Tuesday, 21 January 2020

निराशा

देगों में उबलते शोरबे की सी नमकीनियत और लज्जत से भरा ये मौसम
धूप की अठखेलियों के भ्रम में कभी
कुनकुनाहट में बदल जा रहा है
तो कभी बूंदों में,
कोपलों का फूटना मुल्तवी हुआ जा रहा है
और थमक जा रही हैं बीजों की सिल्लियां चटकने से पहले,
मन बुरांश हुआ चाहता है और हो जाता है गुलाब
कि अरमानों की पंखुड़ियों को झडते वक्त नहीं लगता,
ऐसे में कहो कैसे तुम्हें थिर रखूं
कि जो हर बार मौसमों की करवट हो जाते हो तुम।

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