Tuesday 23 July 2013

वसीयत

मै जा रही हूँ
इस बार ----हमेशा के लिए
पर तुम आओ
आओ कि मै देना चाहती हूँ तुम्हे अंतिम सौगात,

मै देना चाहती हूँ तुम्हें अपने वो तमाम लम्हे
जो मैंने हर रोज़ सूरज को बड़ी आस से देखते हुए काटे हैं
वो भी कि जब टिकी रहती थीं मेरी निगाहें सरहद से आने वाले रास्ते की तरफ असीम बेसब्री से
कि जहां धूप बहुत कड़ी होती है
और जहां शामें बड़ी देर तक ज़िंदा रहती हैं ,

मै देना चाहती हूँ अपनी वो अनवरत सिसकियाँ
जो कमरे में मेरी मौजूदगी भर से ही दीवारों में संक्रमित और फिर ज़ज्ब हो जाया करती थीं
कि जिनके दर्द की तपिश से ही उनमे फफोले फूट पड़े थे
ये वो सिसकियाँ हैं जो अंतस से निकली चीख की पीड़ा से पिघलकर जन्मी हैं ,

मै सौंप देना चाहती हूँ तुम्हें अपनी जिन्दगी की वो तमाम स्याहियां
जो मैंने रातों को बेचैनी से करवटें बदलते हुए बूँद दर बूँद इकठ्ठा की हैं खुद में
और जिनसे इस पूरी दुनिया में एक दिन के लिए विकट अँधेरा तक किया जा सकता है ,

तुम्हारे हिस्से धूप के कुछ वो टुकड़े भी आयेंगे
जो बीच-बीच में अनजाने ही उम्मीद की तरह मेरी आँखों में जगे थे
और चूल्हे की वो ठंडी राख भी
जहां मै देर तक सिर्फ इसलिए बैठी रहती थी कि पसीना मेरे लगातार रिसते तकलीफों की आड़ हो सके
पर जो कभी नहीं हो पाया ,

मै सौंपना चाहती हूँ तुम्हे इंतज़ार का एक लंबा ,बोझिल और मायूसियों से भरपूर सिलसिला भी
जो कभी ख़त्म नहीं होता
पर जिसके इंतज़ार में मै आज खुद खात्मे की कगार पर हूँ ,

तुम आना जरूर
कि ये तमाम सौगातें तुम्हारे नाम मेरी इकलौती वसीयत है
जिसे तुम्हें भी ऐसे ही जीना होगा ,

और अब एक दुआ भी
कि हर घटते फासले के साथ तुम्हारी तकलीफ कम होती रहे
कि इसे सह पाना आसान नहीं
इंतज़ार को जी पाने का माद्दा हर किसी में नहीं होता
हमनफ़ज मेरे !!!

अर्चना राज़

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