बांध मन
हो चित्त कैसे सहज बोलो ,
हो चित्त कैसे सहज बोलो ,
एक अकुलाहट है भीतर
क्या कोई आहट है भीतर
तय हो कैसे ,
क्या कोई आहट है भीतर
तय हो कैसे ,
जबकि सब कुछ है तुम्हारी दृष्टि में
और तुम ही गुम हो
थोड़ा कम हो
जो अगर होते यहां प्रत्यक्ष साथी
फिर ये निर्णय हो सुनिश्चित दृढ हो रहता
कुछ छलककर और बिखरकर भाव किंचित अश्रु होते
स्पर्श उसको थाम लेता
रागिनी से बांध लेता
किसी संचित कोष जैसे,
और तुम ही गुम हो
थोड़ा कम हो
जो अगर होते यहां प्रत्यक्ष साथी
फिर ये निर्णय हो सुनिश्चित दृढ हो रहता
कुछ छलककर और बिखरकर भाव किंचित अश्रु होते
स्पर्श उसको थाम लेता
रागिनी से बांध लेता
किसी संचित कोष जैसे,
प्रीत के आह्वान को अनसुना कर दूं
मना कर दूं
अब नहीं है ताब
कि ये मन हुआ उद्धत
कुछ आहत
और फिर भर गया है पीर के मीठे सुनहरे तान से
उस गान से जो रच रहा अविराम कोमल गात
हिय के साथ
जैसे सृष्टि रचती नित नये कौतुक यहां हमको रिझाने।
मना कर दूं
अब नहीं है ताब
कि ये मन हुआ उद्धत
कुछ आहत
और फिर भर गया है पीर के मीठे सुनहरे तान से
उस गान से जो रच रहा अविराम कोमल गात
हिय के साथ
जैसे सृष्टि रचती नित नये कौतुक यहां हमको रिझाने।
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