Wednesday 22 January 2020

रिवायत

रिवायत आम थी ये भी यहाँ
परदानशीनों में,
किया करती थीं वो भी इश्क
पर चिलमन के सीनो में,
गुजरी जिंदगी उनकी यूँ जैसे
साथ दुश्मन का,
न जी पाईं न मर पाईं मुहब्बत की
जमीनों में।।
खुदा कैसा था इनका?????

प्रेम

आज शाम बेरुख है
न ललछौहीं न गन्ने के रस सी मीठी रूमानियत से भरी
ये तो कुछ यूं है कि जैसे छिडक दी हो किसी ने चूने में चुटकी हल्दी
या फिर जैसे सीमेंट पर आंसुओं से लिखा जाये प्रेम
यूं भी कह सकते हैं कि जैसे रीति छातियों में उभर आते हैं ददोरे,
प्रेम को मात्र प्रेम की दरकार नहीं होती
जो धीरे धीरे देह में हार्मोन से उगता और फिर नसों में फलता फूलता उसी देह को निगल जाता है
हम अधिकांशतः यही प्रेम करते हैं
पर प्रेम को तो दरकार होती है प्रेम की
जो आंखों में मोतियों सा झलमलाता आत्मा में ठहराव सा उतरे और बया के पंखों सा हल्का और सुकोमल बना दे,
नजराने में कभी मिला एक क्षणिक चुंबन पूरे जीवन का अमृत कलश है
एक छुअन पूरी उम्र की मदहोशी है
और हथेलियों में उतरा कोई कंपन राह की तमाम मुश्किलों का हल ,
उम्र की संख्याओं के हवाले से प्रेम मत करिये
जब प्रेम हो तो फिर संख्याओं को लम्हों में तकसीम करिये
ये शाम का बेरुखापन तो बस दोहरा दिया गया किस्सा भर है।

वर्जनाएं

मेरी हथेलियों में सदियों से सुरक्षित है
एक हथेली का ताप
कुछ और भी तो न जाने क्या ,
ये न जाने क्या दर असल बहुत कुछ है
और इसी बहुत कुछ में है इंतेहाई अकेलापन
थोड़ी चुप और थोड़ा इंतजार ,
इन सबको धूप की रेशम संभाले रहती है
इन सबको शाम की सरहद थामें रखती है
एक और सरहद है कि जिसके पार जाना वर्जित है
पर सुना है वर्जना का फल बड़ा मीठा होता है ,
आज मैं भी चखना चाहती हूँ
हथेली के ताप से सृजित अनगिनत अनजान वर्जनाओं के उन फलों का स्वाद साथी।

अभिव्यक्ति

जब हवा में मद घुला तब कौन था वहां
किसने रची हवा और खुशबू की आवारगी और उनमें गढ़ा प्रेम
कौन है जो कह देना चाहता है अपनी प्रेयसी या प्रेमी से अपनी हर बात इशारे में
कौन है जो करता है ये उम्मीद कि वो खुद ही सब समझ जाए
कि जो सामना नहीं कर सकता उस दिव्य अलौकिक पल का जब प्रेम है तुमसे ये सुनकर दृष्टि छलछला उठे
जो देह में उठती मीठी मरोड़ महसूस कर भी व्यक्त न कर सके
जो बासंती हरारत की यातना सहकर भी कुछ कह न सके
जो आतुर हो विलक्षणता की हद तक पर नियंत्रित रहे
जो यूँ ही दर बदर फिरे दीवानावार पर पास आकर पलकें चूम न सके ,
झांसे में मत आना उसके
कि प्रेम में अभिव्यक्ति जैसे होने का यकीन
और इस यकीन का होना जरूरी है
प्रेम में कह देना जरूरी है |

युद्ध

क्रुद्ध क्रंदन विवश क्रंदन रिक्त आँखें बदहवासी
और हवा बारूद है
लाश के सैलाब से उठती ठिठोली
नफरतों ने खेल ली है अपनी होली
एक बच्चा गुमशुदा बाकी के सारे गुम हुए
अपनी माओं के दुशाले में छिपे मद्धिम हुए
जानते हैं अब हंसी पाबन्द है
मुस्कुराहट पर भी ढेरों बंद है
खेलना मुमकिन नहीं
हरगिज़ नहीं अब जिद्द नहीं
स्वीकार्य बस अभिशाप का
कि ये समय अभिशप्त है ,
खून से सींची ज़मीं पर सब खिलौने
हाथ भर भर बो दिए हैं
ढांककर चेहरा ज़रा बच्चे हिचककर रो लिए हैं
पर उन्हें उम्मीद है बदलेगा मौसम
एक दिन छंट जायेंगे जब धूल के बोझिल बगूले
फिर खिलेंगे फूल लौटेंगे खिलौने
और हंसी गूंजेगी फिर से ,
पर अभी चुभती हैं माँ की सुर्ख आँखें
मौन उसका
पूछना जब चाहते हैं प्रश्न तो सब लोग हैं कहते कि केवल चुप रहो
कुछ मत कहो
कि ये बड़ी विभिषका है
मानवों की दी हुयी ये मानवों पर ही सज़ा है
टूटकर भी शब्द जो भयभीत है
कि असल जिसमे हार है न जीत है
कहते हुए उसको कि अब ये कंठ चाहे रुद्ध है
पर सच सुनो ये युद्ध है |

युद्ध

उन्माद के बीच क्रोध की मांग युद्ध है
शांति की चाह बुद्ध ,
भोजपत्रों पर लिखी प्रेम और मुस्कान की कोमल पंक्तियां
युद्ध की आंधियों में खो गये वो दस्तावेज हैं
जिन्हें अंधेरों में उम्मीद के चमकीले आंसुओं से लिखा गया
और जिन्हें ढूंढा जाना चाहिए,
हम पा सके तो इंसान कहलायेंगे
जीत गये तो विजेता।

सजदा

मायूसी उसके आँखों की अक्सर एक किस्सा कहती है
वो इश्क़ में डूबी लडकी है हर वक्त जो गुमसुम रहती है
आहट जब भी हो चौखट पर वो चौंक चौंक सी जाती है
हर सुबह सवेरे बगिया में फिर ओस सी नम हो जाती है,
एक साथी था बचपन में जो कि अरसा पहले रूठ गया
कितना मीठा था साझापन पर छूट गया सो छूट गया
वो जाते जाते लौटा था पर जरा ठिठक फिर चला गया
जीवन की आपाधापी में ये रिश्ता शायद टूट गया,
पर कुछ तो है जो चुभता है पर क्या है उसको नहीं पता
दिन रात बेकसी कैसी है जब उसकी कोई नहीं खता
वो मारी मारी फिरती है इस कमरे से उस आँगन तक
या खुदा ये कैसी किस्मत है की है तुमने जो उसे अता,
सूनी रातों में अक्सर वो छत पर तहरीरें लिखती है
मन के पन्नों पर तारों से वो दर्द ए आसमां रचती है
वीणा के मद्धिम सुर जैसी उसकी सिसकी भी भाती है
ये पीड़ यार की नेमत है जब भीगे सुर में गाती है,
सब कहते हैं दीवानी है ना जाने क्या कुछ करती है
बस खुद से ही बातें करती खुद में ही खोयी रहती है
पर नहीं जानता कोई कि वो बचपन की शहजादी है
इक शहजादे के इश्क़ में जो हर लम्हा सज्दा करती है,
इंतेहां हो या इंकार हो अब
मेरा यार ही रब मेरा यार ही रब।

दर्द

जिस एक रोज
आंसुओं को ताप से
बादल में बदल देने का हुनर आ गया
उस रोज दर्द को जीना आ गया ,
जिस एक रोज
सीने में समंदर के
नमक चखने का हुनर आ गया
उस रोज दर्द को जीना आ गया,
कह सकते हैं यूं भी कि कोई तितली
फडफडाती है जब मेरी सांसों में
मेरा एकांत जख्मी हो जाता है
मेरा हर मौन बोझिल हो जाता है
पर सुकून है कि अब मुझे सैलाबों को
सहेजने का हुनर आ गया
और उस रोज फिर दर्द को जीना आ गया,
कि जिस एक रोज
बवंडर को हवाओं में
तकसीम करने का हुनर आ गया
उस रोज दर्द को जीना आ गया,
इस तरह जीना बिलाशक आसान नहीं है
पर जिंदगी भी तो मरने का सामान नहीं है।

वक्त

कसकर बंधी मुट्ठियों से भी वक्त फिसल जाता है
रास्ता ढूँढना आता है उसे
वक्त चालाक है कि धीमे नहीं पडता
कि उसे पता है धीमे पड़ते ही उसे दबोच लिया जाएगा
धीमें पड़ते ही लोग करेंगे उसका इच्छानुसार इस्तेमाल
और धीमें पड़ते ही लंबे हो जायेंगे दर्द ,
धीमा पडना अफोर्ड नहीं किया जा सकता
कि धीमा पडना एक किस्म की हार है
एक किस्म की नकारात्मकता
ये वक्त जानता है ,
वक्त पर भरोसा जरुरी है
वक्त का डर भी
ये जानना भी दिलचस्प होगा
कि वक्त के दीर्घ दस्तावेजों का इतिहास चोटिल है
उसमें दर्ज हैं अनगिनत लहू के छींटे ढेरों बोझिल किस्से
और अनंत रूदन,
वक्त सुखों का भी हिसाब रखता है
विजय और पराजय का भी
साथ ही सधे असधे प्रेम का भी,
वक्त से शत्रुता ठीक नहीं
मित्रता भी नहीं
वक्त तटस्थता की वस्तु है
उसे उसी चश्मे से देखें।

लखनऊ

पिछले कुछ सालों से लखनऊ से जाना मन को बोझिल कर देता है.. ये ठीक ठीक दुख भी नहीं है.... उदासी भी नहीं पर जाते वक्त लगता है जैसे कितना कुछ तो मन के भीतर समेट कर ले जा रही हूँ पर उससे भी ज्यादा बहुत कुछ छूट भी तो जाता है.. क्या.. नहीं जानती पर ये जो मन को भर देता है और जो छूटा रह जाता है इसके मायने बहुत हैं। लखनऊ..ये मेरे लिए उस शहर का नाम है जहाँ बेइंतिहां प्यार, परिवार और मेरे अजीज दोस्त हैं... ये उस शहर का नाम है जहाँ मैं आयी तो बहुत देर से पर आहिस्ता आहिस्ता कब वो मेरे भीतर उतरकर कहीं गहरे पैठ गया पता ही नहीं चला ।खैर, मां के बिना मायके से बस जाना होता है.. बेटियाँ विदा नहीं की जातीं। बावजूद इसके कि हर पल आपका ध्यान रखा जाये कुछ मिसिंग होता है.. शायद वो तमाम हिदायतें जो ४० साल के बाद भी मां दोहराना नहीं भूलतीं और जो पिता कभी कह नहीं पाते.. पिता के साथ जाने के पहले के कुछ पल केवल मौन होते हैं... वही मौन कुरेदता है... गले में घुटता है पर फिर एक अव्यक्त सी मुस्कान और एक लाइन कि बेटा पहुंचकर फोन कर देना... हां पापा और आप भी अपना ध्यान रखियेगा के साथ ही पैर छूकर भारी मन, नम आंखों और हलकी मुस्कान के साथ हाथ हिला कर देहरी के पार निकल जाना होता है... कल सुबह घूमते हुए इन खूबसूरत फूलों पर नजर पड़ी थी जिनके साथ ही विदा लखनऊ तब तक के लिए जब तक वापस न आऊं।

अजनबी

अपनी अस्वीकृति और हो सके तो कठोर अस्वीकृति दो मुझे
छूटना सहज नहीं पर अब वक्त हो चला है साथी
अब वक्त हो चला है कि हम अपनी अपनी आत्माओं पर अलग अलग गीत लिखें
अलग अलग राग रचें
अब वक्त हो चला है कि समय का एक छोर तुम थामो दूसरा मैं,
प्रेम धूमिल नहीं होता न हो सकता है
जैसे धूमिल होती है वीणा न कि उसकी टंकार
जैसे धूमिल होती है बाँसुरी न कि उसके स्वर
कि जैसे एक वक्त के बाद धूमिल हो जाता है स्पर्श न कि उसकी अनुभूति,
प्रेम गुफाओं में धरी आदिकालीन वस्तु नहीं जिसे अन्य को सौंपा जा सके
प्रेम देह में उठती मीठी पीड़ा भर नहीं जिसे संसर्ग से मिटाया जा सके
प्रेम तो भित्तियों पर उकेरी वो कथा है जो सदियां पूरे जतन से सुरक्षित रखती हैं ,
खंडहरों से अश्रु टपकते देखा है कभी
या कभी सुना है किसी स्तब्ध निशा में रूदन के भटके हुये कुछ स्वर
यदि नहीं तो अपनी आँखें और अपने कान खुले रखो साथी
कि ऐसे ही वीरानों में गूंजती है आवाज
चलो इक बार फिर से अजनबी बन जायें हम दोनों।

प्रेम

पीड़ को मेंहीं छान
मिलाकर भांग मैं गटकूं प्रहर प्रहर भर ,
मद से भरे नयन जब छलके
तब ही कहूं कि प्रेम है बस तुमसे ही प्रियवर।

कैसे

तुम थिर हो प्रिय जैसे पर्वत
मैं बहती नदिया धारा हूँ
तुम हो मानो वटवृक्ष अडिग
मै पवन मृदुल आवारा हूँ,
तब मिलन भला संभव कैसे हो
कैसे हो फिर प्रेम प्रीत....

आया चुनाव

साहेब भये नौरंगी
बजावें पुंगी
कि आया चुनाव भईये,
डोलें नगर भर देश
करे मटियामेट
कि आया चुनाव भईये,
पंख शुतुरमुर्गी माथे सजे है
बड़ बड़ टोपी सर को ढके है
गाली सजावै है भाषण
के एतनै है आवत
कि आया चुनाव भईये,
कपड़ा बदल बदल घूमैं
बईठो बईठो बोलैं
कि आया चुनाव भईये ।

सोनभद्र

सोनभद्र का इक कस्बा कैमूर पहाड़ी के पीछे,
जैसे उजली धूप में घुलती मीठी शामें
जैसे गौरैयों का हो समवेत चहकना
जैसे सिंदूरी मौसम की थकन गुनगुनी
जैसे रातों आसमान की क़िस्सागोई,
उस कस्बे में दूर दूर तक हरियाली थी
चप्पा चप्पा फूलों के मद गंध में खोया
सडकों पर ढेरों कनेर और अमलतास गुलमोहर भी
और हेजों की लंबी कतार
काली मकोय और तितली की खातिर बच्चों का लोटपोट
ये सब कुछ था और थी बेफिक्री बचपन वाली,
एक साल जब ठंड पड़ी और कोहरे ने भी दबिश लगाई
दिल कुछ कुछ अंजान हो गया
पीर उठी मानो नस नस में घुला जायफल
या कि जैसे कई कटोरा शहद ही भीतर भीतर टहके
पीर बढी कुछ और बढी बस इतनी कि दो आंखें मन का तीर बनीं
मन घायल था और देह भी मद्धिम आंच कि जैसे बटलोई में उबले अदहन
वो प्रेम ही था कि नहीं ये मुझको नहीं पता
पर मैं मानों कि स्वप्नलोक की राह फलक से गुजरी थी
तारों का चुंबन अंक में भर चमकीली सी शहजादी थी
चिड़ियों वाली मेरी उड़ान उसके भीतर भी कौंधी थी
वो भी उलझा उलझा सा था मैं भी उलझी उलझी सी थी
फिर नींद खुली और दिखा धरातल थोड़ा टूटा फूटा सा
मैं संभल गई और जब्त किया
बस जब्त किया,
है सोन नदी से सटा वहीं पर वो कस्बा अब भी
कि नाम है जिसका सोनभद्र कैमूर पहाड़ी के पीछे
सुना किसी से उजड गया वो बिखर गया सब
सन्नाटा सा छाया है
जैसे मुझमें कि जिसको मैने जब्त किया प्रतिबद्ध किया मन के भीतर।

माटी

बस ये नहीं कि राग हो
ये भी नहीं कि आग हो,
हो द्वंद भी
हो युद्ध भी,
भारत की माटी के लिए
सर्वोच्च जो।

नमक के प्याले

नमक के प्यालों में भरी मुस्कान
पूरा दिन चखते हैं
उम्मीद से भरते हैं
और रात है कि उन प्यालों को समंदर कर देती है
काम बढा देती है,
समंदर से नमक चुनना आसान तो नहीं
और बहुत मुश्किल है उसे चाक पर चढ़ा पाना भी
रोज रोज अकेले।

इल्जाम

हाँ सच है कि इल्जामों में अग्नि है ,
ये भी सच है कि इल्जाम मई के पहाड़ हैं
या कभी कभी आर्कटिक के विस्तृत धवल पठार ,
इल्जामो में कुछ थोड़ी वेदना भी हो सकती है
थोड़ी यातना भी
यूँ इल्जाम जीत की चाह है
और हार का डर
कई बार इल्जाम विशुद्ध दुःख भर है
कह देने और कहकर मुक्त होने की एक प्रक्रिया
और इल्जाम एक लंबा मौन भी है
इल्जाम सुख और दुःख के बीच डोलती कश्ती में खिल्ले की एक तेज़ चोट है
इल्जाम दिनों का सन्नाटा है तो रातों में बिस्तर की सिलवट
इल्जाम ख़त्म होने की उम्मीद में ठहरा इंतज़ार है
इल्जाम आस्था से अलगाव है तो कुछ करने और न करने की निरंतर जिद्द भी ,
इल्जाम मुरझाये हुए फूलों का किताबों में छुपा होना भी है
तो इल्जाम अलमारी में रखी वो जस की तस पडी इत्र की शीशी भी है
कई बार इल्जाम डायरी के सबसे पिछले पन्ने पर खुरचा हुआ कोई नाम हो सकता है
तो कभी प्रेम में लिखी गयी कुछ पंक्तियों की बिखरी स्याही भी
इल्जाम तो वो एक रुमाल भी है जो कैंची से चिंदी चिंदी कर दिए जाने पर भी लेडीज रुमाल में गठियाया होता है
और इल्जाम वो एक बिलकुल नापसंद चोकलेट है जो बार बार मंगाकर खाई जाती है
इल्जाम दुपट्टों के कोरों में रुका हुआ नमक है
तो इल्जाम सिगरेट के छल्लों की लगातार सनक भी
इल्जाम पर्दों को थामे पक्की ज़मीन पर उभरे अंगूठों के गहरे ज़ख्म हैं
तो इल्जाम पीछे पलटकर न देखने की अकड़ भी ,
इल्जाम नफरत है ,दुःख है ,टीस है ,जिद्द है बदला है आक्रोश है
और भी पता नहीं क्या क्या है
तो साहेबान इल्जामों को सब्र की कसौटी पर कसिये और फिर चुन लीजिये अपना अपना फ्लेवर ,
मैंने मुहब्बत चुनी है
कि वैसे तो तुम्हीं ने मुझे बर्बाद किया है
इल्जाम किसी और के सर आये तो अच्छा |

स्मृतियाँ

आज भी कभी कभी कुछ बोलते हुए रुक जाती हूँ ...कुछ करते हुए अटक जाती हूँ ...यूँ लगता है कि पीछे से अभी कोई टोक देगा ...कहेगा ऐसे नहीं कहते या फिर इसे यूँ करो ...सीख लो बेटा काम आएगा और चिर परिचित मुस्कान के साथ वो मीठा आश्वस्ति से भरा स्पर्श | कई बार ये भी होता है कि बच्चे कहते हैं आप बिलकुल ---- तरह लग रही हैं या वैसा ही बिहेव कर रही हैं ...पुराने परिचित कहते हैं बिलकुल ---- पर गयी हो और तब मै सोचती हूँ कि हाँ शायद ....मै बिलकुल उनके जैसी ही तो हूँ ....दरअसल हम सोचते हैं कि वो अब नहीं हैं पर ऐसा होता नहीं है ...वो कहीं नहीं जाते ...शायद जैसे हम उन्हें नहीं छोड़ पाते वैसे ही वो भी हमसे अलग नहीं हो पाते वर्ना जाने के बाद भी इतनी सजगता से महसूस कैसे होते ...कैसे हो पाते ...उनकी खुशबू खुद के भीतर से कैसे महसूस होती ....
ये एक बड़ी आश्वस्ति है कि तुम अब भी हो मेरे आस पास ....मेरे भीतर ....मेरे लिए हो ....जब भी मै उलझूं तुम रास्ता दिखा देती हो क्योंकि तब मै सोचती हूँ कि तुम होतीं तो क्या करतीं ...तुम होती तो कैसे हंसतीं ...तुम होती तो कैसी लगतीं और फिर धीरे धीरे मै भी वही सब करने लगती हूँ ...कभी कभी मै तुम्हारा वक्त जीती हूँ ...तुम्हारे दौर में जो कुछ होता था वो सब करती हूँ और तुम्हारी तरह ही अकेले होने पर किसी सोच में गुम धीर गंभीर ,तुम्हारी तरह ही कुछ करते हुए गुनगुनाते रहना और ठीक तुम्हारी तरह सबके सामने मुस्कुराहट लिए जिंदादिल होना ..ये सब करती हूँ ....करती क्या हूँ स्वतः होता चला जाता है .....आज एक दोस्त ने बातों बातों में तुम्हारा ज़िक्र किया और मै हँसते हँसते भीतर से फफक पडी .....कहाँ चली गयी हो तुम ?
पता है मुझे कि आज भी जहाँ कहीं होगी अपनी जिद्द से सबकी नाक में दम किये होगी क्योंकि जिद्दी भी तो बहुत थी न तुम ...कहीं किसी की छोटी सी ,नन्हीं सी ,प्यारी सी बेटी होगी तुम मुझे पता है पर अगले जन्म में भी तुम्हीं मेरी माँ बनना और आने वाले हर जन्म में भी क्योंकि तुम्हारी बेटी मै ही बनना चाहती हूँ कि कहते हैं बेटियाँ माओं सी होती हैं तो ये जिद्द है मेरी ...तुम मान लेना कि तुम्हारे बाद मैंने जिद्द करना छोड़ दिया है ..यकीन न हो तो आकर देख जाओ एक बार .....

सुख


किसका दोष है

रात्रि के बंदी क्षणों को मुक्त कर
नभ धरा की चेतना अभिषिक्त कर
कौन ये वीणा को झंकृत कर रहा
आत्मा अपनी सदा को रिक्त कर ,
भोर की पहली किरण सम्मान का प्रतिदान देगी
उल्लासित हो कर्म हो गर्वित यही वरदान देगी ,
पक्षियों का गान गुंजित हो रहा
मृदुल लय से पवन सज्जित हो रहा
पुष्प की आराधना कर भाव विह्वल
भ्रमर किंचित संकुचित अब हो रहा ,
प्रकृति निर्मल सजल होकर विनत मुग्धा हुयी है
राग कण होकर निशा बरसी सहज राधा हुयी है ,
अश्रु भर भर अंजुरी अर्पण करूँ
द्वार मंगल गान और वंदन करूँ
हे सखी , जो था अनिश्चित घट गया
किस तरह अब और मन चन्दन करूँ ,
प्रीत रस सरिता असीमित कोष है
यदि न मानव पान कर पाए तो किसका दोष है |

बनारस

यूँ तो बनारस से नाता बचपन से रहा और माँ गंगा का सानिध्य भी उतना ही पुराना पर जब बनारस में पढ़ने आई तो परिचय कुछ अलग और नए तरीके से हुआ ...दरअसल बनारस वो जगह है जहां आप भीड़ में भी अकेले हैं और अकेलेपन में भी पूरा बनारस समोए हैं ...कम से कम मेरा अनुभव तो यही रहा और स्मृतियों में भी यही ताज़ा है ...उस उम्र में भी मैंने बनारस अकेले टटोलने की कोशिश की...अकेली घूमी और बिना किसी संगी साथी के कई एक बार पूरा पूरा दिन दशाश्वमेध घाट पर अकेले गुजारा है ...उसे महसूस किया है ...गंगा की लहरों को महसूस किया है ...उसकी नीरवता ..उसका एकांत ...उसकी सहजता और उसका गाम्भीर्य भी ...कई बार यूँ लगा जैसे एक पल में हम दोनों आपस में बदल गए और अगले ही क्षण वापस लौट भी आये ....वहां बैठे बैठे अनेकों बार मैंने अपने जीवन को उससे जोड़कर उसके साथ जीने की कल्पना की है और उतनी ही बार अपनी मृत्यु को भी सामने देखा है ...भीतर मृत्यु और उससे सम्बन्धित सभी प्रक्रियाएं घटती रहती थीं ...मै उनसे गुजरती रहती थी और फिर पुनर्जन्म का भी भास् होता ...अब यकीन नहीं होता कि मेरे अन्दर इस कदर एकांत था और कल्पनाओं की इतनी जीवंतता थी कि मै उनमे डूबकर चुपचाप रोने लग जाती थी ...फिर खुद ही चुप और शांत भी | उस समय वहां एक चायवाला हुआ करता था जहाँ 2-३ चाय मै पिया करती ...एक रोज़ बोटिंग करते हुए मणिकर्णिका घाट के सामने से गुजरी तो कुछ पुराने मतलब काफी पुराने दोमंजिला घर दिखे जो खाली से ही थे ...मैंने नाव वाले से जब उसके बारे में पूछा तो उसने कुछ स्पष्ट नहीं बताया ...शायद मेरे यानी कि एक कमउम्र लड़की के सामने वो इस बात को कहना नहीं चाहता रहा होगा पर जोर देने पर उसने कहा कि अरे , उ तो डेरा है ...डेरा यानि मकान ...मैंने पूछा किसका तो उसने कहा विधवा लोगन का ...मैंने कहा मतलब ..तो उसने कहा कि अरे बिटिया ...जऊन लोग विधवा होई जात हैं उ इहाँ रहत रहें ...बाद में बुढाई पर आवन लगीं कहे से कि कहल जात रहा कि इहाँ मरले पर सरग मिली ( मतलब यहाँ मरने पर स्वर्ग मिलता है ) ...मै सन्न हो गयी फिर वो अपनी ही धुन में बोलता रहा कि अब तो सालन से इ बंद पडा है ..अब कोई नहीं आवत | मै देर तक उस मकान की तरफ देखती रही और सोचती रही कि कैसा रहा होगा उनका जीवन ...कितनी मुश्किलें ...अनगिनत प्रतिबन्ध ,तमाम प्रताडनाएँ ,तिरस्कार और भी ढेरों मुश्किलों के बीच अपने मन को मारकर ...इच्छाओं को घोंटकर किस तरह उम्र काटी होगी उन्होंने ...किस तरह जी पायी होंगी वो ...किस तरह इतने सारे असुविधाओं ...असम्मान और बिना किसी पहचान के वो जीवन को घसीटते घसीटते एक दिन ख़त्म हो गयी होंगी ...क्या उनके परिवारों को पता चला होगा या अगर पता चला होगा तो क्या उन्हें दुःख हुआ होगा या फिर हुआ होगा मुक्ति का भान ही शायद ...मिला होगा चैन ....क्या दुनिया में एक व्यक्ति भी ऐसा नहीं होगा जो उनसे प्रेम करता हो ...जो उन्हें चाहता हो ...जिनके लिए उनके विधवा होने से ज्यादा जरूरी हो उनका होना ...ये कोई भी हो सकता था ...माँ पिता भाई बहन दोस्त बेटा बेटी या कोई प्रेमी ...क्या सच में उनका कोई नहीं रहा होगा ....आखिर कैसा है ये हमारा समाज जो इस तरह की परम्पराओं के कोढ़ को पालता रहता है और पालते हुए भी खुश रहता है ...आगे बढ़ता है और अपने आप को गौरव मयी सभ्यता संस्कृति का वाहक मानता है ....छी ...धिक्कार है ऐसे समाज पर जो अपनी माँ बहन बेटियों के प्रति ऐसी भावना रखता है ...इस कदर असंवेदनशील है ....यकीन मानिए हफ़्तों ,महीनो ये बात मुझे परेशान करती रही ...चुभती रही | सालों बाद सुना कि दीपा मेहता की एक फिल्म है ..वाटर ...जो इसी विषय पर है ...फिर पता चला कि भारत में बैन हो गयी है पर ऑस्कर के लिए नोमिनेट हुयी है ...जिज्ञासा बढ़ी पर देखना संभव नहीं हो पाया ...आज फिल्म देखि और एक एक दृश्य मानो कटार .....ओह्ह जीवन के कितने छोटे छोटे सुख कि जिसका आमजन ख्याल भी नहीं करते वो उनके लिए उम्र भर की तृषा है ...चाहना है ...एक लड्डू जो बूढी मरणासन्न महिला के लिए पूरे जीवन का एकमात्र सपना है ...जहां मुस्कुराना मना है ...प्रेम सख्त मना है ...बल्कि मना ही नहीं वो अपमान है तिरस्कार का सबब है उनके लिए पर सेक्स के लिए उनका उपयोग भले ही ढके छिपे तौर पर लेकिन मान्य है ...स्वीकार्य है ...यहाँ तक कि उसके लिए सात साल की बच्ची का भी उपयोग किया जा सकता है ....आह ...क्या सच में कहीं इश्वर था उस वक्त ...क्या वो सो रहा था ...या फिर बहरा हो गया था ...उसकी दृष्टी चली गयी थी कि वो भी मृतप्राय था उस वक्त ..उसे इनकी पीड़ा ..इनका अपमान तिरस्कार दिखाई नहीं दिया ...सुनाई नहीं पडा ...महसूस नहीं हुआ ...अगर नहीं तो ये कैसे कर पाई उसपर भरोसा ..कैसे रख पाई उनसे उम्मीद ...किस तरह बची रह गयी इनकी आस्था .....अंत तक तो आँखें भर ही आयीं ...गला घुटने लगा ....
फिल्म की कहानी लगभग 80 वर्ष पुरानी है पर हो सकता है आज भी कहीं इनके पदचिन्ह ताज़ा हों ....समाज में औरतों के दुःख और उनके तिरस्कार के चरम को यदि जानना और महसूस करना है तो इस फिल्म से रूबरू होइए |

उम्मीद

स्वप्न घायल
पर अभी उम्मीद बाकी है,
टहनियों ने
टूट कर भी
फूल को ताजा रखा है।

आह्वान

जड़ों को सौंप कर पीड़ा ह्रदय की
उसी के अब सखी प्रहरी हुये हैं ,
समय का भान किंचित हो रहा है
सजग आह्वान गुंजित हो रहा है,
कि जब फूटेगा यौवन
तभी आयेंगे मधुकर
तभी हम चुन सकेंगे
कि जो पीड़ा हरेंगे,
कि तब तक चेतना जागृत रहेगी
और तब तक नींद भी बाधित रहेगी ,
युगों... ये जान लो तुम।

प्रेम

प्रेम सबके हिस्से नहीं आता ,
जैसे सबके हिस्से नहीं आता अमलतास
जैसे सबके हिस्से नहीं आती तीस्ता
और जैसे सबके हिस्से नहीं आते सड़क के दोनों छोर
एक सुख वाले एक पीड़ा वाले ,
दर असल सबको प्रेम साधना नहीं आता
वो नहीं जानते एकांत को रागोत्सव करना
उन्होने नहीं सीखा पीड़ा की भैरवी गाना
उन्हें नहीं पता मरुस्थल में कश्ती की हिलोर का हौल,
वो जो प्रेम के मुरीद हैं
उन्हें सीखना होगा पहले गूलर से सबक
कि जिसकी टहनियाँ बस एक बार ही मदमाती हैं
कि जिस पर खिलते हैं बस एक बार ही
मोहक स्वप्न पुष्प।

गर्मियों की सुबहें

गर्मियों की सुबहें धीरे धीरे पकती हैं
सख्त होती हैं
फिर चुपचाप जला देती हैं वक्त
और कोमलताओं को निगल जाती हैं,
गर्मियों की सुबहें
परिवर्तित कातिल हैं।

लज्ज़त

ड्योढियों के पार इश्क दम तोडता है
पट पीछे कमसिनी
इस तरह बचा रह जाता है दर्द
मुमकिन हो पाती है टूटी -फूटी ,आधी -अधूरी जिंदगी
और इसे जिये जाने की लज्जत साथी।

समय

ये समय मासूम है ,
हर कोई इस पर लिख रहा है रक्त से
तक़रीर अपनी
कर रहा घायल इसे ,
फिर भी देखो
किस कदर मोहक है इसकी
ये हंसी ,
लज्जा है बाकी तनिक भी
या मर चुके हम |

इश्क का अकेलापन

अरसे बाद कभी-कभी तलवों में रेत की नमी पसरती है और मन को नमक कर देती है ...यूँ ही चलते चलते समंदर भी सीने में उतर जाता है और रूह को नमक कर देता है ... जब रातें लम्बी हों तो अमलतासों का पीला गुच्छा साँसों की गाँठ हो जाए और घाटियों की गूँज भी कि जो देर तक उसकी थाह बने ....यूँ न भी हो तो जिस एक वक्त जबरदस्ती ज़ब्त किया हुआ कोई और कुछ ज्यादा जीवंत हो तो संयम की सारी कोशिशें उपजाऊ मिटटी हो जाती हैं ...सूरज मुखी की तरह तकलीफ उगती हैं और धूप की हरारत सी करवटों को बेचैन कर देती हैं ...एक वक्त का सुख हलके पीलेपन की वो सुन्दर आकृति है जो खुद की ही देह को गुमशुदा कर देती है...उस पर हलके स्पर्श से मीठी पीड़ा की छाप छोडती है और ठीक उसी वक्त का दुःख जालियों के पीछे की वो दो गहरी तीखी आँखें हैं कि जिनमे डूबकर जिन्दगी किनारे की छोटी पहाडी की सहमी संकुचित बर्फ हो जाती है जिस पर किसी का ध्यान नहीं जाता और जिस पर कोई कभी मोहित नहीं होता पर वो जस का तस रहता है ...बेपरवाह और कभी न पिघलने वाला ....उनींदी आँखों में पलते सपनो के बीच एक गीत गहराता है ..चाँद सी महबूबा हो मेरी कब ऐसा मैंने सोचा था ...हाँ तुम बिलकुल वैसी हो जैसा मैंने सोचा था ...तब यूँ लगता है मानो एक सीने की आग दुसरे के साँसों को ख़ाक किये जा रही है .....इन्हीं दिनों में कभी आंगन का एकाकीपन मन को सालता रहा था तो कभी कुछ पन्नो ने कुछ नज़्म सहेजे थे ...आज वो स्मृतियों का एक मज़बूत हिस्सा है |
....
सांवलापन पुरकशिश है ...इश्क के लिए सबसे मुफीद और सबसे सच्चा क्योंकि इश्क कभी गोरा नहीं हो सकता ...इश्क में तपना पड़ता है ...इतना कि चूल्हे में जो आग बची रह जाती है उसे भी अगर मुट्ठियों में भर भर जो देह पर पोतें तो राहत सी लगे ...एक शिकायत ये है कि हमारे दरमियाँ एक चुप रही ...एक हासिल ये कि लम्हों के कुछ लम्स रहे पर एक सुकून ये भी कि उन दोनों में ही इश्क रहा ...कि साथी वो सब सपना था तेरा मेरा यूँ मिल जाना पर ये कितना मनमोहक है तेरा मुझमे ही घुल जाना ....कईयों के लिए कल किसी उम्मीद का नाम नहीं तो कईयों के लिए कल हर रोज की पीड़ा का नयापन है ....किसी किसी के हिस्से ये दोनों आता है ...एक साथ ....कभी कभी पीड़ा कुछ शब्द रचती है ....वक्त उनको इकठ्ठा करता है और आंसू उसको सुव्यवस्थित करते हैं .......
आज फिर तेरा ज़िक्र
तेरी खुशबू
तेरी याद आई ,
आज फिर मेरी रूह
मेरा जिस्म
मेरी चुप रोई |
कि इश्क का अकेलापन दुनिया की सबसे खूबसूरत शय है और इसके लिए तुम्हें शुक्रिया ..........|

अमलतास

अमलतासों पर रक्खे कदम
वेदना की अति है
अमलतास शूल से ह्रदय में धंसें हैं
पीली आँखें दुनिया की सबसे सुंदर आँखें हैं।

कवितायेँ

कविताओं में दुख नहीं होना चाहिए
नहीं होनी चाहिए उदासी
न अंधेरा न शूल,
कविताओं को होना चाहिए
गोल मटोल सुचिक्कन खुशमिजाज
बच्चे सा
जो मुस्कुराये तो हम भी मुस्कुरा दें
अनायास।

सियासत

सियासत क्रूर है
कि जय बोलो वरना गद्दार कहे जाओगे
चारण बनो वरना बेकार कहे जाओगे
राजा ने नियम तय कर दिये हैं,
पर डर कैसा हुजूर
हम तो सच ही कहेंगे
भले बेवक्त मरेंगे
और साथ ले जायेंगे कलंक का टोकरा ,
सियासत रोटियों, नौकरियों, झोपडियों के लिए नहीं होती अब
सियासत होती है ईश्वर की सत्ता को चुनौती के लिए
वो दिन दूर नहीं जब एक महान देश होगा
चापलूसों, अंधभक्तों, बहरों, और अंधो का रीढविहीन देश इसके साथ ही दे दी जायेगी तिलांजलि उन्हें
अपने लहू से जिन्होंने इस देश की बंजर मिट्टी को उर्वर किया
कडी मेहनत से सपनों की फसल उगायी
उम्मीद की कि आने वाले वक्त में
उनका ये देश उनकी ये मातृभूमि महानता के शिखर को स्पर्श करेगी,
आज ठीक इसी वक्त कि जब उनको भुला दिया गया है
हम उनसे माफी मांगते हैं।

आत्मलाप

आधी रात बतियाते हैं
मैं और मेरा स्व
हाल चाल पूछते हैं
गले मिलकर बांटते हैं सुख दुःख
आत्मा को साक्षी मान कह देते हैं सब मन की,
आसमान उस समय
उत्सुकता से झुककर टेढ़ा हो जाता है
टूटकर छिटक पड़ते हैं कुछ सितारे आस पास
चाँद बड़ा हो जाता है
और झिंगुरों को मौन रहने का मूक आदेश देते जंगल
कुछ करीब सिमट आते हैं,
एक जीवन की कथा चलती है
हवा धीरे बहती है
सामने दिखने लगता है
एक शिशु
रंगीन तितलियां
कागज के नाव
और इन सब के बीच सदा के लिए गुम हो चुके
दूध बताशे देने वाले हाथ ,
रात सरकती है
मन को धीरे धीरे दरकती है
एक दूसरे की दृष्टि का जल बदल जाता है
क्षण क्षण असह्य सहा जाता है
फिर फूटती है भोर
मानो सूर्य ने विद्रोह कर दिया हो
और कर दिया हो युद्ध का ऐलान
मैं और मेरे स्व के प्रति,
दुख जीने वाले डरपोक होते हैं
हम आत्मसमर्पण की मुद्रा में हैं।

स्मृतियाँ

कभी कभी कुछ यूँ होता है कि अचानक ही कोई एक घटना याद आ जाए जो अतीत में खींच ले जाए और कुछ पलों के लिए आप उसमे डूब जाएँ ...ये सुख भी हो सकता है और पीड़ा भी और कभी कभी दोनों |
तब मै 5th में थी ....पापा का ट्रांसफर हो चुका था और क्योंकि सेशन के बीच में नहीं जा सकते थे तो हम सब यानि मम्मी , भईया और मैं चुर्क में ही रहते थे ...पापा वीक एंड्स में आते फिर चले जाते ...मुझे बड़ा बुरा लगता ...मै उनके साथ जाने कि जिद्द करती ...कई बार चुपके से उनके सूटकेस में अपने भी कपडे रख देती और कई बार ये भी होता कि उन्हें बिना बताये जाना पड़ता क्योंकि मै बेतरह जिद्द करने और रोने लगती थी ....फिर मम्मी और भईया खूब समझाते ,मनाते तब मै शांत होती ...उसी वक्त का किस्सा है ये ...फ़िल्में क्लब में परदे पर हुआ करती थीं ...खुले आसमान के नीचे ...बस ये कि उस वक्त फ़िल्में हमारे सपनो की दुनिया होती थी जिसमे तकरीबन तीन घंटे हम डूबते उतराते डुबकियाँ लगाते उनमे ही खोये रहते थे ...दीवानगी का जो दौर उस वक्त था वो आजकल के बच्चे सोच भी नहीं सकते ..खैर अब मूल किस्से पर ....एक फिल्म आई थी साजन बिना सुहागन ...नूतन ,श्रीराम लागू ,राजेंद्र कुमार और जिस करैक्टर ने मुझे सबसे ज्यादा लुभाया वो था बुलबुल का जिसे बाल कलाकार के तौर पर पद्मिनी कोल्हापुरे ने निभाया था ...संक्षेप में कहानी कुछ इस तरह कि एक बीमारी से श्रीराम लागू कि मृत्यु हो जाती है जो पद्मिनी के पिता बने हैं ....क्योंकि बेटियों को पिता से बहुत लगाव होता है तो माँ बनी नूतन उनसे ये बात छिपाती हैं ....शायद नीलू फुले इस फिल्म में विलेन बने हैं जो इस बात के लिए नूतन को लगातार ब्लैकमेल करते हैं और इसी तरह ये कहानी आगे बढ़ती है सभी भावुक मसालों के साथ .....इसी फिल्म का एक गीत है ...मधुबन खुशबू देता है ...सागर सावन देता है ...जीना उसका जीना है जो औरों को जीवन देता है ......ये मुझे बहुत अच्छा लगा और मै इसे पूरा वक्त गुनगुनाती रही ....मम्मी मुझे देखकर मुस्कुरा रही थीं ...फिर हंसकर बोलीं की बहुत पसंद आया तुमको ...और मै चहकती हुयी बोली कि हाँ और मम्मी पता है जैसे बुलबुल अपने पापा को प्यार करती है न वैसे ही मै भी करती हूँ ...ये सुनते ही मम्मी कुछ नहीं बोलीं और चली गयीं ...मुझे लगा मम्मी ने शायद ध्यान नहीं दिया ...मै कूदते फांदते फिर उनके उनके पास पहुंची ..फिर यही दोहराया मम्मी ने फिर टाल दिया ...इसी तरह दो-तीन बार हुआ ...फिर भईया ने टोका कि ठीक है ..मम्मी ने सुन लिया न ...पर मुझे चैन नहीं कि मम्मी ने कुछ रियेक्ट क्यों नहीं किया ...ऐसे लग रहा था जैसे पेट में कुछ उबल रहा है कि जब तक मम्मी हंसकर कुछ कह नहीं देतीं तब तक ऐसे जैसे मेरी बात की कोई वैल्यू ही नहीं ..और ये मुझसे कैसे सहन होता तो मै उनके आस पास फुदकती रही ....अंतिम चांस लेने का idea आया और मैंने एक बार फिर ये बात दोहराई ...फिर मम्मी ने थोडा सख्त होकर तेज़ आवाज़ में कहा कि सुन लिया न ..क्यों पीछे पड़ी हो ...भईया ने कहा तो समझ नहीं आया ....ओह्ह्ह ...मेरी तो घोर बेईज्ज़ती ....एक तो पापा नहीं वहां ...दुसरे मेरे बात की कोई वैल्यू ही नहीं और तीसरे डांट भी पड गयी ...अब तो बस एक ही चारा था कि मुंह फुला के अपने कमरे में बिस्तर पर बैठकर रोयें तो वही किया और पापा से लगातार शिकायत भी करते रहे कि कोई मुझे प्यार ही नहीं करता ...आप क्यों नहीं मुझे अपने साथ ले जाते ब्ला ब्ला ....भईया कुछ देर तो सुनते रहे फिर मुस्कुराते हुए बोले हो गया ? अब चुप हो जाओ ......ये तो घनघोर बेईज्जती ....फिर मम्मी आयीं ...मनाई ..बहुत देर तक मनाती रहीं और उस रात मै उनके ही साथ सोई तब जाकर शांति मिली ....अगले दिन से सब नार्मल .......
ये यादें भी न ......न जाने कब कहाँ कैसे दस्तक दे दे और आप उसमे खो जाएँ क्योंकि अतीत कभी लौटकर नहीं आता ...जो चले जाते हैं वो लौटकर कभी नहीं आते ...माएं खासकर .....जबकि सबसे प्यारी ,सबसे मोहक सबसे दुलारी स्मृतियाँ इन्हीं के साथ जुडी होती हैं |कभी कभी खूब फफककर रोने का मन करता है पर रो नहीं पाती कि अब दुःख को साधना आ गया है ....

प्रेस कांफ्रेंस

कुछ तो हो तुम भी यहाँ
कुछ हम भी हैं और रण भी है
आओ कि प्रेस कांफ्रेंस कर लें
संग संग
तुम कहो कुछ मै कहूं कुछ
तुम सुनो कुछ मै सुनूं कुछ
तब ये रणभेरी बजे ,
आओ कि इतना कर ही लो अब
कब तलक सहयोगियों और समर्थकों पर रख
ये जंगी तोप हंगामा करोगे
कुछ तो खुद भी दम धरो
कुछ खुद करो आका तथाकथित तुम |

निकृष्टता

निकृष्टता
इंसानियत का सबसे निचला पायदान
जिस पर कदम रखा जा चुका है ,
एक कदम और बढ़ो
चूम लो रसातल
कि अब बस वही शेष है तुम्हारे लिए
प्रहरी |

इश्क की राहें

सब कुछ कितना मुकम्मिल था ,
अंधेरे की आहट, एकांत, उंचे दरख्तों का मौन
झींगुरों की शुरुआती मरमराहट
दो फूलों से सजा गुलदान
आस पास रखी मिट्टी की एक चिडिया
एक खरगोश भी
और खिड़की पर रखा कैक्टस का टूटा हुआ सा एक गमला,
कमरे में मद्धिम पीली रौशनी बिखेरता इकलौता पीला बल्ब
जर्जर सा एक पुराना टेबल, एक कुर्सी
नीली दवात -कलम व हैंडमेड पन्ने
जहाँ तहां चूना उघडी खुरची दीवारें, हल्के पीले पर्दे और
उसमें छुपाई गई गीली हथेलियों के लम्स ,
हल्के ही पीले रंग के शरारे में लिपटी वो एक साये सी घबराई
कभी चहलकदमी करती कि अचानक थम जाती
कभी बैठती कभी झटके से उठ जाती
कभी यूं ही कुछ बुदबुदाती
कभी आवाज हलक में अटक जाती
कभी पेशानी से चुनती पसीना और सीने में भीच लेती,
कि तभी खबर आयी आना मुल्तवी हो गया
ओहह... कितनी राहत है इन शब्दों में
एक ठंडी उसांस और ढीली होती हुयी देह के साथ ये खयाल चोट सा उभरा नजरों में
और फफककर बह निकला ,
इश्क में इंतजार नेमत है
कि ये जितना जियादा हो उतना ही बेहतर।

पीड़ा सुख

दुख अपने उच्चतम स्तर पर हो
तो सुंदर हो जाता है
आकर्षक हो जाता है
पीड़ा की महक लुभाती है
भिगो देती है है आत्मा ,
जैसे कांटेदार गुलाब भी
यदि हो खुशबू भरा
तो होता है सबसे सुंदर।

चीत्कार

समाधि की मुद्रा में बैठे वो
जंगल में दूर से निहारती जिन्हें मैं
रच लेती दिव्य संग साथ
टूट जाता स्वप्न फिर देख सन्यासी उन्हें
कुढ कुढ कर करती घाव मिट्टी भर
रक्तिम अंगूठा ....मन हाहाकार
करता चीत्कार
हा ईश्वर
मेरा... बस मेरा ही क्यों न हुआ
मेरा प्रिय।

बेटियां

मां के बिना बेटियाँ सहरा की दरख्त हैं
खासकर अकेली बेटियाँ,
इस कदर मौन मानो सितार
इस कदर एकांत से भरी मानो सुरंग ,
निरंतर बर्दाश्त से सख्त जान ये
रेतीली आंधियों में जीना सीख लेती हैं
मन को सीना सीख लेती हैं ,
स्मृतियों के जल से सीझी
ये पीड़ा में भी फूल खिला सकती हैं
मन के ताप से बादलों को पिघला सकती हैं
और तो और ये समूचा ब्रह्मांड खुद में समो सकती हैं
और मुस्कुरा सकती हैं,
इनकी आँखों में झांकना मना है
कुछ पड जाता है
जिसे निकालते निकालते ये एक पूरा समंदर सोख लेती हैं
बिना जताये ये खुद को नमक कर लेती हैं
इनका मन डूबती कश्ती सा हो जाता है,
ये सबका कहा मान जाती हैं
जिद्द, मनुहार और लाड दुलार की अपनी आदतों को
सुधार लेती हैं
ये कभी कोई कंधा नहीं तलाशतीं क्षण भर के चैन को
ये अपने दुख और शिकायतों को किसी से नहीं कहतीं
चुपचाप पी जाती हैं,
अकेली बेटियाँ सीपियों सी हो जाती हैं।

प्रेम

चाह गझ्झिन
आंख मूंदे है प्रतीक्षारत यहाँ
बज रही वीणा जहाँ ,
जब अलंकृत चंद्रमा मनुहार से दुलरा उठे
लजा उठे
और छनन छन छन छनन छन छन
बज उठे पायल प्रफुल्लित मलय की
और जब सितारे नृत्य में हो मगन रचते राग हों
अनुराग हों,
ठीक बिलकुल उस घड़ी ही
तुम भी आना प्रिय मेरे
केसर के जैसे रंग में होकर घुले
और छलक जाना देह भर होकर सुवासित प्राणमन
कि जी उठूं मैं
जी उठूं और प्रीत भर भर अंजुरी इस सृष्टि को प्रतिदान दूं
प्रेम मे सीझी हुयी मैं प्रेम को सम्मान दूं।

पीड़ा

पीड़ा कहीं गहरे एक बीज है
सुख के पलों से छिटककर नीचे गिरा एक अकेला बेसहारा होनी अनहोनी की आशंका से घबराया बीज
जैसे एक अनाथ क्रोमोजोम ,
मन का कोख इसे थामकर सहेज लेता है
इसकी सुरक्षा के लिए इसे अपनी आत्मा का खोल देता है
जतन से इसे खुद में बो देता है
बीज सुरक्षित है वहां और अब शांत भी
कि दे सके प्रतिक्रिया
कर सके क्रीडा
निरंतर स्नेह के सानिध्य में वो खुद को विस्तार देता है
आकार देता है
चंचलता से फूटने लगता है रंध्रों शिराओं में
नसों की हर कडी में
देह भरने लगती है धीरे धीरे
और अब उसकी गंध मोहक है पवित्र है कि ये सृजन की गंध है
मृदुल कसैली
ये मौन पलों का रसमय सुख है
जो देह के विभिन्न तंतुओं को झंकृत करने की ताब रखे
उमडे आंसुओं में मोह का खाब रखे
ये एक रोज होंठों में उतर आता है
सुकून सा संवर जाता है ,
कि पीड़ा का बीज अब आकृति हो जाता है
खुद में ही खुद का साथी हो जाता है
सुख सा एकांत पलों में घुल जाता है
कि पीड़ा का सुख देवत्व का शिखर है
इसका रस अमृत का पान
पर इसकी प्राप्ति
मानो सदेह अग्नि भ्रमण
कि वही पार गया जो पार सका ।

शाम

शाम कुम्हलाई हुयी सी थक के लौटी है
धूप ने जमकर छकाया
पवन ने भी कर शरारत है खिझाया
पाश में भर चूम माथा गोद में उसको लिटाऊँ
स्वप्न का पलना बनाऊँ
और सितारों को धरुं फिर देह उसके
मंद शीतल स्पर्श से पलकें मुदें
हौले हौले चांदनी उस में घुले
शाम शिशु सी सो सके फिर |

दुःख

बंद आँखों में कुछ सपने बुने
गुडहल के फूलों में जो चुपचाप मसले गये
कापियां फाडी गयीं पन्ने दर पन्ने
और मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पडा है
इसे गुनगुनाते हुये रोने
और प्रेम के कच्ची पीडा वाले वो दिन लौटा दो
सब कसमें वादे लौटा दो
लौटा दो उन शहतूती शरबतों से कसैले यौवन वाले लंबे दिन उससे भी लंबी रातें
और पिट्ठुओं को जोडकर दिलों में हलचल मचाने वाले पल भी लौटा दो ,
ये एक रोज किसी ने सपने में मांगा ईश्वर से
अगले ही पल उन दोनों की आंखों में आंसू थे।

वायदा

जहर का धुआँ देकर खुद ही आंखें फोड ली उसने
वादे की ताब रखी
कि जो कहा था उसने फुसफुसाकर कानों में उसके
तेरे सिवा किसी को न देखूंगी कसम से
तो कसम रखी उसने
उसे ही देखा जब देखा दिन में भी अंधेरे में भी
उन आँखों में देखते देखते एक रेशम का पुल तैयार किया
फिर सुफेद मोतियों से नाम लिखा अपना उसके नाम के साथ
मोती ऐसे जो रात में दिप दिप करते
कौन सी तो नदी बेनाम बहने लगती फिर चुपचाप पुल के नीचे नीचे
जिसका बहना हिलोरता रहता उसे रात भर के लिए उसके आगोश में
सुबह तक थककर चूर
कि सुबह अंगडाईयों के हिस्से थी
और अंगडाईयों में सुख था ,
एक रोज उसकी आंखों में डोरियों की जगह गांठ दिखी
उस रोज नदी भी उदास दिखी
उस रोज जब वो जाने को मुडा तो उसकी उंगलियों में अटक गया रेशम
टूट गया पुल
बिखर गये मोती
उस रात वो खूब लडी जार जार रोयी
हताश निराश चंद्रमा मुँह झुकाये खड़ा रहा बेबस
और फिर उसी रात उसने फूंका अपनी आँखों में जहर वाला धुआँ
कि जो उसने कहा था तो उसकी ताब रखी ,
सब तो नहीं हो सकते न धोखेबाज़ साथी।

पीड़ा

धूप की चमक से सबक लेकर
वो रो पड़ी
धूप पहले सहमी फिर किरन किरन जा पड़ी
उसके कदमों में
इस तरह नदी बनी ,
और इस तरह पीड़ा ने बहना सीखा।

राष्ट्रवाद

जब छीन लिए जायेंगे आंखों से स्वप्न
जब हर सोच पर बंदिश होगी
जब उंगलियां की जायेंगी नियंत्रित
और जब शब्दों को पाबंद किया जायेगा
उस रोज
ठीक उसी रोज मेरे दोस्त
पूरी ताकत से तुम चिल्लाना
इस महान देश की जय हो
भीड़ तालियाँ बजायेगी और खींच लेगी तुम्हें अपनी ओर
बिना ये जताये
कि तुम्हारी आजादी अब गिरवी हो चुकी है
राष्ट्रवाद के नाम।

प्रतीक्षा

मैं युद्ध के विरूद्ध हूँ
किंतु मेरी सतर्क दृष्टि केंद्रित है तुम पर
तुम्हारे पास वक्त है और मौका भी
कि जीत सको मुझे
मैं तुम्हारे हार की प्रतीक्षा में हूँ ।

इश्क

कोई जिक्र
एक खयाल और बादल,
कुछ यादें थोड़े आंसू
और तुम,
इश्क महज लफ्ज नहीं होता।

लाइब्रेरी

लाइब्रेरियों को टूटना होगा
देव को जगह चाहिए
फिर पुस्तकों की कुर्बानी तो लाजिमी है
कि गहरी आस्थायें गढनी हैं अभी
और गहरे तक
सदियां जिसे महिमामंडित कर सकें ,
प्रगति की पीठ रक्तरंजित है
उसकी जमीन शर्मिंदा
पर राजा का गर्व सर्वोपरि सर्वमान्य
इंकार कुचल दिया गया है,
शब्दकारों
हम हारे हुये लोग
आंखों में आंसू और मजबूरी साथ रखते हैं
इतना कि माफी भी नहीं मांग सकते।

प्रेम

कभी कभी जब आप प्रेम में होते हैं और खासकर एकतरफा प्रेम में तो कई तरह की बेवकूफियां करते हैं ...सच जानते हुए भी आप ये मानने लग जाते हैं कि शायद ....शायद वो भी कभी ...एक पल के लिए ही सही और इसे महसूस करते ही आप खुद को संभाल नहीं पाते और कुछ ऐसी हरकतें कर देते हैं बल्कि ये कहना चाहिए कि आपसे हो जाती हैं कुछ ऐसी हरकतें कि आप खुद को एक बार फिर से बेवकूफ महसूस करते हैं ...दरअसल जो प्यार करता है वो सपनो ,उम्मीदों को कसकर पकडे रहता है ...उन्हीं पर आधारित होता है और छोटे छोटे प्रयासों से उसे जांचता भी रहता है पर जो प्यार नहीं करता है उसके लिए ये निरी बेवकूफियां हैं ..पागलपन या शायद वो सोचता है कि उसके साथ टाइम पास किया जा रहा है ...एक सम्भावना और होती है कि वो आप पर दया कर रहा हो और इसीलिए सह्रदयता पूर्वक कुछ कठोर या निर्मम न करके बस आपको इग्नोर कर देता है कि आप समझ जाएँ उसके लिए आप कुछ भी नहीं पर प्रेम ....उसे कौन समझाए ...वो निरंतर बेवकूफियों पर आमादा होता है जिद्द की तरह और सामने वाला निरंतर आपकी बातों को बर्दाश्त करके भी आपको विनम्र दंभ के साथ माफ़ करते चलता है ....
कोई कैसे ये समझाए कि उसे किस कदर प्रेम है ...कि किस तरह उसने अपनेलम्बे दिन अपनी तनहा रातें उसके नाम कर दी हैं कि किस कदर हर मौसम का बदलना उसे निचोड़ देता है कि किस कदर इन तमाम सालों तक उसका ज़िक्र खुद से कर उसकी कितनी बातें की हैं और शायर का नाम तो नहीं पता पर जगजीत सिंह की आवाज़ में कोई ये कैसे बताये कि वो तन्हा क्यों है ...परिवार ,समाज से घिरा होने पर भी वो तनहा क्यों हैं ...दुनियावी चक्करों में उलझा हुआ भी वो तनहा क्यों है ...दोस्तों रिश्तेदारों के होते हुए भी वो तनहा क्यों है कि हँसते मुस्कुराते ठहाके लगाते वक्त भी वो तनहा क्यों है ...कैसे बताये या कि इसे कैसे बताया जा सकता है कि सब कुछ होते हुए भी एक कमी सी क्यों है कि क्यों कभी कभी अनायास ही आँखें भर आती हैं ...क्यों कभी कभी खूब रोने को मन होता है ...क्यों आसमान की तरफ देखते हुए मन सालों पीछे की यादों में डूब जाता है कि क्यों गर्मियां जरा भी नहीं पसंद कि शायद इन्हीं गर्मियों से अकेलेपन का कोई रिश्ता है कि क्यों बारिशें उदास कर देती हैं कि क्यों सर्दियों में यूँ ही कुछ कुछ होने लगता है जो उस दौर और इस दौर कि उम्र का फर्क नहीं जानता कि कैसे अनायास किसी से नज़रों के मिलने की कल्पना पागलपने की हद तक उद्वेलित कर देती है कि कैसे खुद को संभालने के लिए दिनों दिन ख़ामोशी ओढ़कर एकांत ढूंढना होता है ...कैसे ...क्यों ....ये किस तरह किसी को समझाया जा सकता है ....जब कोई कृपापूर्वक आपकी सारी बेवकूफियों को मुस्कुराकर बर्दाश्त करता है और ये कहता है कि मै समझता हूँ या समझती हूँ तो आप कृतज्ञता से भर जाते हैं कि उसने कम से कम आपको ठुकराया तो नहीं बावजूद इसके कि उसके मन में आपके लिए कुछ भी नहीं सिवाय सह्रदयता या सहानूभूति के ....
कृपाकर प्रेम को आदर्श स्थितियों से न जोड़ें और न ही किसी आदर्श उदाहरण से उसकी तुलना करें ...प्रेम में और कुछ नहीं होता ...नहीं हो सकता सिवाय प्रेम के ...उसकी जटिलताओं , उसकी मुश्किलों और उसके द्वन्द के ...उसकी पीडाओं , उसकी असहनीय यातनाओं और आंसू के .....राधा मीरा कृष्ण या शिव जैसे प्रेम की कल्पना आप टेक्नोलॉजी के इस अधिकृत दौर में नहीं कर सकते कि जहाँ एक नाम ..कोई एक मुस्कान और उसे जिन्दा रखने के तमाम अवयव आपके चारों ओर मौजूद हैं ...इतना कि एक गाना भी हफ़्तों आपको छटपटाहट की गिरफ्त में रख सकता है ....
खैर तमाम बातें ..तमाम तर्क हो सकते हैं विरोध में या पक्ष में पर मूल तो एक ही है न ...प्रेम ....और यकीन मानिये कि प्रेम कितनी ही पीड़ा दे , अकेलापन दे , मौन दे पर एक समय के बाद ये असीम सुख में तब्दील हो जाता है ....पीड़ा सुख ....और जो इसे आपने महसूस कर लिया ...पा लिया तो फिर प्रेम से कभी विलग नहीं हो सकते .....हमेशा चाहते रहना उसको आपकी नियति है और वो .....खैर छोडिये ......कि आज भी कहीं जब ये गीत सुनाई पड़े तो लगता है कि ये सिर्फ मेरे लिए ही है जबकि मै जानती हूँ कि ये मेरे लिए तो कत्तई नहीं था , न है .....कि वो तो बस एक इत्तेफाक था कि इसे बजाय गया और मेरी नियति कि मैंने इसे अपने लिए मान लिया ......एक तरफ़ा प्रेम अज़ब अज़ब बेवकूफियां करता है ...तो लीजिये आप भी ऐसी ही एक बेवकूफी के साझीदार बनिये....
चाँद सी महबूबा हो मेरी कब ऐसा मैंने सोचा था
हाँ तुम बिलकुल वैसी हो जैसा मैंने सोचा था |

इश्क

सिगरेट से मुक्त हुये छल्ले
नहीं ढूंढते जरा सी भी स्पेस खुद के लिये
बस विलीन हो जाते हैं अनंत में
निस्सीम होकर ,
जैसे निस्सीम होता है मन
इश्क में।
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कि भर बाजू में थाम लियो मोहे
मैं टूटी पतवार
संग घुलूं तो घुलती जाऊं
जैसे संगम धार
पिया जी।

ख्वाहिश

मुझे दो इजाजत
कि पाबंदियां मै सारी तोड़ दूं
हवा का रुख मोड़ दूं
ज़मीं आसमां और आसमां को ज़मीन कर दूं ,
मुझे दो इजाजत
कि मै अपनी देह का मालिकाना हक पाऊं
अपनी मर्जी की साँसें लूं
उन्मुक्त उड़ान भरूं ,
मुझे दो इजाजत
कि तमाम चरित्रहीनता के दाग तुम्हें सौंप दूं
गलीजताओं को रौंद दूं
औरतों की हर सियाही सुफेद कर दूं ,
मुझे दो इजाजत
कि मै हर दोयमपने से इनकार कर सकूं
सड़ी गली मान्यताओं को तोड़ मरोड़ सकूं
धर्म के सभी कर्तव्य सिर्फ तुम्हारे लिए सुनिश्चित कर सकूं ,
मुझे दो इजाजत
कि मै अपनी बेडौल कुरूपता में भी सर्वाधिक मोहक लगूं
अपने पहनावे की आंकलन कर्ता स्वयं बनूँ
तुम्हारी दृष्टि में छिपी वर्जना को इनकार कर दूं ,
मुझे दो इजाजत
कि तुम्हारी बेलगाम इच्छाओं का अस्वीकार्य बनूँ
तुम्हारे दमन का कठोर प्रतिकार बनूँ
अपनी मुस्कान का मनचाहा आकार बनूँ ,
मुझे दो इजाजत
कि ये जो चूड़ी बिंदी सिन्दूर की अनिवार्यता का ज्ञान है
इसे धता बता सकूं
इसकी सारी वैज्ञानिकता की जरूरियात तुम्हारे लिए मुक़र्रर कर सकू
तुम्हारी सुरक्षा कर सकूं ,
मै लिखना चाहती हूँ नफरतों पर प्रेम
मै हथियारों को पुष्पों में बदल देना चाहती हूँ
मै उगाना चाहती हूँ बंजर मिटटी में अनाज
मै देना चाहती हूँ ढेरों ढेर बच्चों को उनकी छत
मै हर लाचारी को मुस्कान बना देना चाहती हूँ
मै महिला आश्रमों को बंद कर देना चाहती हूँ
अनाथालयों पर जड़ देना चाहती हूँ सबसे मजबूत ताला
और सभी वृद्धाश्रमों को फिर से एक बड़ा घर बना देना चाहती हूँ
मै हवा की चाल पर सवार विस्तृत आसमाँ की पूरी उंचाई माप लेना चाहती हूँ ,
मुझे इजाजत दो
और न भी दो तो कोई बात नहीं
कि इससे फर्क नहीं पड़ता
अब |

खबरनवीसी

आँखें रिक्त कर उनमे बेचारगी भरनी होगी
अपनी भूख पर संगीन कसनी होगी
ज़हर फेफड़ों में भरकर मगरमच्छों की भांति पड़े रहें
अपनी चमड़ी को झुलस जाने दें
पर सवाल नहीं कि सवाल जुर्म है भेड़िये पीछे पड़ जायेंगे
देशद्रोही का तमगा पहनाएंगे
लट्टू सा नचाएंगे ,
सियारों की सहजबुद्धि अपनाइये
कि जोश जीवन लील सकता है ,
फिर पर्चों पर देश महान है
निजाम गर्वीला
सबकुछ संतुलित व्यवस्थित
पर याद रहे
देश के खबरनवीसों की रीढ़ टूटी हुयी है |
( सच्चे खबरनवीसों से माफ़ी सहित )

मृत्यु

मृत्यु जब चाहे चली आती कहीं भी
मृत्यु क्योंकर पर चली आती कहीं भी ,
तिरस्कारी तुम नहीं स्वागत तुम्हारा
जाओ चुपकर सो रहो
कि हम खफा हैं ,
छीन लेती तुम सदा हमसे
किसी को
अब न आना
ठन गई है ...।

प्रकृति

एक दिन
हम अपनी सांसों के लिए धूल पर निर्भर होंगे
मजबूत फेफड़ों के साथ
शीतलता के लिए पसीने पर
कि सूर्य अपनी विकट ज्वाला हमें सहज ही परोसेगा
कंक्रीट के जंगलों में घिरे हम आधी रात होने का इंतजार करेंगे
कि मिट्टी में लोट पोट देह का तापमान सामान्य कर सकें
बूंद बूंद जल पोखरों तालाबों से छानेंगे तब तक
जब तक वो सूख न जायें
या जब तक हम मर न जायें
भूख नहीं लगा करेगी तब कि भूख से ईश्वर हमें बचा लेगा ,
हम जंगल कटने देंगे
धरती को जलने देंगे
हम सत्ता को चुनेंगे
हम ताकत को चुनेंगे
और एक दिन चुक जायेंगे,
प्रकृति और ईश्वर हमेशा दयालु नहीं होते।

अंजाम

तुम अगर प्रस्तुत नहीं लज्जा हनन को
मूढ हो फिर
और तनिक सी धर्मद्रोही भी सखी,
सिर झुकाये हो खड़ी यदि
कसे जिह्वा पर हो ताला
तब ही तुम रह पाओगी स्त्री सजीव ,
नोंचने को सब यहाँ तैयार बैठे
खींचने हर श्वांस अब हर देह से ऐयार बैठे
तब भी वो जी लेंगे जीवन
हंस संकेंगे रह सकेंगे
वो सहज स्वीकार्य हैं पर तुम नहीं
कि तुम अपावन हो चुकी हो
तुम पतित हो तुम ही कुत्सित
हो भले तुम रक्तरंजित,
दुधमुहीं भी हैं जहाँ पर मात्र भोग्या
बस जरा सा रस लिया था
डर से फिर रेता गला था
हो गया तो हो गया इसमें बुरा क्या
आहह ईश्वर... हो कहीं तुम?
ना सखी कोई नहीं है
खुद ही हो अब सज्ज रण लडना ही होगा
ये सबक उनकी समझ मढना ही होगा
कर प्रहार उनको ये चेतावनी दें
अब भी गर वो नहीं संभले
तब उन्हें मरना ही होगा
हो भले अंजाम कुछ।

इश्क

इश्क के एक लम्हे की खातिर पूरी उम्र का सदका साथी !!
कि जो ठहरी है इन दो निगाहों में
वही छलके उन दो निगाहों से तो बात बने....
कहीं गहरे बड़े अजब किस्म की उथल पुथल है...
बारिश तुम कब आओगी........।

तसव्वुर

तेरा तसव्वुर है आज भी उस जमीन को ,
जहां से कोई कभी न गुजरा तेरे सिवा ...
और वही है रस्ता वही फलक है वही महक
वही हैं गलियां वही खमोशी वही लहक ...
कि वहीं दरख्तों के बीच सूनी मजार है
और वहीं कहीं है कोई गुमशुदा तलाश भी .
जो पा सको गर तो ढूंढ लो तुम
फिर उसको साथी।

पहली बारिश

सोचा था पहली बारिश हो तो कविता लिखूं
कुछ दिल को उकेरुं
मिट्टी के पहले स्पर्श के कंपन में शब्द भरूं
पर मुमकिन नहीं हुआ
यादें नाराज हैं शायद,
यूं उम्र के एक लंबे हिस्से का बयान सरल भी तो नहीं
मौसमों की बेरूखी के लिए कोई स्याही नहीं होती
फिर मन का दुख या सुख बिलकुल ठीक ठीक कैसे कहा जा सकता है
और कहा भी जाय तो क्या ठीक बिलकुल उसी तरह समझा भी जा सकता है
अजब मुसीबत,
पुराने शहर की सडकों का कुछ कर्ज बाकी है शायद
जब तब जहन में कौंधती रहती हैं
अंतिम बार कह तो दिया था विदा फिर क्या है ऐसा जो छूटा रह गया
आधा रह गया
कि जिसके पूरे होने को वो बार बार चली आती है
उसके पास भी तो दुनिया के सबसे पुरकशिशश उन दो कदमों की थाप है जो मुझे प्रिय है ,
फिर उन लम्हों का क्या
जो मेरी आंखें हो जाती थीं और भीगी रहती थीं मीठी मीठी तकलीफ से
और वो लम्हे भी जो धड़कते रहते थे देह में घड़ी की टिक टिक के साथ
कि जिन लम्हों में न होना जीवन में नहीं होने जैसा है,
नमक चुटकी भर हो तो ही ठीक
इश्क भी
अति ठीक नहीं जानते बूझते भी पाले हुये हैं
जिद्द ये भी कि वहाँ और कोई नहीं
कोई उस हद तक हो भी तो नहीं सकता
इतना बेवफा जिस पर पूरी एक उम्र वारी जा सके,
तो फिर भला कवितायें कैसे लिखी जायें
कैसे लिखी जा सकती हैं........

बंदिश

रिवायतों ने कसकर बांध रक्खा है मन
वरना कबके खुशबू हो जाते
यूं दरकना आदत नहीं मजबूरी थी,
चौखट के साथ ही बंधे होते हैं लड़कियों के पांव
वहीं पर धरी होती है पूरे घर के सम्मान की कोरी चुनरी
आँखों तक ढक दी जाती है
उस पर गुलाबों के दाग भी बर्दाश्त नहीं ,
गहनों का बोझ बंदिशों का शोर है
दबाव इतना कि मुस्कान देह से ज्यादा रगड़ खाई दिखे
भीड़ में विशिष्ट भी तो दिखना है
पर मन विशेष हो सके ये स्वीकार्य नहीं,
खिड़कियों की ताजी हवा जाली से छन कर आये तो ठीक
क्यूबिक एम एम के टुकड़े मुफीद हैं
उससे ज्यादा नहीं कि एक बंदिश के लिए मयस्सर सुख भी बंदिशों में ही अच्छा होता है,
वास्ता एक खिडकी का पड़ोस की दूसरी खिडकी से ही संभव है
तो वहीं खुल पाता है मन जरा सा
वहीं नजरों में गुलमोहर उतरता है
वहीं मुस्कानों के जख्म मीठे महसूस होते हैं
वहीं देह में धूप चटकती है
उसी खिडकी से आसमान रात भर तपाता है
और फिर एक रोज उसी खिड़की पर अमलतास टांक दिया जाता है
मन पीला हो जाता है,
ऐसी ही न जाने कितनी खिडकियां धरोहर हैं
प्रेम के अधूरेपन की
उनकी ही जालियों पर अरसे से एक हथेली और अनगिनत होंठ छपे हुये हैं,
अब लगातार टूटती बंदिशें
सूख चुके आंसुओं की खामोश दुआयें हैं।

इंतज़ार

तुम्हारे खतों का इंतजार सालों रहा,
लगा कभी तो उनमें गुलाबों की पंखुडियां भेजोगे
या शायद कुछ रातों का रंग
कभी बादल का एक छोटा टुकड़ा ही भेज दो शायद
वैसे सर्दियों की थोड़ी कुनकुनी गरमाहट भी भेज सकते थे,
खत कोरे भी होते तो पढ लेती
उनमें मनचाहा भर लेती,
दुख को राहत और उदासियों को खुशी कहना मुझे खूब आता है ,
बारिश वाष्पीकरण की एक स्वाभाविक प्रक्रिया मात्र नहीं होती साथी।

अंतर्द्वंद

उस रात मै भागना चाहती थी पर भाग नहीं पाई
पीड़ा घनीभूत हो चिपक गयी थी आत्मा से
कातर स्वर से की गयी गुहार भी फलीभूत नहीं हुयी
उसे होना था ,
उस रात कहीं कुछ नहीं बदला
न भीतर की उमस कम हुयी न चौखट ही नरम पड़ सका
बदला तो बस मन ,
समंदर पूरे उठान से अपना नमक मेरी रगों में उड़ेल गया
पर मेरे आंसुओं ने उसे तेज़ाब नहीं होने दिया
मेरे आंसू तत्वहीन थे उस वक्त ,
अशोक के पेड़ की छाया में उस रात छिटका हुआ अमलतास भी था
उसी के तले दो कदमो के पलटने की निशानी भर ज़मीन सुलगी हुयी थी
अमलतासों ने उसे करीने से उभार दिया था
खिलंदड़े पन की भी हद्द बेहद ,
उस रात एक सांस ने दूसरी सांस से ज़ख्म बांटे थे
एक सांस ने दूसरी सांस को गले लगाया था
और बाकी कि तमाम साँसे घुट गयीं थीं
सरहद ख़त्म हो गयी थी ,
सड़क के चटकने से घर की दीवारें नहीं टूटतीं
पर भरोसे के चटकने से मन जरूर टूट जाता है
ये उस रात जाना मैंने
उसी रात बेवजह लडती झगडती और फिर फूट फूट कर रोतीऔरतों के दिलों का मर्म भी जाना
ये जानना जरूरी था कि मै भी उनमे से एक होने को थी ,
जो उस रात नहीं भाग पायी तो आज तक भाग रही हूँ
कि जो भाग गयी होती तो थिर होती
शायद |

बारिशें

बारिशी बूंदें सागौन पर झरीं
फिर धीरे से टपक पडीं घास पर
पूरे जतन से वो धीमे धीमे फिसल रही हैं
उन्हें इंतजार है आकुलता के चरम की
कि जब मिट्टी विवश होकर पूरी आरजू से उसके लिए अपनी दोनो बाहें पसारे
तब ही वो आहिस्ता से उसमें जज्ब हो
इसी सुख के लिए बूंदे तीन चौथाई समय सब्र किये रहती हैं,
प्रकृति जब बहुत खुश होती है तो मेहर करती है
इतनी हसीन गुस्ताखी करती है कि जी चाहता है उसे चूम लूं
अंकवार की जाती हैं तब वो सभी यादें जो बाकी वक्त एक किस्म के पर्दे के पीछे महफूज सी रही हैं
कि बारिश मुक्त इजहार का मौसम है
सब कुछ कह देने सुन लेने और लिखने का मौसम
कि स्याहियां हरियाली मुहैया कराती है और कलम धड़कन
मन पन्ना होता है ,
भीगी गौरैया जो भटककर खिडकी पर आ बैठे
दिल धक्क हो जाता है
हथेली की गर्मी उसके कांपते पंखों में भरने को मन कैसा तो बावला हो उठता है
पर कदम आगे नहीं बढते पत्थर हो जाते हैं
जैसे पत्थर हो गई थी शाम एक रोज
जैसे पथरा गई थी देह एक रोज,
बार बार के शिकवे अच्छे नहीं लगते जानती हूँ
पर थमी हुयी तकलीफ भी तो अच्छी नहीं होती न
गुलमोहर के नीचे से गुजरते हुये गिरे हुये फूल चुनती हूँ
फुनगियों को सटाकर विरूद्ध खींचना होता है कि जो बच जाये वही जीता
इस खेल में हमेशा हारते हुये भी मन खुश ही हुआ कि कोई कहीं बिलकुल ठीक है
सुखी
और मेरा सुख तो टूट जाने में ही है
कि प्रेम कभी अखंड नहीं होता इसलिए विस्तृत और गहन होता है,
बारिशें शुकराना हैं
कि सलाम पहुंचे उन तक जो न जाने कहाँ हैं।

कविता

जब मौसम अकेला करे कि झरती बूंदें मन तक न पहुंचेंं
जब निरंतर थका देने वाली व्यस्तता कुछ करने की कोशिशों तक में न बदले
जब कुछ कहना भी चलो रहने दो फिर कभी हो जाये
जब बंद पलकों के पीछे की गति स्मृतियों का भंवर हो
जब अंधेरा और एकांत जरूरी लगे
जब फूलों की सुंदरता की बजाय कांटों और टहनियों पर नजर फिसले
जब रूमानियत फिजूल लगे
और जब हर आवाज विरक्त करे ,
तब
हां बिलकुल ठीक तब ही एक कविता लिखी जानी चाहिए
उदासी से बिना कोई रंज पाले।

लंका

लंका की चहलकदमियां स्मृतियों की निधि है ,
कि जब टूटे फुटपाथ भी सुंदर लगे थे
हास्टल के ऊबे हुये लड़के लड़कियों की चुलबुली तिरछी नजरें मीठी हंसी
और झूठ मूठ को तरेरती भंगिमायें भी अच्छी लगी थीं
रुई धुनते गद्दा बनाते लोग भी मोहक लगे थे
कि वही गद्दे हमारी देह का सुकून थे
कि वही एकमात्र गवाह थे हमारे उन दिनों की तमाम उलझनों के,
उसी लंका की ठंडी सुबहें शामें गुजरीं कुल्हड़ की चाय से मन गरमाते
तो वहीं मलाई मार लस्सी भी गटकी न जाने कितनी
लंका पर हमारे दुपट्टों का करीनापन सरक जाता
लडकी होने का सलीका बदल जाता
हमारी नफासत बनारसी हो जाती,
लंका हम चिड़ियों की प्रयोगशाला थी
जहाँ हमने अपने पंख फडफडाये
उडान का हौसला बटोरा
विरोध और आजादी के गीत भी गाये
दुनियादारी भी सीखी
और तो और आवारागर्दी के सबक भी लिये
लुत्फ भी,
लंका में समय ने चोला बदला
संगीत के स्वर बदले
प्रेम की पीढियां बदलीं
पर बहुत कुछ ऐसा भी है जो अछूता रहा
जैसे संगीत, जैसे प्रेम, जैसे हवा में घुला यादों का नमक या फिर जैसे लंका खुद
कि वो तब भी निर्लिप्त था और आज भी तटस्थ है,
लंका होना आसान नहीं
कि न जाने कितने दिलों का पिघलापन संचित है यहां
बह रहा जो सतह के नीचे
कि न जाने कितने जख्मों की सख्त सतह मौजूद है यहां
तटबंध की तरह थामे उसका किनारा
कि न जाने कितनी मुस्कानों की रौशनी से दमकता है ये
कि आधी रात भी अंधेरा नहीं होता यहां
और न जाने कितनी गर्वीली हंसी से उत्फुल्लित
कि हर मौसम में उम्मीद से भरा रहता है ,
लंका
प्रेम तुम्हें
कि तुमसे ही सीखती है एक पूरी पीढ़ी मानवीय होना।
(बनारस में एक ऐसी जगह जहाँ मैने ये सब सीखा...और बहुतों ने भी 😊 )