समाधि की मुद्रा में बैठे वो
जंगल में दूर से निहारती जिन्हें मैं
रच लेती दिव्य संग साथ
टूट जाता स्वप्न फिर देख सन्यासी उन्हें
कुढ कुढ कर करती घाव मिट्टी भर
रक्तिम अंगूठा ....मन हाहाकार
करता चीत्कार
हा ईश्वर
मेरा... बस मेरा ही क्यों न हुआ
मेरा प्रिय।
जंगल में दूर से निहारती जिन्हें मैं
रच लेती दिव्य संग साथ
टूट जाता स्वप्न फिर देख सन्यासी उन्हें
कुढ कुढ कर करती घाव मिट्टी भर
रक्तिम अंगूठा ....मन हाहाकार
करता चीत्कार
हा ईश्वर
मेरा... बस मेरा ही क्यों न हुआ
मेरा प्रिय।
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