कुछ वक्त पहलू मे गुजारकर जो हर रोज तुम यूं ही चले जाते थे छोडकर मुझे
बिना कुछ पूछे ,बिना कुछ कहे
सोचा है कभी किस कदर सुलग उठती थी मै और क्यों ,
पर हर बार जब चूल्हे की आग से तप आए मेरे चेहरे को अपनी नज़रों से छूते थे
तो क्या समझ पाते थे की उतनी ही खामोशी से पिघल भी जाती थी मै ,
वर्षों बाद तुम्हारा कुछ मौन और कुछ स्पंदन मेरे आँचल के कोरों मे सुरक्षित है
क्योंकि तुम अब मेरी सीमाओं से परे हो ,
अब शामें दहलीज़ तक आकर सहम उठती हैं
दोपहर के बाद अचानक गाढ़ी रात ही मेरे कमरे मे पसर जाती है
मेरे कपड़ों और पावों मे भी
न जाने कैसे ,
तमाम रात सभी दीवारें बोझ से दुहरी होकर मेरे कांधे पे टिक जाती हैं
और कोई कहीं दूर बैठा बांसुरी बजा रहा होता है
रुदन से भरपूर ,
नसों मे अब छाले उभर आए हैं !!!
अर्चना राज
बिना कुछ पूछे ,बिना कुछ कहे
सोचा है कभी किस कदर सुलग उठती थी मै और क्यों ,
पर हर बार जब चूल्हे की आग से तप आए मेरे चेहरे को अपनी नज़रों से छूते थे
तो क्या समझ पाते थे की उतनी ही खामोशी से पिघल भी जाती थी मै ,
वर्षों बाद तुम्हारा कुछ मौन और कुछ स्पंदन मेरे आँचल के कोरों मे सुरक्षित है
क्योंकि तुम अब मेरी सीमाओं से परे हो ,
अब शामें दहलीज़ तक आकर सहम उठती हैं
दोपहर के बाद अचानक गाढ़ी रात ही मेरे कमरे मे पसर जाती है
मेरे कपड़ों और पावों मे भी
न जाने कैसे ,
तमाम रात सभी दीवारें बोझ से दुहरी होकर मेरे कांधे पे टिक जाती हैं
और कोई कहीं दूर बैठा बांसुरी बजा रहा होता है
रुदन से भरपूर ,
नसों मे अब छाले उभर आए हैं !!!
अर्चना राज
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