Wednesday, 22 January 2020

लंका

लंका की चहलकदमियां स्मृतियों की निधि है ,
कि जब टूटे फुटपाथ भी सुंदर लगे थे
हास्टल के ऊबे हुये लड़के लड़कियों की चुलबुली तिरछी नजरें मीठी हंसी
और झूठ मूठ को तरेरती भंगिमायें भी अच्छी लगी थीं
रुई धुनते गद्दा बनाते लोग भी मोहक लगे थे
कि वही गद्दे हमारी देह का सुकून थे
कि वही एकमात्र गवाह थे हमारे उन दिनों की तमाम उलझनों के,
उसी लंका की ठंडी सुबहें शामें गुजरीं कुल्हड़ की चाय से मन गरमाते
तो वहीं मलाई मार लस्सी भी गटकी न जाने कितनी
लंका पर हमारे दुपट्टों का करीनापन सरक जाता
लडकी होने का सलीका बदल जाता
हमारी नफासत बनारसी हो जाती,
लंका हम चिड़ियों की प्रयोगशाला थी
जहाँ हमने अपने पंख फडफडाये
उडान का हौसला बटोरा
विरोध और आजादी के गीत भी गाये
दुनियादारी भी सीखी
और तो और आवारागर्दी के सबक भी लिये
लुत्फ भी,
लंका में समय ने चोला बदला
संगीत के स्वर बदले
प्रेम की पीढियां बदलीं
पर बहुत कुछ ऐसा भी है जो अछूता रहा
जैसे संगीत, जैसे प्रेम, जैसे हवा में घुला यादों का नमक या फिर जैसे लंका खुद
कि वो तब भी निर्लिप्त था और आज भी तटस्थ है,
लंका होना आसान नहीं
कि न जाने कितने दिलों का पिघलापन संचित है यहां
बह रहा जो सतह के नीचे
कि न जाने कितने जख्मों की सख्त सतह मौजूद है यहां
तटबंध की तरह थामे उसका किनारा
कि न जाने कितनी मुस्कानों की रौशनी से दमकता है ये
कि आधी रात भी अंधेरा नहीं होता यहां
और न जाने कितनी गर्वीली हंसी से उत्फुल्लित
कि हर मौसम में उम्मीद से भरा रहता है ,
लंका
प्रेम तुम्हें
कि तुमसे ही सीखती है एक पूरी पीढ़ी मानवीय होना।
(बनारस में एक ऐसी जगह जहाँ मैने ये सब सीखा...और बहुतों ने भी 😊 )

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