Wednesday, 22 January 2020

सोनभद्र

सोनभद्र का इक कस्बा कैमूर पहाड़ी के पीछे,
जैसे उजली धूप में घुलती मीठी शामें
जैसे गौरैयों का हो समवेत चहकना
जैसे सिंदूरी मौसम की थकन गुनगुनी
जैसे रातों आसमान की क़िस्सागोई,
उस कस्बे में दूर दूर तक हरियाली थी
चप्पा चप्पा फूलों के मद गंध में खोया
सडकों पर ढेरों कनेर और अमलतास गुलमोहर भी
और हेजों की लंबी कतार
काली मकोय और तितली की खातिर बच्चों का लोटपोट
ये सब कुछ था और थी बेफिक्री बचपन वाली,
एक साल जब ठंड पड़ी और कोहरे ने भी दबिश लगाई
दिल कुछ कुछ अंजान हो गया
पीर उठी मानो नस नस में घुला जायफल
या कि जैसे कई कटोरा शहद ही भीतर भीतर टहके
पीर बढी कुछ और बढी बस इतनी कि दो आंखें मन का तीर बनीं
मन घायल था और देह भी मद्धिम आंच कि जैसे बटलोई में उबले अदहन
वो प्रेम ही था कि नहीं ये मुझको नहीं पता
पर मैं मानों कि स्वप्नलोक की राह फलक से गुजरी थी
तारों का चुंबन अंक में भर चमकीली सी शहजादी थी
चिड़ियों वाली मेरी उड़ान उसके भीतर भी कौंधी थी
वो भी उलझा उलझा सा था मैं भी उलझी उलझी सी थी
फिर नींद खुली और दिखा धरातल थोड़ा टूटा फूटा सा
मैं संभल गई और जब्त किया
बस जब्त किया,
है सोन नदी से सटा वहीं पर वो कस्बा अब भी
कि नाम है जिसका सोनभद्र कैमूर पहाड़ी के पीछे
सुना किसी से उजड गया वो बिखर गया सब
सन्नाटा सा छाया है
जैसे मुझमें कि जिसको मैने जब्त किया प्रतिबद्ध किया मन के भीतर।

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