संस्मरण यूँ तो कई विषयों पर लिखे जा सकते हैं पर मेरा प्रिय विषय है माँ या बचपन | आज इन दोनों के घालमेल से ही कुछ पन्ने पलटने की कोशिश करती हूँ | हालांकि संस्मरण लिखना आसान नहीं होता क्योंकि इसमें कल्पनाशीलता काम नहीं करती है | इसमें तो पूरी तरह से आपको अपनी स्मृतियों के गह्वर में उतरना ,उन्हें खंगालना ,महसूस करना और फिर ईमानदारी से परोस भर देना होता है जिससे वो दिल से निकली बात सीधा दिल को स्पर्श करे |
बचपन समृद्ध था इस मायने में कि हम उसे भरपूर जी सके बिना किसी अवरोध या बड़ों की तंग सोच के | वो अपने वक्त से आगे की सोच रखती थीं | काफी हद तक आज़ाद ख्याल थीं | धार्मिक थीं पर आडम्बरों को बहुत महत्त्व नहीं देती थीं | वे सभी धर्मों में भरोसा रखने वाली थीं | मुझे याद है कि पहली बार मैं मस्जिद या गुरूद्वारे उन्हीं के साथ गयी थी जब शायद छठवीं या सातवीं में रही होउंगी , हाँ चर्च जरूर थोड़ी बड़ी होने पर अकेली गयी थी तो वजह शायद ये थी कि हम जहाँ भी रहे वहां आस-पास शायद कोई चर्च नहीं था या रहा भी हो तो ज्ञात नहीं था | आम सामजिक प्रचलन के बावजूद मुझ पर उन्होंने कभी भी एक लड़की की तरह रहने ,सोचने या करने के लिए दबाव नहीं बनाया | हम एक संभ्रांत कोलोनी में रहते थे , लगभग पारिवारिक माहौल था , डर की भी कोई बात नहीं थी पर फिर भी सिर्फ अनुशासन बनाये रखने के लिए अगर कभी मैं रात 10 बजे भी घर लौटी तो उन्होंने मुझसे कभी नहीं पूछा कि मै कहाँ थी जैसे कि मेरी अन्य सहेलियों की माएं उनसे पूछती रही थीं तो इस तरह उनके भरोसे ने मुझे जिम्मेदार बना दिया | मुझे अजीब लगता कि मेरी बाकी सहेलियों की माएं उन्हें घर के कामों को सीखने के लिए प्रेरित ,उत्साहित और कभी-कभी डांट लगातीं पर मेरे साथ ये नहीं होता था | मुझे लगता है कि वो शायद ये चाहती थीं कि मेरी अपनी खुद की एक सोच हो ,सकारात्मक दिशा हो और उसे सही करने की जिद्द भी साथ ही यदि परिस्थितियां विपरीत हों तो उनसे जूझने का माद्दा भी हो |
अब के बच्चे शायद न जानते हों पर हमारे बचपन में कपड़ों के (आम तौर पर पुराने )गुड्डे-गुडिया बनाये जाते थे ,हम उनसे खेलते और यहाँ तक कि बाकायदा उनकी शादियां भी की जाती थीं | मेरे लिए गुड्डे-गुडिया अक्सर वही बनाती थीं और शादी के लिए हम दोस्तों के इसरार पर उसे सजाती भी वही थीं | विदाई तक हर कही-अनकही मदद को वे तैयार रहती थीं और इसीलिए वो मेरी सभी दोस्तों की फेवरेट भी थीं | अक्सर ये आयोजन मेरे यहाँ होता और उस दिन वे विशेष भोजन भी बनवातीं जो कि इस पूरे आयोजन का मुख्य आकर्षण होता |
मुझे याद नहीं पड़ता कि कभी बैठकर उन्होंने मुझे कुछ समझाया हो बल्कि वे जो भी कुछ करतीं थीं स्वाभाविकतः वो सब मुझमें संस्कारगत तरीके से समाता रहा | एक घटना का ज़िक्र यहाँ मौजूं है | पिता के एक अर्दली थे बालगोविन्द | बुजुर्ग थे इसलिए हम सभी उन्हें बालगोविन्द जी पुकारा करते थे , वो खुद भी | वे हमारे घर के सदस्य की ही भांति थे | कई सालों की अपनी सेवा के बाद वो जब रिटायर हुए तो मुझसे कहा गया कि मैं खुद रोटी बनाकर उन्हें खिलाऊं, थोड़ी अनिच्छा से ही सही (क्योंकि वो मेरे लिए असुविधाजनक था ) पर मैंने ये किया | पहले तो वो मना करते रहे फिर वो अभिभूत हो रो पड़े | उस समय तो मैं आश्चर्य से भर उठी थी पर कुछ सालों बाद मुझे ये समझ आया कि जिस एक छोटी बच्ची के नखरे उठाते हुए माँ की नाराजगी के बावजूद वो हमेशा उसके खाने-पीने की हर जिद्द पूरी करते रहे थे उसी के हाथों से अपने लिए रोटी लेते वक्त दरअसल वो कितने भावुक हो उठे थे |वो दृश्य ,वो क्षण मुझे कभी नहीं भूलता |
दिसंबर की छुट्टियों में हम हर साल तकरीबन दस-पंद्रह दिनों के लिए गाँव जाते | दिन भर चचेरे -तएरे भाई-बहनों के साथ घूमते | ये समय संभल-संभल कर मेंडियों की राह खेतों में भटकने ,कुछ भी उखाड़कर या तोड़कर खा लेने ( गाजर,मूली,,अमरुद ,हरा चना या उसकी फुनगियाँ ,हरी मटर ,टमाटर इत्यादि ) , मीठी धूप में पुआलों की ढेरियों पर खेलने और रात में बोरसी ( एक किस्म की अंगीठी ) या लट्ठ का अलाव तापते हुए अन्ताक्षरी या इस तरह के ही कुछ और मनोरंजक खेलों का होता |मैं शरारती थी तो अक्सर मेरी शिकायतें उनसे की जातीं | वो हर बार मुझे समझातीं पर मै तो मै थी | इसके बावजूद उन्होंने कभी मुझ पर हाथ नहीं उठाया |
बारहवीं के बाद मेरे बी एच यू ( बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी )में सिलेक्शन को लेकर सबसे ज्यादा खुश वही थीं | हॉस्टल के लिए सारी खरीदारी करने के बाद पहली ही रात उन्होंने मुझसे कहा कि आज तुम यहीं रहो ( ये पहला मौका था कि मैं अकेली मतलब उनके बिना रहने वाली थी | कुछ असमंजस तो हलकी घबराहट से भरी थी )| कई सालों बाद मैं समझ पाई कि उन्होंने ऐसा क्यों कहा था ( क्योंकि वो चाहती थीं कि उनके उस शहर में मौजूद रहते ही मैं इस अनुभव से गुजरूँ ) और फिर अगले दिन ही वो लौट गयी थीं |
हमारे लिए एक परिवार के तौर पर सबसे मुश्किल वक्त रहा कि जब मेरे पिता गंभीर रूप से दुर्घटनाग्रस्त हुए और उस वक्त उनके बचने की उम्मीद लगभग नगण्य थी | जब मैंने अपने पिता को पहली बार देखा तो वे सर से पैर तक सफ़ेद पट्टियों में लिपटे थे | मैं दूसरी कक्षा में थी | पहले तो मैं उन्हें देखते ही डर गयी और फिर रोने लगी | मुझे याद है वो किसी शिला की भांति शांत और खामोश थीं और उन्होंने मुझे शांत करने का कोई प्रयास नहीं किया | मै मायूस और सहमी हुयी थी पर मैंने वापस जाने से इनकार कर दिया | मैं पूरा एक महीने बी एच यू हॉस्पिटल में उन्हीं के साथ रही जब तक मेरे पिता डिस्चार्ज नहीं हो गए |इस दौरान मैंने उनकी प्रतिबद्धता ,दृढ़ता और समर्पण को बड़े करीब से देखा | हालांकि समझने के लिए वो उम्र बहुत छोटी थी पर जैसे -जैसे मैं बड़ी होती गयी मैंने उस दौर को बहुत गहरे महसूस किया | इससे मैंने जिन्दगी के बेहतरीन सबक सीखे और मुश्किलों से जूझने का माद्दा भी |
जब तक वो रहीं मुझमें मेरा बचपन भी रहा बावजूद इसके कि अपने आख़िरी वक्त में वो खुद एक बच्ची हो गयी थीं जिन्हें मैं एक माँ की तरह संभालने की कोशिश कर रही थी | लखनऊ पी जी आई के आई सी यू में जब वो एडमिट थीं और उनकी स्मृति इस कदर लोप हो चुकी थी कि वे पिता और भाई को भी नहीं पहचान रही थीं उस समय मुझे देखते ही उन्होंने कहा था कि "अरे, ये तो मेरी बेटी है "| उनकी वो किलकती मासूम मुस्कुराहट आज तक मानों मेरी रूह में जीवित है | वो चली तो गयी हैं पर आज तक नहीं जा पाई हैं | मेरे आस-पास के लोग कहते हैं कि मैं उनके जैसी हो रही हूँ और कई बार खुद मुझे भी ऐसा ही लगता है |समापन इन पंक्तियों के साथ करना चाहूंगी ......
वो एक जो खामोश है वो एक जो बेचैन है
वो एक तेरी रूह है और एक मेरी रूह है |