Tuesday 11 September 2012

वेश्या बनाम औरत

सीली साड़ी में हर रात कसमसाती हैं ये औरत
जिस्म से रूह तक कांप-काँप जाती हैं ये औरत
आता तो यूँ हर रोज है कोई चाँद इनकी ड्योढ़ी पे
सूरज की किरणों से मगर  खौफ खाती हैं ये औरत,

इंसानियत के उसूलों से कहीं बहुत ही दूर
ज़िंदा इंसान नहीं सिर्फ जिस्म  हैं ये औरत
चलती फिरती बदनुमा कब्रगाह सी नज़र आती
लिजलिजी हसरतों का माजूर अंजाम हैं ये औरत ,

कोई रिश्ता ,कोई बंधन कोई सपना नहीं जिनका
खालीपन की अंधी गलियों का स्याह सामान हैं ये औरत
बंद कमरों में घुटती -सिसकती ,डरी - सहमी हुई सी
चमकीले रंगीन पैरहन में भी बुझती राख सी हैं ये औरत ,

यूँ तो वेश्या हैं इंसान नहीं ..गाली हैं सम्मान नहीं
फिर भी समाज के शराफत की 
ज़िंदा मिसाल हैं ये औरत
हमारे आंगन में  तुलसी अब तक ज़िंदा है
इसका सबसे पाक प्रमाण हैं ये औरत !!


             अर्चना राज 

Sunday 9 September 2012

सरहदें

स्पर्श की भी सरहदें हुआ करती हैं
अदृश्य , मौन , ठहरी हुई 
मखमली ओस के सख्त हकीकत सी ,

धूप  कतरा-कतरा धरती में ज़ख्म सा  इकठ्ठा है 
हसरतें भी आईने में काँटों सी दिखा करती हैं 

हवाओं को छूकर गुजरने की इजाजत नहीं है
और नमी यहाँ कोहरे में नज़र आती है
कोई सियाही सी है ठहरी  हुई जिस्म पर
कि हर कम्पन हर सिहरन यहाँ  प्रतिबंधित है
वक्त पहाड़ों सा ठहरा हुआ है दरमियाँ
दहलीज़ भी बेड़ियों सी चिपकी हैं गहराई में,

पर इश्क अब भी  पहाड़ी  चश्मों सा ही  हैं
हर बार रोक दिए जाने पर
पूरी शिद्दत से फिर-फिर फूट पड़ता है
सुलगता है नसों में पारा बनकर
पर सहम उठता है फिर भी बिखरने से पहले
कि  कोई दीवार जब हस्सास नज़र आती है,



हसरतें तो कब्र की कगार तक खड़ी हैं
पर सरहदें भी अब तक ज़िंदा हैं पुरनूर !!


हस्सास ---- संवेदनशील

पुरनूर ------- पवित्रात्मा 


        अर्चना राज