Friday 13 February 2015

तीन कवितायेँ

वर्जनाओं से परे भी जीवन है
दरअसल वर्जनाओं से परे ही जीवन है
वर्जनाएं कुंठित करती हैं
बाधित - अवरोधित करती हैं समरसताओं को
स्वाभाविकताओं को 
पनपने लगती है व्यर्थ किस्म की निष्क्रियता
जकड़ लेती है जीवन को कसकर
श्वांस को भी
जकड़ती रहती है तब तक
जब तक कि उसकी मृत्यु न हो जाए
पर मार नहीं पाती उसे
क्योंकि तब भी बची रह जाती है एक बूँद ख्वाहिशों की
तृष्णा की
यहीं से महसूस होता है खुद का जिन्दा होना खुद को ,
संस्कारों
तुम चाहो तो मुझे चरित्रहीन कह सकते हो
किन्तु अब मै मुक्त हूँ तुमसे !!


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पागल मनवा तोड़े है भीतर ही भीतर 
हर आला हर ताला 
खोल के झटपट फिरा करे है इहाँ उहाँ 
होके मतवाला ,
मार झपट्टा पकड़ के जुगनू मुट्ठी भर 
खूब हँसे है खिल खिल खिल खिल पेट पकड के
छाय रही घनघोर उदासी चिहुंक उठी जब देखे उका
आंखन में भर भर उजियारा
आँचल में से खोल के कुंजी पकड़ के नटई ठूंस दिया फिर वापस उका
जैसे हो भूसा का गारा
एक एक कर फिर लगई रही ताले पर ताला खूब ठुनककर
पैर पटककर
अब निकलो
अब निकलो तो देखूं तोका
कैसे बाहर अब आवत हो
कैसे सबसे बतियावत हो
कैसे खुशियों को चिरिया का बान धराकर
हाथ पकडकर मुस्कावत हो
इहाँ हमारा राज़ चलत है
बात चलत है
चलत है हमरी ही ठकुराई
कहकर बुढ़िया बनी उदासी बईठ रही
ख़म ठोक के मन के दरवज्जे पर !!



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बेहद सीली सी रातों का जाम पड़ा है 
और पडी है ढेरों सी पीली तन्हाई 
ज़ख्म रखे हैं पहलू के खाली हिस्से में 
टीस रहा है कुछ रह रहकर 
यूँ कि जैसे अमलतास पर कोई चिड़िया फुदक रही हो 
चहक रही हो छाल को उसके रेशा करके
रेज़ा करके
सिसक रहा है कोई बाँहों के घेरे में अर्धचन्द्र सा
मुट्ठी बांधे तारों की
इसे घोलकर पारे सा जो पी जाऊं मै
जी पाऊं फिर सारी रातों का कुछ हिस्सा
जी पाऊं फिर ओर छोर तक प्रेमिल किस्सा
खुद को भी मै प्रेम बना लूं
कर पाऊं जो !!




























Thursday 12 February 2015

एक बार फिर


नीला पानी अक्सर भूरा नज़र आता है 
सलेटी भी 
तलछट टूट टूटकर घुलती जो रही है अनवरत , 

यूँ तो समंदर शांत ही था कभी 
मौन सहज 
पर अंतस की वेदना उबलती रही शताब्दियों तक 
भीतर ही भीतर 
चरम वेदना के प्रसव से जन्मा फिर 
बेचैन ह्रदय का आदिशिशु 
फिर जन्मी क्रमशः एक यात्रा युवा होने की 
कुछ और युवा 
कि रच सके शहद सरीखी साँसों से मीठा आफताब 
कर सके रचना सुन्दर महकते स्वप्न की 
गढ़ सके शिल्प अपार मानवता के 
एकत्रित कर सके रेतयुग्मों को भविष्य के टाल हेतु ,

हर कोशिश निरंतर कुछ और थका देती 
निचोड़ती रहती अंतस का रस तब तक 
जब तक की संवेदनाएं 
शून्य की परिधि के भीतर सिमट नहीं जातीं 
हौसले की सतह खो नहीं जाती 
ख्वाहिशों की पोटली गल नहीं जाती ,

अंततः समन्दर का शहद धीरे-धीरे नमक होने लगा 
युवावस्था ज़र्ज़र रोगयुक्त वृद्ध 
इस तरह नियति ने अपना ने रंग बदला ,

परन्तु नियति फिर रंग बदलेगी 
फिर जन्मेगा कोई महान आदिशिशु 
युवावस्था के ज़ज्बे से 
करने परिवर्तित अतीत की असफलताओं को 
नीले पानी की आत्मा पर लिखेगा 
सुदर प्रेमयुक्त जीवन समस्त ह्रदयों के लिए 
तब समन्दर एक बार फिर गमक उठेगा 
मीठेपन की सोंधी गंध से !!