Tuesday 22 July 2014

नींद

नींद हिस्सों में आती है
क़र्ज़ की तरह ,

एटीएम मयस्सर नहीं यहाँ
कि जितना चाहा बटोरा
और छक के सो गए ,

चाँद के कटोरे में !!

प्रेम

मै चुप हूँ कि शोर ज्यादा है यहाँ ,

रौनकों का शहर है
संजीदगी नहीं पायी जाती ,

मेरी उदासियों में भी तासीर जिन्दा है मगर
उसी को ढूंढ लेती है
जो मुझ सा दिखता है यहाँ ,

कोई दिल्लगी कहता है
हिकारत से
तो कोई महसूसता है
सिहरकर
फिर कह उठता है
प्रेम इसे ,

प्रेम और उदासियाँ साथ-साथ पलती हैं
खिलखिलाहटों से बहुत परहेज़ है इसे अब भी !

सृजन

सपनो का टूटना फ़िक्र की बात नहीं
टूट ही जाते हैं अक्सर ,

इनका पलना जरूरी है
कुंद होने से बचने की खातिर
इनका बिखरना भी उतना ही जरूरी है
कि हर सृजन की शुरुआत
टूटे स्वप्न की बदसूरत किर्चियों से ही होती है ,

समेटने में हथेली ही नहीं सीना भी छलनी हो जाता है
सुर्ख धार दर्द की कलम के हिस्से आती है
फिर लिखा जाता है कोई सूत्र वाक्य जीवन का
अपनाया जाता है
व्यक्ति तब बनता है इन्सा सही मायनों में
हर तकलीफ और दर्द की सतह से ऊपर
रचता हुआ जिन्दगी का काव्य-गद्य!!

मृत्युगंध

मृत्युगंध तीव्र है
चुम्बकीय भी ,

सावधान मनुष्य
उम्र तनिक भी जाया न हो,

सत्य व् असत्य दो पहलू भर हैं
मात्र जीना ही सुखद है
सुंदर भी ,

सम्पूर्ण हो ये आवश्यक है
जीवन हेतु
स्वयं हेतु !!

मुल्तवी

चाँद सहमा रहा बादलों में
जैसे बूँदें चिपक गयी हों हथेली से
हवाओं में थरथराहट कंपकंपा उठी
सीने में बेचैनी
प्यास उतर आई रूहों तक
पर मिलना फिर मुल्तवी हो गया
जो उसने कहा
मै लौट कर आता हूँ !!

सज़ा

एक टुकड़ा उदासी तुम्हें देती हूँ
नोंचकर खुद से ,

जियो इसे और जानो
मेरी उम्र की वो इबादत
जो तुम्हारे बगैर तुम्हारे साथ
पूरी की मैंने !!

नाम

यूँ लगता है हथेली में शाम उतर आयी है
कुछ गुनगुनी
कुछ महकी -महकी सी ,

हवाएं बरबस ही चंचल हो उठी हैं
मौसम आवारा ,

कि मानो इनको भी भनक लग गयी हो
मेरी लकीरों में
अनायास ही छुपाये गए
उनके नाम के पहले अक्षर की !!

चुनाव

प्रेम रक्त कण सा
तुम देह भर ,

चुनाव सहज नहीं
पर ह्रदय में धार है दर्द की
मैंने प्रेम चुना ,

तुम अब भी वांछनीय
महत्वपूर्ण
पर इतना नहीं कि मर जाऊं तुम्हारे बिना !!

आवश्यकता

रचने के लिए आवश्यक हैं पात्र
भाव से परिपूर्ण
बेशक समाप्ति पर तोड़ना ही क्यों न पड़े ,

अनेक कालजयी रचनाएं स्थापित हैं अब भी
लथपथ ह्रदय पर
आगे भी क्रम निरंतर होगा
आगे भी आंसू लहू होगा !!

प्रेम पुनः

जब भी मेघ बरसे
धो लो अंतर्मन
जीवन ,

कर लो साफ़ सुथरा
चमकदार ,

कि हो सके फिर से नया प्रेम
हर बार !!

विद्रोह

सिगरेट शराब देह तुम्हारे लिए ही क्यों सुविधाजनक हो
ओ पुरुष ----मेरे लिए क्यों नहीं
कि अब जियूंगी मै भी स्त्री जीवन की तमाम वर्जनाओं को
खुलेआम ,
प्रकृति इच्छाओं में भेद नहीं करती
फिर समाज क्यों
कि यदि नैतिक हो तो सभी के लिए
अनैतिक भी तो सभी के लिए
बिना किसी भेद के ,
दुभाषिये के चश्मे से मापदंडों को अस्वीकार करती हूँ
तुम भी करो स्त्री
बढ़ो एक कदम और बंधन मुक्ति की राह में !!