Wednesday 22 January 2020

आत्मलाप

आधी रात बतियाते हैं
मैं और मेरा स्व
हाल चाल पूछते हैं
गले मिलकर बांटते हैं सुख दुःख
आत्मा को साक्षी मान कह देते हैं सब मन की,
आसमान उस समय
उत्सुकता से झुककर टेढ़ा हो जाता है
टूटकर छिटक पड़ते हैं कुछ सितारे आस पास
चाँद बड़ा हो जाता है
और झिंगुरों को मौन रहने का मूक आदेश देते जंगल
कुछ करीब सिमट आते हैं,
एक जीवन की कथा चलती है
हवा धीरे बहती है
सामने दिखने लगता है
एक शिशु
रंगीन तितलियां
कागज के नाव
और इन सब के बीच सदा के लिए गुम हो चुके
दूध बताशे देने वाले हाथ ,
रात सरकती है
मन को धीरे धीरे दरकती है
एक दूसरे की दृष्टि का जल बदल जाता है
क्षण क्षण असह्य सहा जाता है
फिर फूटती है भोर
मानो सूर्य ने विद्रोह कर दिया हो
और कर दिया हो युद्ध का ऐलान
मैं और मेरे स्व के प्रति,
दुख जीने वाले डरपोक होते हैं
हम आत्मसमर्पण की मुद्रा में हैं।

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