Wednesday 22 January 2020

युद्ध

क्रुद्ध क्रंदन विवश क्रंदन रिक्त आँखें बदहवासी
और हवा बारूद है
लाश के सैलाब से उठती ठिठोली
नफरतों ने खेल ली है अपनी होली
एक बच्चा गुमशुदा बाकी के सारे गुम हुए
अपनी माओं के दुशाले में छिपे मद्धिम हुए
जानते हैं अब हंसी पाबन्द है
मुस्कुराहट पर भी ढेरों बंद है
खेलना मुमकिन नहीं
हरगिज़ नहीं अब जिद्द नहीं
स्वीकार्य बस अभिशाप का
कि ये समय अभिशप्त है ,
खून से सींची ज़मीं पर सब खिलौने
हाथ भर भर बो दिए हैं
ढांककर चेहरा ज़रा बच्चे हिचककर रो लिए हैं
पर उन्हें उम्मीद है बदलेगा मौसम
एक दिन छंट जायेंगे जब धूल के बोझिल बगूले
फिर खिलेंगे फूल लौटेंगे खिलौने
और हंसी गूंजेगी फिर से ,
पर अभी चुभती हैं माँ की सुर्ख आँखें
मौन उसका
पूछना जब चाहते हैं प्रश्न तो सब लोग हैं कहते कि केवल चुप रहो
कुछ मत कहो
कि ये बड़ी विभिषका है
मानवों की दी हुयी ये मानवों पर ही सज़ा है
टूटकर भी शब्द जो भयभीत है
कि असल जिसमे हार है न जीत है
कहते हुए उसको कि अब ये कंठ चाहे रुद्ध है
पर सच सुनो ये युद्ध है |

No comments:

Post a Comment