Tuesday 23 July 2013

वसीयत

मै जा रही हूँ
इस बार ----हमेशा के लिए
पर तुम आओ
आओ कि मै देना चाहती हूँ तुम्हे अंतिम सौगात,

मै देना चाहती हूँ तुम्हें अपने वो तमाम लम्हे
जो मैंने हर रोज़ सूरज को बड़ी आस से देखते हुए काटे हैं
वो भी कि जब टिकी रहती थीं मेरी निगाहें सरहद से आने वाले रास्ते की तरफ असीम बेसब्री से
कि जहां धूप बहुत कड़ी होती है
और जहां शामें बड़ी देर तक ज़िंदा रहती हैं ,

मै देना चाहती हूँ अपनी वो अनवरत सिसकियाँ
जो कमरे में मेरी मौजूदगी भर से ही दीवारों में संक्रमित और फिर ज़ज्ब हो जाया करती थीं
कि जिनके दर्द की तपिश से ही उनमे फफोले फूट पड़े थे
ये वो सिसकियाँ हैं जो अंतस से निकली चीख की पीड़ा से पिघलकर जन्मी हैं ,

मै सौंप देना चाहती हूँ तुम्हें अपनी जिन्दगी की वो तमाम स्याहियां
जो मैंने रातों को बेचैनी से करवटें बदलते हुए बूँद दर बूँद इकठ्ठा की हैं खुद में
और जिनसे इस पूरी दुनिया में एक दिन के लिए विकट अँधेरा तक किया जा सकता है ,

तुम्हारे हिस्से धूप के कुछ वो टुकड़े भी आयेंगे
जो बीच-बीच में अनजाने ही उम्मीद की तरह मेरी आँखों में जगे थे
और चूल्हे की वो ठंडी राख भी
जहां मै देर तक सिर्फ इसलिए बैठी रहती थी कि पसीना मेरे लगातार रिसते तकलीफों की आड़ हो सके
पर जो कभी नहीं हो पाया ,

मै सौंपना चाहती हूँ तुम्हे इंतज़ार का एक लंबा ,बोझिल और मायूसियों से भरपूर सिलसिला भी
जो कभी ख़त्म नहीं होता
पर जिसके इंतज़ार में मै आज खुद खात्मे की कगार पर हूँ ,

तुम आना जरूर
कि ये तमाम सौगातें तुम्हारे नाम मेरी इकलौती वसीयत है
जिसे तुम्हें भी ऐसे ही जीना होगा ,

और अब एक दुआ भी
कि हर घटते फासले के साथ तुम्हारी तकलीफ कम होती रहे
कि इसे सह पाना आसान नहीं
इंतज़ार को जी पाने का माद्दा हर किसी में नहीं होता
हमनफ़ज मेरे !!!

अर्चना राज़

Monday 22 July 2013

प्रकृति की पीड़ा

प्रकृति
जीवंत---खुशमिजाज़
जिसकी रगों तक में किलकती थी मुस्कान ,

एक रोज़ कुछ देखा उसने और ठिठक गयी 
जंगल के ठीक सामने था एक विशाल पारदर्शी दर्पण 
बड़ी शिष्टता से अपलक निहारता हुआ ------उसे ही
उसके तीव्र नज़रों की तासीर प्रकृति में समाने लगी
आहिस्ता-आहिस्ता -------वो सिहर उठी ,

वो जब भी उसे देखती -----दर्पण हौले से मुस्कुरा देता
या फिर अपनी तीक्ष्ण-व्याकुल दृष्टि से उसे भेद देता
दोनों ही स्थितियां असहनीय थीं
पर मीठी गुनगुनी भी
कठिन था उसे सह पाना
पर नितांत असंभव भी -------विलग होना ,

जाने कैसे प्रकृति दर्पण संग एकाकार हो गयी
निःशब्द -------अछूती
बेचैनी इतनी कि सम्पूर्ण कोशिश भी हार जाती संयम में 
पर फिर उतनी ही तीव्रता से अनुभव होता ---खुद का लगभग अपरिचित होना भी
दोनों फिर दो इकाई से हो जाते ,

सालों बाद एक दिन दर्पण से आंसू टपका
मोहाविष्ट सी प्रकृति स्तब्ध रह गयी
दर्पण अचानक ही फट पडा --गगनचुम्बी विस्फोट के साथ
किरचियाँ दूर-दूर तक बिखरीं -----पर अधिकांशतः प्रकृति की नसों में ,



अब उसने जाना कि  ये एक स्वप्नदर्पण था
समाहित होने की चेतना के साथ ही बिखर गया
पर फिर भी जीवित ही रहा उसमे
ये सत्य पूरी क्रूरता और निर्ममता के साथ उसमे पसरने लगा
प्रकृति की पगडंडियाँ अब पथरीली और काँटों से भरी होने लगीं ,


एक रोज़ उसे अपनी पगडंडियों में विचलन नज़र आई 
मिटटी में असंख्य दरारें थीं 
इनमे किर्चियों के आंसू मिली हल्दी जैसी रंगत वाले अनगिनत बीज थे 
अपना पूरा विस्तार चाहते थे ,

खालीपन की पीड़ा से जूझती प्रकृति ने शीघ्रता से उन्हें खुद में बो दिया
भरते जाने के अजीब से सुकून के साथ
बेशक इसके लिए उसे खुद को लहुलुहान ही क्यों न करना पडा
ज़ख्म रिसता रहा -----बीज पनपता रहा
और अब एक सुनहरी लता आकार ले रही थी
अपनी सम्पूर्ण सुन्दरता और विलक्षण गुणों के साथ
ये अमर बेल थी ,



इसका  निरंतर विस्तार प्रकृति के लिए घातक था
वो छटपटाती रही
असीम बेचैनी ----अथाह तकलीफ
पर मौन भी  ------अनंत
वो सहती रही ----कि बड़ी राहत थी इसमें
ज़िंदा रहने की एकमात्र वजह भी ,

कुछ दिनों बाद उसे संजीवनी का एक पर्वत नज़र आया
जीवन की समस्त उर्जा से भरपूर
अपनी हथेलियाँ उसकी ओर बढाए ---- बड़ी उम्मीद से ,

इस बार प्रकृति बड़ी संजीदगी से नियंत्रित रही
कि एक तकलीफ अब भी पल रही थी उसमे
कि किसी का होना उसमे अटक गया था
कि अपने खालीपन की पीड़ा से उसे एक खुशबू सी आती थी
अजनबियत के तमाम दावों को खारिज करके
जो बड़ी जानी-पहचानी सी थी ----खुद की साँसों में घुली हुई सी ,

पर्वत की सज्जनता उसमे अपराधबोध जगा रही थी
पर चाहकर भी वो अपनी नसों में पनपती अमरबेल को नहीं उखाड़ पायी
कि एक के स्पर्श की चाहत दूसरे के स्पर्श के दरमियाँ किर्चियों सी ज़िंदा रही !!




















Thursday 18 July 2013

रेत

वक्त रेत सा नहीं होता ----------- रेत हो जाता है -------- जब दरमियाँ खामोशी बर्फ हो --जो खुद कभी पिघलती नहीं और एहसास भी गूंगे रह जाते हैं ------

उसकी पीठ पर मेरी नज़रें अब भी जल रही हैं किसी फसाने की तरह ---- शायद नज़्म का इंतज़ार उसे भी था पर उसकी आँखें मै पढ़ नहीं पाई क्योंकि उसमे अब्र और जंगल दोनों एक साथ थे ...... समानान्तर -----

इकाइयों मे संगीत नहीं गूँजा करता ..... रुदन फूट पड़ता है बस बड़ी शाइस्तगी से -----

कभी लौट कर आना तो यूं करना
मेरी तराशी चाहतों को गुलाब करना
वरना उम्र इस कदर भी बोझिल नहीं
कि इंतज़ार मेरे इश्क पर भारी निकले !!

सामर्थ्य और दायरे





सूरज की पहली किरण ने  जब बर्फ की चादर को हौले से सहलाया तो उसके अपने पन की मुलायम तपिश से बर्फ बेसाख्ता पिघल उठी ..जब उसके अंदर की खूबसूरती बूँद - बूँद बिखरने लगी तो लगा जैसे सारी कायनात मुस्कुरा उठी हो ..पक्छी भी अलसाए से उठने लगे ..जनजीवन भी धीरे - धीरे सक्रीय होने लगा .

सूरज मुग्ध आँखों से अपनी प्रियतमा को निहार रहा था ...उसी वक्त एक बच्चा वहां आया ...उसने बर्फ का गोला बनाकर हवा में उछाल दिया ...फिर उसने एक बर्फ की मूरत बनाई ..खुश होकर देखता रहा ..

बर्फ ने मुस्कुराते हुए पूछा --क्या तुम्हे मेरे साथ खेलना अच्छा लगता है ?

बच्चे ने वैसी ही भोली सी मुस्कान के साथ जवाब दिया --मुझे बहुत अच्छा लगता है तुम्हारे साथ खेलना .

बर्फ ने फिर पूछा -- तुम्हारा कोई दोस्त नहीं है?

बच्चे के चेहरे पर से हलकी मायूसी झलकने लगी -- नहीं मेरा कोई दोस्त नहीं है ..सभी मुझसे बड़े हैं ..कोई भी मुझे अपने साथ                                                            खेलने नहीं देता .

बर्फ ने उसे समझाते हुए कहा ---  कोई बात नहीं..तुम रोज यहाँ आया करो और मेरे साथ खेला करो ..जब तक तुम्हारा मन करे.

बच्चा खुश हो गया ..बोला--सच  ?

बर्फ ने मुस्कुराकर जवाब दिया --- हाँ ...बिलकुल सच .

पर अचानक ही बच्चा फिर उदास हो गया ..बोला-- रोज तो नहीं आ सकता .

बर्फ ने पूछा --क्यों

बच्चा बोला --- माँ नहीं आने देंगी ..यहाँ दूर पड़ता है ..मै घर के पास ही खेलता हूँ ..वैसे भी यहाँ खेलूँ या वहां खेलूँ .खेलना तो मुझे                    अकेले ही है न ..तुम तो मेरे साथ खेल नहीं सकती ..है न ?

इस बार बर्फ चुप रही
कुछ नहीं बोली
बस चुपचाप बच्चे की मासूमियत में कही गयी बात को सोचती रही ..
बच्चे ने कुछ देर तक जवाब का इंतज़ार किया फिर धीरे-धीरे वो भी वहां से चला गया.
ऐसा लगा जैसे अचानक ही दोनों को अपनी अपनी सामर्थ्य और दायरे का ज्ञान हो आया हो .

सूरज अब भी मुस्कुरा रहा था ..पर अब उसमे कुछ गंभीरता भी थी ..क्योंकि ये बात तो उसके लिए भी उतनी हा सच थी...सच है प्राकृतिक तौर पर हमें चाहे जितना  भी सामर्थ्य मिला हो पर साथ ही हमारे कर्तव्य भी निश्चित हैं एक विशेष परिधि के भीतर ......!!


     
अर्चना राज !!






mamma dis is worthless !!






नागपुर में book exibition लगा है ..स्वाभाविक तौर पर मै भी गयी ..कुछ निराशा ही हुई क्योंकि ९०% पुस्तकें या तो मराठी में थीं या फिर बच्चों के लिए ..मेरी ही गलती मानती हूँ की मुझे मराठी पढना नहीं आता ..खैर किताबों को देखते हुए एक किताब पर नज़र पड़ी
anything for u mam...by tushar raheza..
कुछ अलग सा नाम लगा .मैंने देखा तो आईटी स्टुडेंट की लिखी बुक थी ..मुझे लगा चेतन भगत जैसी ही होगी ..आखिर तो वो भी एक आईटी स्टुडेंट ही हैं ...वैसे भी आजकल कुछ अलग तरह के नामो वाली किताब लिखने का मानो  ट्रेंड ही चल गया है ..मैंने भी खरीद ली ..ऑफ़कोर्से कुछ और किताबों के साथ..!!

                       
घर वापस आने पर मेरी बेटी ने जो 12th में है ;सारी किताबें मुझसे लीं जो उसके प्रिय कामो में से एक है और देखने लगी ..उसे भी पढने का शौक है ..इस बुक को देखकर उसने कहा ..ये बुक क्यों ली आपने ..its not good for u ...u wont like it ...मेरे पूछने पर उसने बताया की ..ये मेरी फ्रंड ने पढ़ी है ..उसने बताया की अच्छी नहीं है..मैंने कहा कोई नहीं ..पढ़ कर देखते हैं ..!!

                     
मैंने बुक पढना शुरू किया ..यकीन मानिये कभी कभी हलकी फुलकी कहानियां भी अच्छी लगती हैं ..book adventurous थी ..लेखक के साथ साथ मुझे भी लग रहा था बार बार कि काश उसका काम बन जाए ..पूरी पढने के बाद अच्छा ही लगा ..हल्का सा महसूस हुआ ..कभी कभी कोई कहानी आपको अपने दिनों में ले जाती है...आप द्वारा कि गयी सारी शरारतें..सारा बचपना आँखों के सामने घूमने लगता है ..मुझे भी यही महसूस हुआ ..book की happy ending के साथ मै भी खुश ही थी पर मै इसे अपनी बेटी के सामने कभी स्वीकार नहीं करूंगी...क्योंकि आखिर तो मै उसकी माँ हूँ और माँ होने के नाते उसके सामने इस तरह की बातों को appriciate तो नहीं कर सकती न...तो सोचा आप सबसे शेयर करूं..दरअसल हम व्यक्ति के तौर पर कुछ और होते हैं और रिश्तों में कुछ और ...अगर आपको ये पसंद आया और आप सहमत हैं तो कृपया अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दें !

एक बेटी की डायरी




 

बेटी होना उस वक्त ही समझ आने लगा था जब दादी सारे फल और सारी मिठाइयाँ जाली की अलमारी में बंद करके चाभी अपने सिराहने रखा करती थीं ..अक्सर उनको कहते सुना था की ये तो मेरे पोते के लिए है ..ये क्यों खाएगी ..लड़की है पराये घर जाना है ..जीभ पर लगाम होनी चाहिए ...!! तब ये बातें पूरी तरह समझ तो नहीं आती थीं पर फिर भी आँख भर जाती थी ...माँ की आँखों में भी मायूसी उतर आती पर वो दादी से कुछ कहने का जोखिम नहीं उठा सकती थीं ..मेरी तेज तर्रार दादी का बहुत रौब हुआ करता था ..मैंने सुना है की पूरे परिवार में वो सिर्फ मेरे पिता का लिहाज़ करती थीं क्योंकि शुरू से वो उन्हें कुछ ज्यादा ही प्रिय थे और दुसरे उनकी प्रकृति बहुत गंभीर थी ..बहुत कम बोलते थे ..शायद ये भी एक वजह रही हो ...खैर मायूसी को मेरी माँ ज्यादा देर टिकने नहीं देतीं और मुझे कभी टॉफी तो कभी हलवा या फिर कभी किसी और तरीके से मना लिया करती थीं ..मै भी कुछ ही देर में सब भूल जाती ..शायद बच्ची का कोमल मन था इसलिए ..पर मेरे जाने के बाद मेरे माँ को ये बहुत कचोटता था जैसा कि वो अक्सर मुझे बाद में बताती थीं ..!

अच्छी तरह से समझ आने के पहले ही मेरी दादी गुजर गयीं ...इसलिए ज्यादा तो कुछ याद नहीं आता पर हाँ वो अक्सर मेरे बालों में तेल डालकर दो चोटी बना दिया करती थीं मेरे रोते रहने के बावजूद ..पर मै भी बहुत जिद्दी थी ..आखिर तो उन्ही दादी कि पोती थी न ..जाकर तुरंत बालों को साबुन से धो दिया करती {उस वक्त शम्पू नहीं हुआ करते थे या फिर उनका ज्यादा चलन नहीं था }.
वो बहुत नाराज़ होतीं ..माँ को सुना सुना कर बहुत कुछ कहा करतीं पर मै तो वहा होती ही नहीं थी ..दरअसल उस वक्त मै मज़े से अपनी सबसे अच्छी दोस्त को..जो मेरे घर के बगल वाले घर में रहती थी .... उनके और अपने बारे में बता रही होतो थी ..और फिर हम दोनों खूब मज़े से हँसते थे ..ये मेरा तरीका था उनसे बदला लेने का..!! बचपन शायद इन्हीं बालसुलभ हरकतों कि वजह से हमेश बहुत प्रिय होता है . पर ये भी कुछ देर ही चलता क्योंकि तभी माँ आतीं और हलकी नाराज़गी से कहतीं ..ये तुमने ठीक नहीं किया ..ये गलत बात है ..चलो दादी से माफ़ी मांगो ..मुझे बहुत बुरा लगता पर माँ के डर कि वजह से जाना पड़ता और माफ़ी भी मांगनी पड़ती .
दादी संतुष्टि के साथ मुस्कुरा देतीं और कभी अगर मन होता तो एक आध मिठाई या फल भी देतीं ..!!

शायद ये माओं का स्वाभाविक तरीका होता है बच्चों में संस्कार और अनुशासन कि भावना को डालने का जिससे हम भविष्य में बेहतर इंसान बन सकें .

   खैर दादी तो नहीं रहीं पर फिर भी एक अहसास बना रहा भाई से कमतर होने का ..बहुत चुभता था ..पर छोटी थी शायद इसलिए कुछ कह नहीं पाती थी ..कभी कहा भी तो बात हंसी में उड़ा दी गयी ..! बहुत छोटी छोटी बातें होती थीं पर बुरा लगता था ...जैसे किसी दिन दूध कम  आया तो बस भाई को मिलता था ..मुझे नहीं ..या फिर चाय बनी है तो अगर चाय में कुछ गिर गया तो मेरे पिता तुरंत कहते.. कोई बात नहीं ..तुम ये चाय ले लो वो बाद में पी लेगी ..क्यों ..और फिर मुस्कुराते हुए मेरी तरफ देखते ..मुझे बुरा लगता था .मै कहना चाहती थी कि .क्यूँ ..पर आवाज़ आती थी.. क्यूँ नहीं ..मै बाद में ले लूंगी ..मै समझदार जो थी ..और भाई के लिए तो ये करना तो स्वाभाविक ही माना जाता है हमारे समाज  में ..है न ?????

यकीन मानिये मै बुरी नहीं हूँ ..मै अपने घरवालों से बेहद प्यार करती हूँ ..बस कभी कभी जब ये सब याद आता है तो लड़की होना खल जाता है ..और एक सवाल उठता है ..क्यों ???  और इस क्यों का जवाब कभी नहीं मिलता !

 

बेटी होना उस वक्त ही समझ आने लगा था जब दादी सारे फल और सारी मिठाइयाँ जाली की अलमारी में बंद करके चाभी अपने सिराहने रखा करती थीं ..अक्सर उनको कहते सुना था की ये तो मेरे पोते के लिए है ..ये क्यों खाएगी ..लड़की है पराये घर जाना है ..जीभ पर लगाम होनी चाहिए ...!! तब ये बातें पूरी तरह समझ तो नहीं आती थीं पर फिर भी आँख भर जाती थी ...माँ की आँखों में भी मायूसी उतर आती पर वो दादी से कुछ कहने का जोखिम नहीं उठा सकती थीं ..मेरी तेज तर्रार दादी का बहुत रौब हुआ करता था ..मैंने सुना है की पूरे परिवार में वो सिर्फ मेरे पिता का लिहाज़ करती थीं क्योंकि शुरू से वो उन्हें कुछ ज्यादा ही प्रिय थे और दुसरे उनकी प्रकृति बहुत गंभीर थी ..बहुत कम बोलते थे ..शायद ये भी एक वजह रही हो ...खैर मायूसी को मेरी माँ ज्यादा देर टिकने नहीं देतीं और मुझे कभी टॉफी तो कभी हलवा या फिर कभी किसी और तरीके से मना लिया करती थीं ..मै भी कुछ ही देर में सब भूल जाती ..शायद बच्ची का कोमल मन था इसलिए ..पर मेरे जाने के बाद मेरे माँ को ये बहुत कचोटता था जैसा कि वो अक्सर मुझे बाद में बताती थीं ..!

अच्छी तरह से समझ आने के पहले ही मेरी दादी गुजर गयीं ...इसलिए ज्यादा तो कुछ याद नहीं आता पर हाँ वो अक्सर मेरे बालों में तेल डालकर दो चोटी बना दिया करती थीं मेरे रोते रहने के बावजूद ..पर मै भी बहुत जिद्दी थी ..आखिर तो उन्ही दादी कि पोती थी न ..जाकर तुरंत बालों को साबुन से धो दिया करती {उस वक्त शम्पू नहीं हुआ करते थे या फिर उनका ज्यादा चलन नहीं था }.
वो बहुत नाराज़ होतीं ..माँ को सुना सुना कर बहुत कुछ कहा करतीं पर मै तो वहा होती ही नहीं थी ..दरअसल उस वक्त मै मज़े से अपनी सबसे अच्छी दोस्त को..जो मेरे घर के बगल वाले घर में रहती थी .... उनके और अपने बारे में बता रही होतो थी ..और फिर हम दोनों खूब मज़े से हँसते थे ..ये मेरा तरीका था उनसे बदला लेने का..!! बचपन शायद इन्हीं बालसुलभ हरकतों कि वजह से हमेश बहुत प्रिय होता है . पर ये भी कुछ देर ही चलता क्योंकि तभी माँ आतीं और हलकी नाराज़गी से कहतीं ..ये तुमने ठीक नहीं किया ..ये गलत बात है ..चलो दादी से माफ़ी मांगो ..मुझे बहुत बुरा लगता पर माँ के डर कि वजह से जाना पड़ता और माफ़ी भी मांगनी पड़ती .
दादी संतुष्टि के साथ मुस्कुरा देतीं और कभी अगर मन होता तो एक आध मिठाई या फल भी देतीं ..!!

शायद ये माओं का स्वाभाविक तरीका होता है बच्चों में संस्कार और अनुशासन कि भावना को डालने का जिससे हम भविष्य में बेहतर इंसान बन सकें .

   खैर दादी तो नहीं रहीं पर फिर भी एक अहसास बना रहा भाई से कमतर होने का ..बहुत चुभता था ..पर छोटी थी शायद इसलिए कुछ कह नहीं पाती थी ..कभी कहा भी तो बात हंसी में उड़ा दी गयी ..! बहुत छोटी छोटी बातें होती थीं पर बुरा लगता था ...जैसे किसी दिन दूध कम  आया तो बस भाई को मिलता था ..मुझे नहीं ..या फिर चाय बनी है तो अगर चाय में कुछ गिर गया तो मेरे पिता तुरंत कहते.. कोई बात नहीं ..तुम ये चाय ले लो वो बाद में पी लेगी ..क्यों ..और फिर मुस्कुराते हुए मेरी तरफ देखते ..मुझे बुरा लगता था .मै कहना चाहती थी कि .क्यूँ ..पर आवाज़ आती थी.. क्यूँ नहीं ..मै बाद में ले लूंगी ..मै समझदार जो थी ..और भाई के लिए तो ये करना तो स्वाभाविक ही माना जाता है हमारे समाज  में ..है न ?????

यकीन मानिये मै बुरी नहीं हूँ ..मै अपने घरवालों से बेहद प्यार करती हूँ ..बस कभी कभी जब ये सब याद आता है तो लड़की होना खल जाता है ..और एक सवाल उठता है ..क्यों ???  और इस क्यों का जवाब कभी नहीं मिलता !



एक बेटी की डायरी -------२





कहानी को आगे बढ़ाने से पहले कुछ कहना चाहती हूँ ..मेरे कुछ अज़ीज़ दोस्तों को लगा की शायद ये मेरी खुद की डायरी के पन्ने हैं ..पर ऐसा नहीं है ...ये तो अमूमन हर लड़की की जिन्दगी का आम हिस्सा है जो उसे हमेशा चुभता है ..टीस देता है .. पर कभी संस्कारों तो कभी समझदारी तो कभी किसी और तरह के दबाव की वजह से वो कह नहीं पाती ...मैंने ऐसे ही कुछ दर्द को (जो अक्सर नज़रंदाज़ कर दिए जाते हैं ) यहाँ उकेरने की कोशिश की है ...सफलता का पैमाना तो आप लोग ही तय करेंगे !

                                                                                   धन्यवाद

अब आगे ------

आज फिर याद आती है वो एक घटना जो उस वक्त मुझे बहुत रुला गयी थी और दोस्तों की नज़रों में उभरे प्रश्न भी अपमानित करते से ही महसूस हुए थे ..दरअसल खेल कूद में मेरी रूचि थी ...स्कूल के वार्षिक खेल प्रतियोगिता के शुरूआती दौर में मै अप्रत्याशित रूप से चुन ली गयी थी ..बेहद खुश थी ...छुट्टी के बाद घर पहुंचकर हुलसते हुए ये खबर मैंने माँ को दी ..वो खुश हुईं पर मुस्कुराकर रह गयीं ..पिता और भाई के वापस लौटने के बाद मैंने ये खबर उन्हें भी सुनाई ..वो भी बस मुस्कुराकर रह गए ...शाबाशी देना तो दूर  तारीफ में कुछ कहना भी जरूरी नहीं समझा . मै मायूस हो गयी ..बाद में मैंने उन लोगों को बात करते सुना ..अरे , इसकी क्या जरूरत है ..खेल कूद कर क्या करेगी ..चोट- वोट लग गई तो ..लड़की है ..मुसीबत हो जाएगी ..बाकी कुछ भी  करे ..कल्चरल प्रोग्राम में हिस्सा ले ..ड्राइंग कॉम्पिटिशन में हिस्सा ले ..कह देना उसको...ये फरमान मेरी माँ के लिए था ..जिन्हें खुद भी ये फैसला गलत नहीं लगा था ...मैंने उनको कहते सुना था कि..अरे वो समझदार है ..मान जाएगी ..आप फ़िक्र मत करिए , सभी संतुष्ट थे इस फैसले पर सिवाय मेरे ...मुझे अपनी माँ पर बेहद गुस्सा आ रहा था कि उन्होंने भी मुझे नहीं समझा ..और दूसरा; उस दिन बहुत अफ़सोस हुआ अपनी समझदारी पर ...मै रात में रजाई के अन्दर छुपकर खूब रोई ..खूब कोसा मैंने अपने लड़की होने को उस रात ..तब शायद मै तीसरी या चौथी में थी ..बहुत बड़ी भी नहीं थी ..बड़ों का नजरिया भी नहीं समझती थी (अब समझने लगी हूँ )
अगली सुबह जब सोकर उठी तो मन तटस्थ था ..न तो बहुत उछली कूदी ..न कोई शैतानी की ..न भाई को परेशान किया ..न ही स्कूल जाने से पहले नाश्ते कि टेबल पर माँ से कोई न- नुकुर की ...बस चुपचाप सब कुछ करती रही ...भाई ने मजाक भी किया ..आज हो क्या गया है तुम्हे ..तबियत खराब  है या फिर शैतानी का कोई नया आईडिया नहीं सूझ रहा ..पर मैंने कोई जवाब नहीं दिया ... शायद वो समझ नहीं पा रहे थे कि एक ही रात में मै कुछ और समझदार हो गयी थी (?).सर को मना करते वक्त ..दोस्तों से झूठा बहना बनाते वक्त कितना अपमानित महसूस हो रहा था ..इसे कोई भाई या कोई पिता कभी नहीं समझ सकता ..उस वक्त एक बच्ची कि मनोदशा का अंदाज़ा लगाना बेहद कठिन है ..अपनी इच्छाओं को दबा देना ..दबाते और मारते ही रहना शायद किसी लड़की के जीवन में समझदारी का सोपान माना जाता है ..जो जितना ही अपना और अपनी इच्छाओं को दबाया जाना स्वीकार करती है वो उतनी ही समझदार मानी जाती है ( आखिर ये कैसी विडम्बना है ..और क्यों है ).

उस दिन के बाद  से धीरे-धीरे समझ आने लगा की मै लड़की हूँ और मुझे वही काम करने चाहिए जो लड़कियों को शोभा दे .गाहे -बगाहे सुनाई पड़ता की लड़कियां ही घर की इज्ज़त होती हैं ..उन्हीं से घर का सम्मान बढ़ता है ..कोई ऐसा काम नहीं करना चाहिए जिससे पिता,भाई या माँ की नज़रें नीची हों ..मै अक्सर मन में सोचती की सारे समाज के सम्मान का ठेका क्या लड़कियों के सिर पर ही है ..लड़कों  के नहीं ..क्योंकि भाई के लिए ऐसी बातें मैंने कभी नहीं सुनी ..जैसे रात को बाहर नहीं जाना है ..जल्दी घर आया करो ..कहाँ जा रहे हो ..क्यों जा रहे हो ...!!  हाँ ..मेरी इस बात से आप लोग ये अंदाज़ा बिलकुल मत लगाइयेगा की मुझे अपने भाई से कोई द्वेष है या माता पिता से कोई नाराज़गी है ..दरअसल हमारा परिवार बहुत खुशहाल था और है भी ..कई मामलों में तो आदर्श भी कहा जाता है ..उस बड़े परिवार वाले ज़माने में हमारा परिवार अपेक्छा कृत छोटा था ...कई दूसरे परिवारों से अच्छा माहौल था हमारे घर का ..मुझे और भाई को लगभग एक जैसा ही व्यवहार मिलता था घर में ...देखकर कोई नहीं कह सकता था की कोई भेद-भाव है ..पर था ..जिसे सिर्फ मै महसूस करती थी ..बड़ी शिद्दत से ..शायद मेरी माँ भी ..पर उनके लिए ये सामान्य था ( आज मै उनको बेहतर समझ सकती हूँ ).

         यूँ ही वक्त गुजरता रहा ..मै और समझदार होती गयी ...इसी समझदारी ने मुझे कम बोलना सिखाया (ये भी अच्छी लड़कियों की एक विशेषता है ). मै चुप रहने लगी ..लोग मुझे शिष्ट -सभ्य कहकर मेरी तारीफ करते ..मै मुस्कुरा देती ..माँ - बाप के चेहरे पर एक संतुष्टि झलकती जो कहीं न कहीं मुझे भी सुकून देती . ...पता ही नहीं चला धीरे-धीरे कैसे मै अंतर्मुखी होती चली गयी ..अपने आपको अलग करती चली गयी ..अलग मानती चली गयी ..परिणाम ये हुआ की मेरी कोई भी अच्छी दोस्त नहीं बन पायी ..कुछ भी सोचने या करने से पहले मन में यही विचार उठता की कहीं इससे मेरे अपनों को तकलीफ तो नहीं होगी ..या फिर उनकी बेईज्ज़ती तो नहीं हो जायेगी ..जब ये प्रश्न सर्वोपरि हो गया तो बाकी सारी बातें इस वटवृक्छ की छाया में दबती चली गयीं ..सारी ख्वाहिशें ..सारी उम्मीदें इस प्रश्न के साए तले पनपने से पहले ही मुरझाने लगीं.

        यहाँ एक बात और कह देना भी मुझे नैतिक तौर पर जरूरी लगता है की मेरे भाई ने मुझे हमेशा सपोर्ट  किया ; वो हमेशा चाहते थे की मै कुछ ऐसा करूँ जिससे उन्हें मुझ पर गर्व हो ..पर क्योंकि वो भी मेरे पिता की तरह बहुत गंभीर प्रकृति के थे ..शायद इसलिए कभी खुलकर कुछ कह नहीं पाए ..या फिर ये हो सकता है की वो मेरे पिता के  विचारों को समझ जाते हों और फिर मुझे प्रेरित न कर पाते हों ..जो भी हो ..उन्होंने मुझे हमेशा गाइड किया ..मनोवैज्ञानिक तौर पर वो मुझे समझते थे ..पर दुर्भाग्य से वो एक लड़की का मन ..उसका दुःख कैसे समझ सकते थे ( बहन और लड़की होने में फर्क होता है ).