कभी कभी जब आप प्रेम में होते हैं और खासकर एकतरफा प्रेम में तो कई तरह की बेवकूफियां करते हैं ...सच जानते हुए भी आप ये मानने लग जाते हैं कि शायद ....शायद वो भी कभी ...एक पल के लिए ही सही और इसे महसूस करते ही आप खुद को संभाल नहीं पाते और कुछ ऐसी हरकतें कर देते हैं बल्कि ये कहना चाहिए कि आपसे हो जाती हैं कुछ ऐसी हरकतें कि आप खुद को एक बार फिर से बेवकूफ महसूस करते हैं ...दरअसल जो प्यार करता है वो सपनो ,उम्मीदों को कसकर पकडे रहता है ...उन्हीं पर आधारित होता है और छोटे छोटे प्रयासों से उसे जांचता भी रहता है पर जो प्यार नहीं करता है उसके लिए ये निरी बेवकूफियां हैं ..पागलपन या शायद वो सोचता है कि उसके साथ टाइम पास किया जा रहा है ...एक सम्भावना और होती है कि वो आप पर दया कर रहा हो और इसीलिए सह्रदयता पूर्वक कुछ कठोर या निर्मम न करके बस आपको इग्नोर कर देता है कि आप समझ जाएँ उसके लिए आप कुछ भी नहीं पर प्रेम ....उसे कौन समझाए ...वो निरंतर बेवकूफियों पर आमादा होता है जिद्द की तरह और सामने वाला निरंतर आपकी बातों को बर्दाश्त करके भी आपको विनम्र दंभ के साथ माफ़ करते चलता है ....
कोई कैसे ये समझाए कि उसे किस कदर प्रेम है ...कि किस तरह उसने अपनेलम्बे दिन अपनी तनहा रातें उसके नाम कर दी हैं कि किस कदर हर मौसम का बदलना उसे निचोड़ देता है कि किस कदर इन तमाम सालों तक उसका ज़िक्र खुद से कर उसकी कितनी बातें की हैं और शायर का नाम तो नहीं पता पर जगजीत सिंह की आवाज़ में कोई ये कैसे बताये कि वो तन्हा क्यों है ...परिवार ,समाज से घिरा होने पर भी वो तनहा क्यों हैं ...दुनियावी चक्करों में उलझा हुआ भी वो तनहा क्यों है ...दोस्तों रिश्तेदारों के होते हुए भी वो तनहा क्यों है कि हँसते मुस्कुराते ठहाके लगाते वक्त भी वो तनहा क्यों है ...कैसे बताये या कि इसे कैसे बताया जा सकता है कि सब कुछ होते हुए भी एक कमी सी क्यों है कि क्यों कभी कभी अनायास ही आँखें भर आती हैं ...क्यों कभी कभी खूब रोने को मन होता है ...क्यों आसमान की तरफ देखते हुए मन सालों पीछे की यादों में डूब जाता है कि क्यों गर्मियां जरा भी नहीं पसंद कि शायद इन्हीं गर्मियों से अकेलेपन का कोई रिश्ता है कि क्यों बारिशें उदास कर देती हैं कि क्यों सर्दियों में यूँ ही कुछ कुछ होने लगता है जो उस दौर और इस दौर कि उम्र का फर्क नहीं जानता कि कैसे अनायास किसी से नज़रों के मिलने की कल्पना पागलपने की हद तक उद्वेलित कर देती है कि कैसे खुद को संभालने के लिए दिनों दिन ख़ामोशी ओढ़कर एकांत ढूंढना होता है ...कैसे ...क्यों ....ये किस तरह किसी को समझाया जा सकता है ....जब कोई कृपापूर्वक आपकी सारी बेवकूफियों को मुस्कुराकर बर्दाश्त करता है और ये कहता है कि मै समझता हूँ या समझती हूँ तो आप कृतज्ञता से भर जाते हैं कि उसने कम से कम आपको ठुकराया तो नहीं बावजूद इसके कि उसके मन में आपके लिए कुछ भी नहीं सिवाय सह्रदयता या सहानूभूति के ....
कृपाकर प्रेम को आदर्श स्थितियों से न जोड़ें और न ही किसी आदर्श उदाहरण से उसकी तुलना करें ...प्रेम में और कुछ नहीं होता ...नहीं हो सकता सिवाय प्रेम के ...उसकी जटिलताओं , उसकी मुश्किलों और उसके द्वन्द के ...उसकी पीडाओं , उसकी असहनीय यातनाओं और आंसू के .....राधा मीरा कृष्ण या शिव जैसे प्रेम की कल्पना आप टेक्नोलॉजी के इस अधिकृत दौर में नहीं कर सकते कि जहाँ एक नाम ..कोई एक मुस्कान और उसे जिन्दा रखने के तमाम अवयव आपके चारों ओर मौजूद हैं ...इतना कि एक गाना भी हफ़्तों आपको छटपटाहट की गिरफ्त में रख सकता है ....
खैर तमाम बातें ..तमाम तर्क हो सकते हैं विरोध में या पक्ष में पर मूल तो एक ही है न ...प्रेम ....और यकीन मानिये कि प्रेम कितनी ही पीड़ा दे , अकेलापन दे , मौन दे पर एक समय के बाद ये असीम सुख में तब्दील हो जाता है ....पीड़ा सुख ....और जो इसे आपने महसूस कर लिया ...पा लिया तो फिर प्रेम से कभी विलग नहीं हो सकते .....हमेशा चाहते रहना उसको आपकी नियति है और वो .....खैर छोडिये ......कि आज भी कहीं जब ये गीत सुनाई पड़े तो लगता है कि ये सिर्फ मेरे लिए ही है जबकि मै जानती हूँ कि ये मेरे लिए तो कत्तई नहीं था , न है .....कि वो तो बस एक इत्तेफाक था कि इसे बजाय गया और मेरी नियति कि मैंने इसे अपने लिए मान लिया ......एक तरफ़ा प्रेम अज़ब अज़ब बेवकूफियां करता है ...तो लीजिये आप भी ऐसी ही एक बेवकूफी के साझीदार बनिये....
चाँद सी महबूबा हो मेरी कब ऐसा मैंने सोचा था
हाँ तुम बिलकुल वैसी हो जैसा मैंने सोचा था |