बिखरी सहमी रात के सीने से होकर जो आह कयामत लिखती है
चुपके चुपके जो सिसकती है
और मस्त मलंग फकीर जो हरदम गाता है
सन्नाटा छुपकर सुनता है ,
चुपके चुपके जो सिसकती है
और मस्त मलंग फकीर जो हरदम गाता है
सन्नाटा छुपकर सुनता है ,
उन बोलों से केसर की खुशबू आती है
मिट्टी मटमैली देह की खुद केसर हो जाती है ,
मिट्टी मटमैली देह की खुद केसर हो जाती है ,
और जब मिटती है तो बीज रोपकर जाती है
उस मिट्टी में
कि जहां विदा की बेला में उम्मीद लिखा था।
उस मिट्टी में
कि जहां विदा की बेला में उम्मीद लिखा था।
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