Thursday, 18 July 2013

रेत

वक्त रेत सा नहीं होता ----------- रेत हो जाता है -------- जब दरमियाँ खामोशी बर्फ हो --जो खुद कभी पिघलती नहीं और एहसास भी गूंगे रह जाते हैं ------

उसकी पीठ पर मेरी नज़रें अब भी जल रही हैं किसी फसाने की तरह ---- शायद नज़्म का इंतज़ार उसे भी था पर उसकी आँखें मै पढ़ नहीं पाई क्योंकि उसमे अब्र और जंगल दोनों एक साथ थे ...... समानान्तर -----

इकाइयों मे संगीत नहीं गूँजा करता ..... रुदन फूट पड़ता है बस बड़ी शाइस्तगी से -----

कभी लौट कर आना तो यूं करना
मेरी तराशी चाहतों को गुलाब करना
वरना उम्र इस कदर भी बोझिल नहीं
कि इंतज़ार मेरे इश्क पर भारी निकले !!

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