Wednesday 22 January 2020

पीड़ा

पीड़ा कहीं गहरे एक बीज है
सुख के पलों से छिटककर नीचे गिरा एक अकेला बेसहारा होनी अनहोनी की आशंका से घबराया बीज
जैसे एक अनाथ क्रोमोजोम ,
मन का कोख इसे थामकर सहेज लेता है
इसकी सुरक्षा के लिए इसे अपनी आत्मा का खोल देता है
जतन से इसे खुद में बो देता है
बीज सुरक्षित है वहां और अब शांत भी
कि दे सके प्रतिक्रिया
कर सके क्रीडा
निरंतर स्नेह के सानिध्य में वो खुद को विस्तार देता है
आकार देता है
चंचलता से फूटने लगता है रंध्रों शिराओं में
नसों की हर कडी में
देह भरने लगती है धीरे धीरे
और अब उसकी गंध मोहक है पवित्र है कि ये सृजन की गंध है
मृदुल कसैली
ये मौन पलों का रसमय सुख है
जो देह के विभिन्न तंतुओं को झंकृत करने की ताब रखे
उमडे आंसुओं में मोह का खाब रखे
ये एक रोज होंठों में उतर आता है
सुकून सा संवर जाता है ,
कि पीड़ा का बीज अब आकृति हो जाता है
खुद में ही खुद का साथी हो जाता है
सुख सा एकांत पलों में घुल जाता है
कि पीड़ा का सुख देवत्व का शिखर है
इसका रस अमृत का पान
पर इसकी प्राप्ति
मानो सदेह अग्नि भ्रमण
कि वही पार गया जो पार सका ।

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