Wednesday, 22 January 2020

लखनऊ

पिछले कुछ सालों से लखनऊ से जाना मन को बोझिल कर देता है.. ये ठीक ठीक दुख भी नहीं है.... उदासी भी नहीं पर जाते वक्त लगता है जैसे कितना कुछ तो मन के भीतर समेट कर ले जा रही हूँ पर उससे भी ज्यादा बहुत कुछ छूट भी तो जाता है.. क्या.. नहीं जानती पर ये जो मन को भर देता है और जो छूटा रह जाता है इसके मायने बहुत हैं। लखनऊ..ये मेरे लिए उस शहर का नाम है जहाँ बेइंतिहां प्यार, परिवार और मेरे अजीज दोस्त हैं... ये उस शहर का नाम है जहाँ मैं आयी तो बहुत देर से पर आहिस्ता आहिस्ता कब वो मेरे भीतर उतरकर कहीं गहरे पैठ गया पता ही नहीं चला ।खैर, मां के बिना मायके से बस जाना होता है.. बेटियाँ विदा नहीं की जातीं। बावजूद इसके कि हर पल आपका ध्यान रखा जाये कुछ मिसिंग होता है.. शायद वो तमाम हिदायतें जो ४० साल के बाद भी मां दोहराना नहीं भूलतीं और जो पिता कभी कह नहीं पाते.. पिता के साथ जाने के पहले के कुछ पल केवल मौन होते हैं... वही मौन कुरेदता है... गले में घुटता है पर फिर एक अव्यक्त सी मुस्कान और एक लाइन कि बेटा पहुंचकर फोन कर देना... हां पापा और आप भी अपना ध्यान रखियेगा के साथ ही पैर छूकर भारी मन, नम आंखों और हलकी मुस्कान के साथ हाथ हिला कर देहरी के पार निकल जाना होता है... कल सुबह घूमते हुए इन खूबसूरत फूलों पर नजर पड़ी थी जिनके साथ ही विदा लखनऊ तब तक के लिए जब तक वापस न आऊं।

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