Wednesday, 22 January 2020

अजनबी

अपनी अस्वीकृति और हो सके तो कठोर अस्वीकृति दो मुझे
छूटना सहज नहीं पर अब वक्त हो चला है साथी
अब वक्त हो चला है कि हम अपनी अपनी आत्माओं पर अलग अलग गीत लिखें
अलग अलग राग रचें
अब वक्त हो चला है कि समय का एक छोर तुम थामो दूसरा मैं,
प्रेम धूमिल नहीं होता न हो सकता है
जैसे धूमिल होती है वीणा न कि उसकी टंकार
जैसे धूमिल होती है बाँसुरी न कि उसके स्वर
कि जैसे एक वक्त के बाद धूमिल हो जाता है स्पर्श न कि उसकी अनुभूति,
प्रेम गुफाओं में धरी आदिकालीन वस्तु नहीं जिसे अन्य को सौंपा जा सके
प्रेम देह में उठती मीठी पीड़ा भर नहीं जिसे संसर्ग से मिटाया जा सके
प्रेम तो भित्तियों पर उकेरी वो कथा है जो सदियां पूरे जतन से सुरक्षित रखती हैं ,
खंडहरों से अश्रु टपकते देखा है कभी
या कभी सुना है किसी स्तब्ध निशा में रूदन के भटके हुये कुछ स्वर
यदि नहीं तो अपनी आँखें और अपने कान खुले रखो साथी
कि ऐसे ही वीरानों में गूंजती है आवाज
चलो इक बार फिर से अजनबी बन जायें हम दोनों।

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