Thursday, 18 July 2013

बचपन ------यादें




बचपन में क्या आपको भी गर्मी की छुट्टियों का इंतज़ार उतनी ही बेसब्री से होता था जितना मुझे . दरअसल गर्मी की छुट्टियों में हमारा मनोरंजन और बदमाशियां भी अपने चरम पर होती थीं . होता ये था की हर साल गर्मियों में हम कुछ दिनों के लिए दादा-दादी के पास गाँव जाते थे ..जिसके अनगिनत फायदे थे ...वहां मम्मी चाहकर भी किसी बात के लिए मना नहीं कर पाती थीं और हम बिलकुल फ्री होकर जो चाहे कर सकते थे ..खा सकते थे ..गैरजरूरी जिद्द कर सकते थे ..बेहिसाब बदमाशियां कर सकते थे ..और दादा-दादी को ये सब अच्छा ही लगता था क्योंकि साल भर तक तो हम जा नहीं पाते थे हाँ बेशक वो हमारे यहाँ आते रहते थे पर गाँव की तो बात ही और है न . दिन भर खेलना ..भाई बहनों के साथ उटपटांग मजे करना ..बड़ों की नज़र बचाकर दुपहर की धूप में आम तोड़ने निकल जाना और फिर वहीँ उसे ब्लेड से छीलकर नमक के साथ चटकारे लेते हुए खाना ..दिन भर यहाँ वहां तेज धूप में भटकना ..या शैतानियाँ करना और लौटते वक्त डर डर कर पिछले दरवाजे से घर में घुसना जिससे मम्मी की नज़र हम पर न पड़े पर हर बरती गयी सावधानी के बावजूद भी घर में घुसते ही सबसे पहली गुस्से से भरी नज़र उन्ही की होती और ऐसा लगता की जान सूख गयी है(तब मुझे समझ नहीं आता था की आखिर मम्मी को पता कैसे चल जाता है पर अब जब मै माँ हूँ तो उनकी फ़िक्र को बेहतर समझ पा रही हूँ ) पर एक फायदा था की दादी के रहते वो कुछ बोलती नहीं थीं ..बस जो कुछ वो कहतीं हम चुपचाप करते जाते ताकि उनको और गुस्सा न आये और हम आसानी से बच जाएँ ..अक्सर होता भी यही था ( तात्कालिक गुस्सा होने के बाद शायद वो भी हमारा बचपना समझकर हमें माफ़ कर देती थीं ..पर अगली बार फिर वही..आखिर कार आज जबकि मै खुद माँ हूँ ये बात कहने में कोई भी झिझक महसूस नहीं करती बल्कि बड़े गर्व से कहना चाहूंगी की मेरी मम्मी बहुत ही सहनशील और समझदार थीं और निश्चित तौर पर हम बच्चों का मन पढना उन्हें आता था और इसकी पूरी छूट भी हमें मिलती थी पर अनुशासन के साथ ही ).शाम को फिर वही ( क्या पुआल आपको याद है )पुआल की ढेरी पर चढ़कर उछलना कूदना ..एक ढेरी से दूसरी ढेरी पर दौड़ लगाना ( हम बाहर से जाते थे इसलिए इस खेल में भी हमको वरीयता मिलती थी और हम बड़े गर्व और अभिमान से इसे स्वीकारते थे ..बावजूद इसके की गाँव वाले भाई बहन और दोस्त हमारे लिए इतना बड़ा त्याग करते थे हम इसे अपना हक़ समझते थे ). इस खेल में मज़ा तो बहुत आता था पर एक नुक्सान भी था ..इस खेल को खेलने के बाद हाथ पैरों में बड़ी खुजली होती थी और कभी कभी तो कट भी जाया करता था जिसका एक बड़ा अच्छा उपाय हमारे गाँव वाले बड़े भैया के पास था ..वो गीले कपडे से पुछ्वाकर नारियल का तेल लगवा देते थे ..हालांकि हमारी ये शतानी भी मम्मी की नज़र में आजाती थी पर शायद ये उन्हें नज़रंदाज़ कर देने लायक लगता होगा क्योंकि इसके लिए उन्होंने हमें कभी गुस्से से बहुत घूरा नहीं बल्कि कुछ एक बार बस डांटा ही है ..शाम को लम्बी सी छत धुली जाती थी ..लाइन से चारपाइयां और बिस्तर बिछ जाता था ..कभी आम का तो कभी बेल का शरबत (मुझे बिलकुल पसंद नहीं था पर दादी के डर से पीना पड़ता था )पीते हुए दादी खूब सारे किस्से कहानिया सुनाया करती थीं ) उतना बड़ा कहानियों का खजाना संसार में किसी के भी पास नहीं है ऐसा हम बच्चों को उस वक्त लगा करता था .रात में भी खुली छत पर सोते हुए चाँद तारों के बारे में और उनसे सम्बन्धित ऋषि मुनियों के बारे में भी दादी बताया करती थी और हम सब बच्चे पूरी तन्मयता से उसे सुनते थे ( क्योंकि बाद में दादी सवाल भी पूछती थीं और जीतने वाले बच्चे को दादी के साथ तख़्त पर सोने का मौका मिलता था जो विशिष्ट माना जाता था ..दादी के पास से कितनी अच्छी खुशबू आया करती थी ..क्या आज का कोई भी fragrance उसका मुकाबला कर सकता है ..कत्तई नहीं ).और यूँ ही कहानी सुनते , सोचते ,कल्पना करते हम कब सो जाते थे पता ही नहीं चलता था . जब हम वापस लौटने लगते तो दादा - दादी और बाकी सभी उदास हो जाते थे .. हम भी ..क्योंकि फिर उसी पुरानी दिनचर्या और माहौल में लौटना होता था और तकरीबन एक साल तक गाँव और उसके साथ जुडी मस्ती शैतानियाँ और बेफिक्री से दूर होना पड़ता था .बचपन कब गुजर गया पता ही नहीं चला ...अब न वो पहले जैसे गाँव रहे न ही वैसी बेफिक्र मस्तियाँ ..न ही दादा दादी और उनके साए में मिलने वाला सुकून ..न दादी की कहानियां और न ही उनकी वो अनमोल खुशबू ..पता नहीं बचपन इतना जल्दी क्यों गुजर जाता है !

क्या आज के बच्चे उस माहौल को उसके सुख को महसूस कर सकते हैं या फिर उसकी गरिमा या उसके महत्व को समझ भी सकते हैं ..कभी कभी बड़ा अफ़सोस होता है की हमारे बच्चे लगभग एक मशीनी युग में जी रहे हैं और हम चाहकर भी उनका परिचय देशी आबो हवा से नहीं करवा सकते .शायद हर पीढ़ी के माँ बाप कुछ ऐसे ही एक अफ़सोस के साथ जीते रहते हैं !

अर्चना "राज "



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