Wednesday, 22 January 2020

बंदिश

रिवायतों ने कसकर बांध रक्खा है मन
वरना कबके खुशबू हो जाते
यूं दरकना आदत नहीं मजबूरी थी,
चौखट के साथ ही बंधे होते हैं लड़कियों के पांव
वहीं पर धरी होती है पूरे घर के सम्मान की कोरी चुनरी
आँखों तक ढक दी जाती है
उस पर गुलाबों के दाग भी बर्दाश्त नहीं ,
गहनों का बोझ बंदिशों का शोर है
दबाव इतना कि मुस्कान देह से ज्यादा रगड़ खाई दिखे
भीड़ में विशिष्ट भी तो दिखना है
पर मन विशेष हो सके ये स्वीकार्य नहीं,
खिड़कियों की ताजी हवा जाली से छन कर आये तो ठीक
क्यूबिक एम एम के टुकड़े मुफीद हैं
उससे ज्यादा नहीं कि एक बंदिश के लिए मयस्सर सुख भी बंदिशों में ही अच्छा होता है,
वास्ता एक खिडकी का पड़ोस की दूसरी खिडकी से ही संभव है
तो वहीं खुल पाता है मन जरा सा
वहीं नजरों में गुलमोहर उतरता है
वहीं मुस्कानों के जख्म मीठे महसूस होते हैं
वहीं देह में धूप चटकती है
उसी खिडकी से आसमान रात भर तपाता है
और फिर एक रोज उसी खिड़की पर अमलतास टांक दिया जाता है
मन पीला हो जाता है,
ऐसी ही न जाने कितनी खिडकियां धरोहर हैं
प्रेम के अधूरेपन की
उनकी ही जालियों पर अरसे से एक हथेली और अनगिनत होंठ छपे हुये हैं,
अब लगातार टूटती बंदिशें
सूख चुके आंसुओं की खामोश दुआयें हैं।

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