Wednesday 22 January 2020

बारिशें

बारिशी बूंदें सागौन पर झरीं
फिर धीरे से टपक पडीं घास पर
पूरे जतन से वो धीमे धीमे फिसल रही हैं
उन्हें इंतजार है आकुलता के चरम की
कि जब मिट्टी विवश होकर पूरी आरजू से उसके लिए अपनी दोनो बाहें पसारे
तब ही वो आहिस्ता से उसमें जज्ब हो
इसी सुख के लिए बूंदे तीन चौथाई समय सब्र किये रहती हैं,
प्रकृति जब बहुत खुश होती है तो मेहर करती है
इतनी हसीन गुस्ताखी करती है कि जी चाहता है उसे चूम लूं
अंकवार की जाती हैं तब वो सभी यादें जो बाकी वक्त एक किस्म के पर्दे के पीछे महफूज सी रही हैं
कि बारिश मुक्त इजहार का मौसम है
सब कुछ कह देने सुन लेने और लिखने का मौसम
कि स्याहियां हरियाली मुहैया कराती है और कलम धड़कन
मन पन्ना होता है ,
भीगी गौरैया जो भटककर खिडकी पर आ बैठे
दिल धक्क हो जाता है
हथेली की गर्मी उसके कांपते पंखों में भरने को मन कैसा तो बावला हो उठता है
पर कदम आगे नहीं बढते पत्थर हो जाते हैं
जैसे पत्थर हो गई थी शाम एक रोज
जैसे पथरा गई थी देह एक रोज,
बार बार के शिकवे अच्छे नहीं लगते जानती हूँ
पर थमी हुयी तकलीफ भी तो अच्छी नहीं होती न
गुलमोहर के नीचे से गुजरते हुये गिरे हुये फूल चुनती हूँ
फुनगियों को सटाकर विरूद्ध खींचना होता है कि जो बच जाये वही जीता
इस खेल में हमेशा हारते हुये भी मन खुश ही हुआ कि कोई कहीं बिलकुल ठीक है
सुखी
और मेरा सुख तो टूट जाने में ही है
कि प्रेम कभी अखंड नहीं होता इसलिए विस्तृत और गहन होता है,
बारिशें शुकराना हैं
कि सलाम पहुंचे उन तक जो न जाने कहाँ हैं।

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