Sunday, 9 September 2012

सरहदें

स्पर्श की भी सरहदें हुआ करती हैं
अदृश्य , मौन , ठहरी हुई 
मखमली ओस के सख्त हकीकत सी ,

धूप  कतरा-कतरा धरती में ज़ख्म सा  इकठ्ठा है 
हसरतें भी आईने में काँटों सी दिखा करती हैं 

हवाओं को छूकर गुजरने की इजाजत नहीं है
और नमी यहाँ कोहरे में नज़र आती है
कोई सियाही सी है ठहरी  हुई जिस्म पर
कि हर कम्पन हर सिहरन यहाँ  प्रतिबंधित है
वक्त पहाड़ों सा ठहरा हुआ है दरमियाँ
दहलीज़ भी बेड़ियों सी चिपकी हैं गहराई में,

पर इश्क अब भी  पहाड़ी  चश्मों सा ही  हैं
हर बार रोक दिए जाने पर
पूरी शिद्दत से फिर-फिर फूट पड़ता है
सुलगता है नसों में पारा बनकर
पर सहम उठता है फिर भी बिखरने से पहले
कि  कोई दीवार जब हस्सास नज़र आती है,



हसरतें तो कब्र की कगार तक खड़ी हैं
पर सरहदें भी अब तक ज़िंदा हैं पुरनूर !!


हस्सास ---- संवेदनशील

पुरनूर ------- पवित्रात्मा 


        अर्चना राज 

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