Wednesday 22 January 2020

बनारस

यूँ तो बनारस से नाता बचपन से रहा और माँ गंगा का सानिध्य भी उतना ही पुराना पर जब बनारस में पढ़ने आई तो परिचय कुछ अलग और नए तरीके से हुआ ...दरअसल बनारस वो जगह है जहां आप भीड़ में भी अकेले हैं और अकेलेपन में भी पूरा बनारस समोए हैं ...कम से कम मेरा अनुभव तो यही रहा और स्मृतियों में भी यही ताज़ा है ...उस उम्र में भी मैंने बनारस अकेले टटोलने की कोशिश की...अकेली घूमी और बिना किसी संगी साथी के कई एक बार पूरा पूरा दिन दशाश्वमेध घाट पर अकेले गुजारा है ...उसे महसूस किया है ...गंगा की लहरों को महसूस किया है ...उसकी नीरवता ..उसका एकांत ...उसकी सहजता और उसका गाम्भीर्य भी ...कई बार यूँ लगा जैसे एक पल में हम दोनों आपस में बदल गए और अगले ही क्षण वापस लौट भी आये ....वहां बैठे बैठे अनेकों बार मैंने अपने जीवन को उससे जोड़कर उसके साथ जीने की कल्पना की है और उतनी ही बार अपनी मृत्यु को भी सामने देखा है ...भीतर मृत्यु और उससे सम्बन्धित सभी प्रक्रियाएं घटती रहती थीं ...मै उनसे गुजरती रहती थी और फिर पुनर्जन्म का भी भास् होता ...अब यकीन नहीं होता कि मेरे अन्दर इस कदर एकांत था और कल्पनाओं की इतनी जीवंतता थी कि मै उनमे डूबकर चुपचाप रोने लग जाती थी ...फिर खुद ही चुप और शांत भी | उस समय वहां एक चायवाला हुआ करता था जहाँ 2-३ चाय मै पिया करती ...एक रोज़ बोटिंग करते हुए मणिकर्णिका घाट के सामने से गुजरी तो कुछ पुराने मतलब काफी पुराने दोमंजिला घर दिखे जो खाली से ही थे ...मैंने नाव वाले से जब उसके बारे में पूछा तो उसने कुछ स्पष्ट नहीं बताया ...शायद मेरे यानी कि एक कमउम्र लड़की के सामने वो इस बात को कहना नहीं चाहता रहा होगा पर जोर देने पर उसने कहा कि अरे , उ तो डेरा है ...डेरा यानि मकान ...मैंने पूछा किसका तो उसने कहा विधवा लोगन का ...मैंने कहा मतलब ..तो उसने कहा कि अरे बिटिया ...जऊन लोग विधवा होई जात हैं उ इहाँ रहत रहें ...बाद में बुढाई पर आवन लगीं कहे से कि कहल जात रहा कि इहाँ मरले पर सरग मिली ( मतलब यहाँ मरने पर स्वर्ग मिलता है ) ...मै सन्न हो गयी फिर वो अपनी ही धुन में बोलता रहा कि अब तो सालन से इ बंद पडा है ..अब कोई नहीं आवत | मै देर तक उस मकान की तरफ देखती रही और सोचती रही कि कैसा रहा होगा उनका जीवन ...कितनी मुश्किलें ...अनगिनत प्रतिबन्ध ,तमाम प्रताडनाएँ ,तिरस्कार और भी ढेरों मुश्किलों के बीच अपने मन को मारकर ...इच्छाओं को घोंटकर किस तरह उम्र काटी होगी उन्होंने ...किस तरह जी पायी होंगी वो ...किस तरह इतने सारे असुविधाओं ...असम्मान और बिना किसी पहचान के वो जीवन को घसीटते घसीटते एक दिन ख़त्म हो गयी होंगी ...क्या उनके परिवारों को पता चला होगा या अगर पता चला होगा तो क्या उन्हें दुःख हुआ होगा या फिर हुआ होगा मुक्ति का भान ही शायद ...मिला होगा चैन ....क्या दुनिया में एक व्यक्ति भी ऐसा नहीं होगा जो उनसे प्रेम करता हो ...जो उन्हें चाहता हो ...जिनके लिए उनके विधवा होने से ज्यादा जरूरी हो उनका होना ...ये कोई भी हो सकता था ...माँ पिता भाई बहन दोस्त बेटा बेटी या कोई प्रेमी ...क्या सच में उनका कोई नहीं रहा होगा ....आखिर कैसा है ये हमारा समाज जो इस तरह की परम्पराओं के कोढ़ को पालता रहता है और पालते हुए भी खुश रहता है ...आगे बढ़ता है और अपने आप को गौरव मयी सभ्यता संस्कृति का वाहक मानता है ....छी ...धिक्कार है ऐसे समाज पर जो अपनी माँ बहन बेटियों के प्रति ऐसी भावना रखता है ...इस कदर असंवेदनशील है ....यकीन मानिए हफ़्तों ,महीनो ये बात मुझे परेशान करती रही ...चुभती रही | सालों बाद सुना कि दीपा मेहता की एक फिल्म है ..वाटर ...जो इसी विषय पर है ...फिर पता चला कि भारत में बैन हो गयी है पर ऑस्कर के लिए नोमिनेट हुयी है ...जिज्ञासा बढ़ी पर देखना संभव नहीं हो पाया ...आज फिल्म देखि और एक एक दृश्य मानो कटार .....ओह्ह जीवन के कितने छोटे छोटे सुख कि जिसका आमजन ख्याल भी नहीं करते वो उनके लिए उम्र भर की तृषा है ...चाहना है ...एक लड्डू जो बूढी मरणासन्न महिला के लिए पूरे जीवन का एकमात्र सपना है ...जहां मुस्कुराना मना है ...प्रेम सख्त मना है ...बल्कि मना ही नहीं वो अपमान है तिरस्कार का सबब है उनके लिए पर सेक्स के लिए उनका उपयोग भले ही ढके छिपे तौर पर लेकिन मान्य है ...स्वीकार्य है ...यहाँ तक कि उसके लिए सात साल की बच्ची का भी उपयोग किया जा सकता है ....आह ...क्या सच में कहीं इश्वर था उस वक्त ...क्या वो सो रहा था ...या फिर बहरा हो गया था ...उसकी दृष्टी चली गयी थी कि वो भी मृतप्राय था उस वक्त ..उसे इनकी पीड़ा ..इनका अपमान तिरस्कार दिखाई नहीं दिया ...सुनाई नहीं पडा ...महसूस नहीं हुआ ...अगर नहीं तो ये कैसे कर पाई उसपर भरोसा ..कैसे रख पाई उनसे उम्मीद ...किस तरह बची रह गयी इनकी आस्था .....अंत तक तो आँखें भर ही आयीं ...गला घुटने लगा ....
फिल्म की कहानी लगभग 80 वर्ष पुरानी है पर हो सकता है आज भी कहीं इनके पदचिन्ह ताज़ा हों ....समाज में औरतों के दुःख और उनके तिरस्कार के चरम को यदि जानना और महसूस करना है तो इस फिल्म से रूबरू होइए |

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