Wednesday 22 January 2020

इश्क की राहें

सब कुछ कितना मुकम्मिल था ,
अंधेरे की आहट, एकांत, उंचे दरख्तों का मौन
झींगुरों की शुरुआती मरमराहट
दो फूलों से सजा गुलदान
आस पास रखी मिट्टी की एक चिडिया
एक खरगोश भी
और खिड़की पर रखा कैक्टस का टूटा हुआ सा एक गमला,
कमरे में मद्धिम पीली रौशनी बिखेरता इकलौता पीला बल्ब
जर्जर सा एक पुराना टेबल, एक कुर्सी
नीली दवात -कलम व हैंडमेड पन्ने
जहाँ तहां चूना उघडी खुरची दीवारें, हल्के पीले पर्दे और
उसमें छुपाई गई गीली हथेलियों के लम्स ,
हल्के ही पीले रंग के शरारे में लिपटी वो एक साये सी घबराई
कभी चहलकदमी करती कि अचानक थम जाती
कभी बैठती कभी झटके से उठ जाती
कभी यूं ही कुछ बुदबुदाती
कभी आवाज हलक में अटक जाती
कभी पेशानी से चुनती पसीना और सीने में भीच लेती,
कि तभी खबर आयी आना मुल्तवी हो गया
ओहह... कितनी राहत है इन शब्दों में
एक ठंडी उसांस और ढीली होती हुयी देह के साथ ये खयाल चोट सा उभरा नजरों में
और फफककर बह निकला ,
इश्क में इंतजार नेमत है
कि ये जितना जियादा हो उतना ही बेहतर।

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