सदियों की सर्द रात तल्खियों सी
अब हड्डियों मे उतरने लगी है
ऐसे ही कुछ गजलें भी
बीते दिनों की उदास चित्रकारी सी हो गयी हैं ,
स्याह तनहाई जब भी रगों मे
पैठने लगती है कहीं गहरे बहुत
न जाने कहाँ से इक सूरज जनमता है मुझमे
और लहू मे बिखर जाता है ,
कतरा-कतरा जिस वक्त
तुम्हारे नाम की लकीरों सा होकर जल रहा होता है
ठीक उसी वक्त न जाने कहाँ से
एक दरिया भी मेरे जिस्म मे बर्फ सा उतर आता है ,
इक हस्सास तस्वीर
अक्सर बूंदों सी गिरती है मेरे माथे पर
हौले से फिर जख्म उभरता है माजूरी का
और दर्द ग्लेशियर मे तब्दील हो जाता है
हमनफ़ज मेरे !!
अर्चना राज
अब हड्डियों मे उतरने लगी है
ऐसे ही कुछ गजलें भी
बीते दिनों की उदास चित्रकारी सी हो गयी हैं ,
स्याह तनहाई जब भी रगों मे
पैठने लगती है कहीं गहरे बहुत
न जाने कहाँ से इक सूरज जनमता है मुझमे
और लहू मे बिखर जाता है ,
कतरा-कतरा जिस वक्त
तुम्हारे नाम की लकीरों सा होकर जल रहा होता है
ठीक उसी वक्त न जाने कहाँ से
एक दरिया भी मेरे जिस्म मे बर्फ सा उतर आता है ,
इक हस्सास तस्वीर
अक्सर बूंदों सी गिरती है मेरे माथे पर
हौले से फिर जख्म उभरता है माजूरी का
और दर्द ग्लेशियर मे तब्दील हो जाता है
हमनफ़ज मेरे !!
अर्चना राज
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