गढे आकृति
भुरभुरी
फिसली 
चाक पर घूमती
कभी कुलहङ
कभी घट
कभी मूरत बनती,
माटी करे
श्रृंगार
सजी दुलहनें
सफेद पीली लाल
काली होती पत्थर पीसी
रंग डारि फिर सब आकाश,
माटी देह
माटी सांस
माटी ही करे है नास
मिलावे पंचभूत खुद ही
पोत माथे भभूत खुद ही,
माटी भूख
माटी प्यास
करे संपूर्ण
जीवन में भरे उजास
जैसे कण कण विश्वास
माटी नश्वर
माटी ईश्वर।।

कवितायेँ

१-मुझे बरफ की सिल्लियां दो
कुछ थोड़ी सी गुलाबों की खुशबू
और कुछ बुरांश के रंग दो,
मुझे दर्द के नीलेपन की भी दरकार है 
एकांत का अंधियारा भी चाहिए
और चाहिये सुदूर कहीं टिके दो आँसुओं के जख्म,
मुझ पुरानी किताब के पीलेपन का कुछ हिस्सा दो
डायरी में लिखे किस्सों में से एक किस्सा दो
और दो आईने का चटका हुआ भाग,
इन सबसे रचूंगी मैं अपना स्व
पर मेरी आँखें रीती रहेंगी
और एक दिन किसी ठंडे बुतखाने में
कोई खींच रहा होगा तसवीर
मुझे साथ लिए।।


2-एक युग के साथ के बाद 
सफल बच्चों के गर्वीले पिता ने
कहा उससे
अब बस
बहुत हुआ 
बहुत झेला मैंने तुमको
अलग हो जाओ,
कैसे प्रेम करे वो उससे
कैसे जिये।

३-मैं वक्त की चोटिल पीठ पर
लगाना चाहती हूँ
एक कविता दुलार भरी
कि वो सिरा उठे
भर सके फिर थोड़ा जोश 
स्नेह में उफना,
छाती उमगे
कि अभी और बढना है
बढते रहना है
जब तक कि नहीं पैदा होते वो हाथ
जो लिख सकें नदी
उसके हृदय पर
उसकी आँखों में
उगा सकें नये ख्वाब
और लङ सकें फूल खिलाने के लिए,
रोटी मसला है
पर लेनी है पहले सांस
हमें जंगल उगाने होंगे,
मैं वक्त के ठीक बीचों बीच
बो देना चाहती हूँ
हौसला
मैं सारी धरती को
हरी उम्मीद करना चाहती हूं
कि चल सकें उस पर ढेरों पांव
टकराते
उल्लास का कोलाहल करते
एक नवदिवस की ओर।।


४-नहीं पता 
कि जिक्र मौसमों का
तुम तक पहुंचता है कि नहीं
या फिर तुम सुन भी पाते हो
कि बहरे हो विशुद्ध,
दरअसल मौसम यहां ॠतुयें नहीं बल्कि
भूख, धर्मांधता, हत्या
और इन सब के साथ कलियों का
मसला जाना भी है,
उन्हें कुचलना
और जबरन उनके गर्भ में
परनाला पलटना भी है,
तुम नहीं जानते शायद
पर तुम्हारी महानता को वो जानते हैं
जो एक लंबे अर्से तक आस्था से
तुम्हारा नाम जपते हैं,
उन्हें भी मालूम है
बिलकुल तुम्हारी तरह
कि तुम कुछ नहीं करोगे
कोई मदद कोई दिलासा नहीं दोगे
पर फिर भी वो करते हैं
क्योंकि वो भ्रम जीते हैं
विश्वास निगलते हैं
वो बिलकुल इंसान से होते हैं
इंसानियत के ठुकराये
चोट खाये,
तुम्हारे मौसम
हसीन होते हैं
नम और रंगीन होते हैं
उनमें मस्ती होती है
मुस्कान होती है
प्रेम होता है
वो बदलते हैं,
हमारे मौसम संगीन होते हैं
कमीन होते हैं
जिंदगी सस्ती होती है
हैवानी हस्ती होती है
डर होता है
वो कभी नहीं बदलते,
हे ईश्वर
हम जहालत और जलालत को साथ लिए
आमने सामने खड़े हैं
अपने अपने मौसमों को थामे,
तुम्हारी आँखों में शून्य है
और हमारी आँखें अग्नि से भरी हैं,
अच्छा ही है कि हममें मौसमों का
अजनबीपन है।

प्रेम ....फिर से

हरे सलवार कमीज में
अधेड़ उम्र बांधे
आंखों में थोड़े से जुगनू थामे
प्रेम का महुआ रस पीने
घबराई हुई सी चल पड़ी वो,
कस्बाई प्लेटफार्म पर
हर कदम के साथ
पुख्ता संशय
डांवाडोल यकीन
और हथेली में कसकर जकङा
हैंडबैग का सिरा
साहस हिलाने को पर्याप्त था,
ट्रेन चल पङने तक आहट की गैरमौजूदगी
डराती रही
कि अचानक ही सामने से धुंध छंटी
जोङी की एक हथेली सामने थी
और साथ ही था भरी चमक वाली मुस्कान लिए
घबराया हुआ सा कोई एक और,
सात घंटे का रास्ता कटा
कि जैसे परिंदों की उन्मुक्त परवाज
साँसों में बजता साज
फिर बेला रुखसती की,
ठीक इसी वक्त
वो ठीक ठीक समझ पायी
कि वो प्रेम में है
गंभीर प्रेम में
फिर से।

Wednesday 10 January 2018

अंकल

ओ हो , बहुत देर हो गयी आज ,जल्दी निकलना होगा ...बड बडाते  हुए आहना ने जल्दी जल्दी अपने जूते के फीते बांधे ...हांथों से बालों को संवारा और बाहर निकल गयी ....दरअसल ये उसके मोर्निंग वाक का समय था जिसे वो किसी भी कीमत पर मिस नहीं करना चाहती थी ...सालों का अभ्यास था और अब तो ये उसे मोर्निंग वाक से ज्यादा लोगों से मिलने जुलने और सोशलाइज करने का वक्त लगता .....वाक के बाद एक जगह रुककर सभी अपने अपने पसंद का जूस लेते ..कोई लौकी का आंवले और एलोवेरा के साथ तो कोई करेले का ..कोई गेहूं का रस तो कोई दालचीनी वाला काढ़ा ......कुछ मिनटों कि गपशप में रोजमर्रा से लेकर दुनिया जहाँ तक  और देश की राजनीती तक पर बात हो जाती ...राय दिए जाते ...हंसी मज़ाक होता और फिर सभी प्रफुल्लित हो अपने अपने घर वापस ...इससे पूरे दिन के लिए उन सभी में ताज़ी उर्जा भर जाती और फिर पूरा दिन बिना किसी थकन के गुजरता ......आहना इसे मिस नहीं करना चाहती थी इसलिए वो जल्दी जल्दी अपने कदम बढा रही थी और फिर जैसा कि अंकल ने भी कहा था कि अगर टहलना है तो लम्बे डग लेने चाहिए और सुबह का वक्त हो तो साँसों को तेजी से खींचकर थोड़ी देर रोकना चाहिए ..इससे फेफड़े मजबूत होते हैं....लड़ने का हौसला मिलता है और चेहरे पर चमक आती है उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा था  ....अंकल , सोचते ही उसके होंठों पर मुस्कुराहट तैर गयी ....65 की उम्र में भी एकदम फिट एन फाइन ....तय वक्त पर उनकी गाडी पार्किंग में लग जाती ....नीले वाकिंग शूज़ ,ट्राउज़र और सफ़ेद या कभी नीली, लाल  टी शर्ट में वो नीचे उतरते ...हाथों में वाकिंग स्टिक जिसका इस्तेमाल कभी कभार ही होता , रौबदार मूछें ,सफ़ेद काले खिचडी बाल ,गेहुँआ रंग थोड़ी उभरी नाक कुल मिला जुलाकर यही था अंकल का बाहरी व्यक्तित्व |

उनसे पहली बार की मुलाक़ात आहना  को विचित्र लगी थी ....वो सामान्य चाल से अपने कदम बढा रही थी कि तभी पीछे से तेज़ 

Tuesday 9 January 2018

रात

रात कजरौटे सी
जिसको खोलते ही नजर का टीका लगे
आँख कजरारी सजे
भर स्वप्न ढेरों,
रात सहचर सी सितारों को लिये
जैसे कि सूनी खाट पर
मोती सजे अनगिनत
विचलित प्रेम के,
और रात ही ममता सी
जैसे चंद्रमा भर अंक में शिशु हो सुकोमल
भरे छाती तब भी दुलराया करें
अंतिम प्रहर तक,
रात तेरे रूप कितने शेष।

Tuesday 2 January 2018

जीना

बहुत सर्दी थी कल रात
चिड़िया ठिठुरन से जम गयी
टटोलती रही कोई मकसूम तपिश ,एक मजबूत दामन
जो भर ले उसे छाती में
अपने देह की गर्मी से उसे महफूज़ कर दे 
पर ऐसा कुछ नहीं हुआ ,
रात भर गीले सपने डराते रहे
बहकाते रहे
रात भर बिछौने का कोना थामे कटकटाती रही
रात भर लगता रहा कि फकत आसमान छत है उसकी
कहीं दूर बज रहा था वादियाँ मेरा दामन रास्ते मेरी बाहें
और उसे लगा की जिस्म लकडिया जाने तक ये गलन उसे नहीं छोड़ेगी
डर से उसने आँखें मूँद लीं
पर डर वो तो पुतलियों के बीच भी था
खो जाने का डर
मर जाने का डर ,
किसीने कहा था जब डर लगे गायत्री मन्त्र पढना
वो बुदबुदाने लगी ॐ भूर्भुवः स्वः
एक बार फिर ॐ भूर्भुवः स्वः
पर उसके आगे क्या था याद नहीं आ रहा
गलन रक्तप्रवाह पर हावी है शायद
गलन याददाश्त भी मिटा देती है शायद
मन्त्र अधूरा रहा डर बढ़ता रहा
सपनो की गलन हड्डी तक पहुँच गयी
देह चरमराने लगी
मुंह से थोड़ी थोड़ी भाप भी निकली
उसे लगा वो बरफ से भर गयी है ,
नीम बेहोशी में किसी का हाथ थामे वो मस्जिद जा रही है
खुश ,चहकती
अब हलकी हलकी नींद भी आ रही है
कोई उसे दुआ माँगना सीखा रहा है
नन्हीं नन्हीं हथेलियों में प्यार बरसा रहा है
फ्रॉक की जेबें मीठे बेरों से भर गयी हैं
अब गलन कुछ कम है ,
माथे पर एक बोसे की तपिश चमकी
माथा भर गया
एक बोसा मानो लिहाफ बन गया
तस्ल्लीकुं नींद का असबाब बन गया
अब नींद गहराने लगी चिड़िया मुस्कुराने लगी ,
और रात फिर एक चिड़िया इस तरह जिंदा बच सकी |

शिकायत

आज कॉफ़ी बनाई है
वैसी ही जैसे कि तुम बनाया करती थीं
कप में थोडा पाउडर अंदाजी शक्कर, थोडा दूध मिला कर
फिर फेंटती थीं तुम उसे एक निश्चित लय में
फेंटती रहती थीं जब तक कि सब फोम न हो जाय 
सुंदर धुन गूंजती थी
चम्मच के कप से टकराने की
पता है तुम्हें कई दफे तो मै बस उसे सुनने को तुम्हारे पास चिपकी रहती
कित्ती तो बढ़िया खुशबू भी आती थी
हर सांस जैसे भर भर जाती थी उसके मोहक कसैलेपन से
फिर सबसे पहले पीना भी तो होता था
तुम जानती थीं न ये
इसीलिए तो बीच बीच में मुझे देखकर मुस्कुराती रहती थी
मेरा ध्यान नहीं होता था तुम्हारी तरफ
पर मुझे पता है ,
जब मेरे पसंदीदा मग में तीन चौथाई ये पेस्ट
और गरम दूध उबला हुआ इलायची वाला कुछ ऊपर से डालतीं तुम
किसी चित्रकार सी लगतीं
गरिमामय
सच मानो अद्भुत होता था वो दृश्य
मानो रच रहा हो कोई सुनहरा सुन्दर वेलवेटी संसार
लिखी जा रही हो कोई एक ऐसी धुन उस कप में
जो होंठों से लगते ही बस गुनगुना उठेगी
बूँद बूँद अपना स्वाद रचेगी
मंत्रमुग्ध सी हो बस तुम्हें देखा करती थी मै ,
लॉन के उस कोने वाले हिस्से में जहाँ धूप का एक टुकड़ा रुका रहता
मेरे लिये और तुम्हारे लिए
और जहाँ खिले होते
ढेरों गेंदे गुलाब दहेलिया और गुलदाऊदी के रंग बिरंगे फूल
अपनी अपनी खुशबू से लबरेज़
वहीँ हम दोनों बैठकर कॉफ़ी पीते थे साथ साथ
कभी कभी तुम कुछ गुनगुनाती भी थीं
अच्छा लगता था
मीठी सर्दियों में गुनगुनी धूप और तुम्हारी गहरे उतरती धीमी सी आवाज़
पर अक्सर ही हम बातें करते हुए पीते थे उसे
ख़त्म होते होते दुलार का एक नया आयाम गढ़ देती थीं तुम
ये तब तो नहीं पर अब महसूस होता है ,
अब नहीं पीती हूँ वैसी कॉफ़ी
अरसे से नहीं पी
मन हो तब पर भी नहीं
बेटे ने कहा मेरे लिए तो नहीं बनाया कभी
कोशिश की पर वैसी नहीं बनी जैसी बनाती थीं तुम
वैसी बन ही नहीं सकती
कोई तुम सा चित्रकार नहीं रहा न अब जो रच सके कप में काव्य
जो उतार दे स्वाद में चुम्बक ,
इतनी भी क्या जल्दी थी तुम्हें जाने की |