Wednesday 22 January 2020

अंतर्द्वंद

उस रात मै भागना चाहती थी पर भाग नहीं पाई
पीड़ा घनीभूत हो चिपक गयी थी आत्मा से
कातर स्वर से की गयी गुहार भी फलीभूत नहीं हुयी
उसे होना था ,
उस रात कहीं कुछ नहीं बदला
न भीतर की उमस कम हुयी न चौखट ही नरम पड़ सका
बदला तो बस मन ,
समंदर पूरे उठान से अपना नमक मेरी रगों में उड़ेल गया
पर मेरे आंसुओं ने उसे तेज़ाब नहीं होने दिया
मेरे आंसू तत्वहीन थे उस वक्त ,
अशोक के पेड़ की छाया में उस रात छिटका हुआ अमलतास भी था
उसी के तले दो कदमो के पलटने की निशानी भर ज़मीन सुलगी हुयी थी
अमलतासों ने उसे करीने से उभार दिया था
खिलंदड़े पन की भी हद्द बेहद ,
उस रात एक सांस ने दूसरी सांस से ज़ख्म बांटे थे
एक सांस ने दूसरी सांस को गले लगाया था
और बाकी कि तमाम साँसे घुट गयीं थीं
सरहद ख़त्म हो गयी थी ,
सड़क के चटकने से घर की दीवारें नहीं टूटतीं
पर भरोसे के चटकने से मन जरूर टूट जाता है
ये उस रात जाना मैंने
उसी रात बेवजह लडती झगडती और फिर फूट फूट कर रोतीऔरतों के दिलों का मर्म भी जाना
ये जानना जरूरी था कि मै भी उनमे से एक होने को थी ,
जो उस रात नहीं भाग पायी तो आज तक भाग रही हूँ
कि जो भाग गयी होती तो थिर होती
शायद |

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