Wednesday, 17 October 2012

अंतर्वेदना

सदियों की सर्द रात तल्खियों सी
अब हड्डियों मे उतरने लगी है
ऐसे ही कुछ गजलें भी
बीते दिनों की उदास  चित्रकारी सी हो गयी हैं ,

स्याह तनहाई जब भी रगों मे
पैठने लगती है कहीं गहरे बहुत
न जाने कहाँ से इक सूरज जनमता है मुझमे
 और लहू मे बिखर जाता है ,

कतरा-कतरा जिस वक्त
तुम्हारे नाम की लकीरों सा होकर जल रहा होता है 
ठीक उसी वक्त न जाने कहाँ से
एक दरिया भी मेरे  जिस्म  मे बर्फ सा उतर  आता है ,

इक हस्सास तस्वीर
अक्सर बूंदों सी गिरती है मेरे माथे पर 
हौले से फिर जख्म उभरता है माजूरी का
और दर्द ग्लेशियर मे तब्दील हो जाता है
हमनफ़ज मेरे !!



               अर्चना राज

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