Tuesday 13 August 2013

वैशाली ------1


अर्चना ......
तुम अर्चना ही हो न ?

ये सवाल कोई मुझसे पूछ रहा था जब मै अपने ही शहर में कपडो की एक दूकान में कपडे ले रही थी, मै चौंक उठी थी  ....आमतौर पर कोई मुझे इस बेबाकी से इस शहर में नहीं बुलाता क्योंकि एक लंबा अरसा गुजारने के बाद भी  इस शहर से मेरा रिश्ता बड़ा औपचारिक सा ही है... न तो मैंने और न ही इस शहर ने कभी मुझे अपना बनाना चाहा पर खैर ...... हलके आश्चर्य के साथ सौजन्यतावश मैंने पलटकर देखा --------हाँ ...मै अर्चना ही हूँ पर माफ़ करें मैंने आपको पहचाना नहीं .

मेरे सामने लगभग मेरी ही हमउम्र एक महिला खडी थी , हल्का भरा शरीर , गोरी रंगत , गंभीर आँखें पर किंचित हल्की मुस्कान लिए ..नीले रंग के परिधान में जो उसपर बहुत फब रहा था ,

तुमने मुझे पहचाना नहीं , मै वैशाली हूँ .....वैशाली आर्या .....याद आया ..... हम कॉलेज में साथ थे . स्मृतियों के लम्बे गलियारे का दरवाज़ा कुछ ही पलों में ख़ट  करके खुल गया .....मुझे ज्यादा मेहनत नहीं करनी पडी ....मैंने उसे तुरंत ही पहचान लिया ......अरे वैशाली .....तुम ..यहाँ ? मुझे ख़ुशी भी थी और कुछ आश्चर्य भी .

पहचान लिए जाने की सुकून भरी मुस्कुराहट के साथ उसने कहा ,------हाँ यार ....यहाँ एक दोस्त के पास आयी थी और देखो कि अब तुमसे भी मुलाक़ात हो गयी ...कहकर उसने मेरा हाथ पकड़ लिया .( बेहद ईमानदारी से कहूं तो उसका ये अपनत्व अप्रत्याशित था मेरे लिए जिसके लिए मै तैयार नहीं थी )

फिर भी अपनेपन की बड़ी गुनगुनी सी अनुभूति हुई ....इसलिए नहीं कि वो मेरी बड़ी अच्छी दोस्त रही थी ( बल्कि वो तो मेरी दोस्त भी नहीं थी बस क्लासमेट भर थी परन्तु मेरे लिए हमेशा से ही एक आकर्षण का एक केंद्र ...क्योंकि उस वक्त भी मुझे हमेशा महसूस होता रहा था कि दरअसल वो वैसी है नहीं जैसा वो खुद को दिखाया करती है ( आज भी बिलकुल वही भाव उसको देखकर मेरे मन में तैर गए )....वो हमेशा ही बहुत बिंदास ...मस्ती करने वाली और लड़कों से टक्कर लेने के लिए हर वक्त तैयार नज़र आती थी .....उसके व्यक्तित्व में कुछ तो अलग और चुम्बकीय सा था जो मुझे आकर्षित करता था परन्तु क्या ...ये मै ठीक-ठीक नहीं समझ पाती थी और फिर इसी दरमियान एक दिन अचानक ही पता चला कि वो कहीं और चली गयी अपने माता-पिता के साथ . मेरे मन में तब बहुत सारे प्रश्न अनुत्तरित ही रह गए थे ...तमाम उलझनों और जवाब न जान पाने की झल्लाहट भरी टीस के साथ .

धीरे-धीरे इस घटना पर वक्त की धूल जमती गयी और उसका अक्स भी धुंधलाता चला गया पर कई वर्षों बाद जब वही वैशाली आज इस तरह अचानक मिली तो सच मानिए बड़ा अच्छा सा लगा .

गुजरे वर्षों में कभी-कभी मुझे उसकी बहुत याद आती रही थी ...उसकी आँखें जो अपेक्षाकृत बड़ी और खाली -खाली सी थीं बहुत आक्रामक लगती थीं....एक विद्रोह नज़र आता था उनमे जैसे दुनिया को -समाज को टक्कर देने के लिए हर वक्त तैयार बैठी हो  .... मै अक्सर सोचती थी कि उसके बारे में उसी से कुछ जानू ....उससे बातें करूं पर पता नहीं क्यों जब भी उसके पास जाने को होती तो यूँ लगता कि मानो उसने अपने चारों तरफ एक अभेद्य लोहे की  दीवार सी खडी कर रखी है जिसे तोड़ना लगभग नामुमकिन है और ये भी कि उसके बारे में हम सिर्फ उतना ही जान सकते हैं जितना वो खुद बताना चाहे ...उससे न एक शब्द कम न एक शब्द ज्यादा . उसके व्यक्तित्व की यही विशेषता या कहूं विचित्रता मुझे आकर्षित करती रही थी और जो आज तक भी  वैसे ही कायम थी.....भले ही उस पर वक्त की कितनी भी धुल चढी हो पर उसके नीचे उसका व्यक्तित्व एक बड़े से प्रश्न चिन्ह के साथ बिलकुल सुरक्षित था और सुलगता हुआ भी जो पहले ही दस्तक में अपनी सम्पूर्णता के साथ उठ खडा हुआ था .

वैशाली जब आज इस तरह अचानक मुझे मिली तो यूँ लगा कि जैसे कोई वर्षों पुरानी बिछड़ी हुई सबसे अच्छी  दोस्त मिल गयी हो ...ये लगभग वैसी ही अनुभूति थी जैसे विदेश में अचानक ही आपके जिले या राज्य का भी कोई व्यक्ति मिल जाए तो बड़ा अपना सा लगता है और हम तो फिर भी एक साथ पढ़े थे . जब ध्यान से उसके चेहरे की तरफ  देखा तो उसमे हल्का सा ही पर कुछ बदलाव भी आया था जो सुखद और सकारात्मक था ....मुस्कुराता चेहरा हालांकि गंभीरता की झलक अब भी थी ....थोडा भर आया सा शरीर जो अच्छा लग रहा था और सबसे महत्वपूर्ण थीं उसकी आँखें ......जिनमे खालीपन की बस यादें सी ही नज़र आ रही थीं और आक्रामकता की जगह एक ठहराव और परिपक्वता थी ....पर उसका व्यक्तित्व ... वो आज भी उतना ही चुम्बकीय महसूस हो रहा था जितना तब था .

औपचारिक बातों के बाद मैंने उससे लगभग इसरार किया कि कहीं बैठकर ढेर सी बातें करते हैं ...मुझे तुमसे बहुत कुछ जानना है ....उसकी आँखों में हल्का सा विस्मय कौंधा पर शायद वो भी मेरे चेहरे से मेरा मन पढने और समझने की वही कोशिश कर रही थी जो मैंने की थी  ( शायद उसे ये लगा हो कि मै तो उसकी कोई इतनी अच्छी दोस्त थी नहीं जो इस तरह का हक़ जताऊ )और फिर वो शालीनतावश मेरे मनोभाव को समझकर धीरे से मुस्कुरा दी ....कुछ एक बार स्वाभाविकतः ना नुकुर करने के बाद वो तैयार हो तो गयी पर उसका असमंजस भी उसके चेहरे पर स्पष्ट था ...उसने पलटकर अपने मित्र की तरफ देखा ...मै हौले से चौंक उठी ( हालांकि मेरा चौंकना बेमानी था ...पर फिर भी ...क्योंकि अब जाकर मुझे पता लगा कि उसका मित्र दरअसल कोई लड़की नहीं बल्कि एक लड़का है जिससे जल्द ही उसकी मंगनी होने वाली है ) . मेरे लिए अब स्थिति थोड़ी सी असहज हो गयी क्योंकि मैंने उसकी किसी सहेली की उम्मीद की थी जिससे कुछ समय के लिए वैशाली को मांगना शायद अनुचित न होता पर यहाँ तो माजरा ही बिलकुल अलग था पर फिर भी मैंने हिम्मत नहीं हारी ( यही शब्द उपयुक्त होगा यहाँ क्योंकि मेरी जिज्ञासा मेरी सभ्यता पर अब हावी होने लगी थी ) ....बहुत संकोच के साथ ही पर कुछ देर के लिए मैंने उसे उसके  मित्र से उधार ले लिया था ...सच कहूं तो हालांकि उसके मित्र को ये अच्छा नहीं लगा....हलकी नाराजगी भी उसके चेहरे से स्पष्ट थी पर शायद सौजन्यतावश ही वो मना नहीं कर पाया  या फिर शायद वो वैशाली को उसकी मित्र से मिलने से रोकना नहीं चाहता था ....हालांकि सभ्य समाज में इस तरह के रिश्तों में और वो भी इस दौर में से किसी एक को कुछ समय के लिए ही सही जुदा करना असभ्यता मानी जाती है पर आज वैशाली को पूरी तरह से जानने के लिए मै असभ्य बनने को भी तैयार थी क्योंकि मुझे मालूम था कि इसके बाद शायद वो मुझे कभी नहीं मिलेगी और उसके बारे में जानने का ये आखिरी मौका मै किसी भी कीमत पर गंवाने के लिए तैयार नहीं थी .

तो इस तरह से मै आज फिर मिली वैशाली से .....बड़े इत्मीनान से पहले हम कैफ़े गए ....कॉफ़ी वगैरह पीने के साथ-साथ कॉलेज के दिनों की यादें ताज़ा होती रहीं .....उन दिनों मशहूर रहे अफेयर्स के बारे में  हंसी-मज़ाक चलता रहा . कुछ समय के बाद जब इधर-उधर की सारी बातें चुक गयीं तब लगा कि यहाँ अब और बैठना या बातें करना मुफीद और मुनासिब नहीं होगा क्योंकि शोर बहुत था और अब दिलों के खुलने की बारी थी .....अमूमन  ऐसी जगहों पे दिल नहीं खुला करते ...स्मृतियों को कुरेदने औरउसमे सफ़र करने के लिए एकांत और शांति की जरूरत होती है . फिर हम पास ही मौजूद एक पार्क में गए जहां बेहद माफिक माहौल था ...वहीँ एक कोने की बेंच पर हम बैठे .... मैंने महसूस किया कि वैशाली अब कुछ असहज महसूस कर रही है ( शायद उसे भी आभास हो गया था मेरी मंशा का और अपनी तकलीफदेह नितांत निजी स्मृतियों से गुजरना और एक लगभग तथाकथित दोस्त को उसकी सच्चाई से रूबरू कराना आसान तो नहीं ही होता है )मैंने उसे कुछ वक्त दिया और खुद को भी क्योंकि मेरे लिए भी ये सहज नहीं था ...किसी की निजी जिन्दगी में एक तरह की दखलंदाजी ही थी ये .....ये भी संभव था कि वो मना कर देती कुछ भी बताने से या फिर नाराज़ हो जाती ....शायद कुछ ऐसे शब्द कहती जो मुझे चोट पहुंचा सकते थे ( मुझमे डर पनपने लगा था बावजूद इसके कि मै खुद ही तो उस पर इससे भी बड़ी सवालों की चोट करने वाली थी ). अंततः हर संशय को दरकिनार कर मैंने उसकी तरफ देखा ....वो हौले से मुस्कुरा दी ...मै भी .....यूँ लगा कि कुछ पलों के लिए एक चट्टान हम दोनों के दरमियाँ आ गया था जो इस मुस्कान के साथ खुद ही हट गया .

पहल उसने ही की ....मुझसे मेरे बारे में पूछती रही ...जानती रही ....मुस्कुराहट के साथ संतोष दिखा उसके चेहरे पर .....परन्तु अब मेरी बारी थी . ...मैंने उससे उसके घर और घरवालों के बारे में पूछा .......माँ के बारे में पूछा .....उसने कहा , वो ठीक हैं .....मै उन्हीं के साथ रहती हूँ ....बस उम्र की दुश्वारियां थोडा हावी होने लगी हैं जो स्वाभाविक ही हैं ...बस . अब मैंने उसके पिता के बारे में पूछा ....उसने बड़ी सहजता से कहा .....वो नहीं रहे ....तकरीबन छ महीने पहले ही हार्ट अटैक आया था ....और फिर ...... इतना ही कहकर वो चुप हो गयी .
पिता के जाने को इतनी सहजता से स्वीकार किया जाना और कहा जाना मुझे थोडा अजीब सा लगा ....मैंने दुःख प्रगट किया ....वो फिर हौले से मुस्कुरा दी ...इस बार उसकी मुस्कान किंचित गंभीर थी .

एक पल की चुप्पी के बाद फिर उसने ही कहा हंसकर ...... और बता ....क्या जानना चाहती है ?

मुझे सूझ ही नहीं रहा था कि कैसे पूछूं पर फिर भी हिम्मत करके आखिर कह ही दिया ....वैशाली , जब हम कॉलेज में पढ़ते थे तब तू बहुत बिंदास थी ....सबसे घुलीमिली ....पर पता नहीं क्यों मुझे तेरी आँखें बड़ी वीरान नज़र आती थीं ....कई बार तेरे साथ बात करने के बारे में सोचा ...कोशिश भी कि पर पता नहीं क्यों कभी तुझसे खुल के बात कर नहीं पायी और फिर एक दिन अचानक पता चला कि तुम लोग वहां से चले गए ....तब से ही तुझे मै कई बार याद करती रही हूँ क्योंकि तुझमे कुछ तो था जो सबसे अलग था ...जो मुझमे प्रश्न जगाता था पर जिसका उत्तर मै कभी तुझसे नहीं पूछ पायी .....हर बार ऐसा लगता था कि तूने खुद को बड़ी कोशिशों से नियंत्रित किया हुआ है और तू कभी भी किसी से भी कुछ नहीं कहना चाहेगी इसीलिए तुझे न समझ पाने की अधूरी चाहत मुझे अब तक चुभती रही है .....और आज जब तू इस तरह अचानक मिली तो मै खुद को रोक नहीं पायी ....इतना कहकर मै हौले से मुस्कुरा दी ( यूँ लगा जैसे मनो बोझ दिल से उतर गया हो )....साथ में मैंने अनायास ही ये भी जोड़ दिया  कि अगर न बताना चाहे तो कोई बात नहीं ...मै जिद्द नहीं करूंगी ...बुरा भी नहीं मानूँगी .....आखिर ये तेरी जिन्दगी है और उसे बांटने का निर्णय भी सिर्फ तेरा ही होना चाहिए ( दूसरी वाली बात मै कहना नहीं चाहती थी क्योंकि मै बड़ी शिद्दत से उसके बारे में जानने की  ख्वाहिश रखती थी पर पता नहीं कैसे ये बात कह गयी पर उसके जवाब ने तो मुझे हैरान ही कर दिया ).

पहले वो मेरी तरफ देखकर हौले से मुस्कुरायी फिर खामोश हो गयी ....कुछ पलों तक चुप रही ...मानो अन्दर ही अन्दर जो सब इकठ्ठा है उसे एक सूत्र में पिरोने की कोशिश कर रही हो .....मै ख़ामोशी से इंतज़ार कर रही थी उसके कुछ कहने का .....फिर उसने धीरे से कहा ....तुम्हें पता है कि तुम दूसरी वो शख्स हो जिसे मै अपने बारे में कुछ बताने वाली हूँ ....मै इस बारे में किसी से बात नहीं करती ....और हाँ ...तुम पहली भी हो सकती थी क्योंकि उन दिनों मैंने कई बार ये नोटिस किया था कि तुम मुझसे बातें करना चाहती हो ....शायद कहीं मुझे समझती भी हो हालांकि जानती नहीं हो पूरी तरह से ...मै तुम्हें बताना चाहती थी अगर तुम एक बार भी इसके बारे में बात करती पर न तुमने कभी कुछ पूछा और न मै खुद कभी कुछ बता पायी ( मुझे अफ़सोस तो हुआ ही न पूछने का पर ये जानकर तो आश्चर्य हुआ कि बिना कहे भी वो उस समय मेरे अन्दर की बात समझ गयी थी ).कुछ पलों के मौन के बाद उसने कहना शुरू किया ---

पता है अर्चना ,.................मेरी जिन्दगी को समझने की कोशिशें तब से ही जारी हो गयी थीं जब ये बिलकुल समझ नहीं आता था कि आखिर समझना क्या है ....आज मै अपनी उस उम्र की तमाम उलझनों को महसूस कर सकती  हूँ ...इसलिए अब समझ पाती हूँ  कि वो उम्र एक ख़ास तरह के अकेलेपन और मनोवैज्ञानिक जद्दोजहद से गुजरती है .....मेरे लिए संधिकाल बचपन की मासूमियत के ख़त्म होने का सन्देश नहीं था बल्कि उससे कहीं पहले ही .....बचपन में ही परिपक्वता और गंभीर किस्म की सोचों ने मेरे जहन में दस्तक दे दी थी बड़ी बेरहमी और क्रूरता से ....फिर मुझे उसके बुदबुदाने की आवाज़ आयी  कि हाँ ...यहाँ यही शब्द ठीक है .

सब बच्चे जब खेल-कूद या मस्ती में लगे होते तो उस वक्त मै उन सब के बीच अपने खुद के होने को तलाशती रहती थी जबकि वास्तव में मुझे पता नहीं होता था कि मै क्या तलाश रही हूँ या ठीक-ठीक क्या करना चाह रही हूँ .......व्यक्तिगत तौर पर भी मैं उनमे कहीं नहीं होती थी  ...और क्योंकि जब मै खुद के लिए ही नहीं होती थी तो ज़ाहिर सी बात है कि मै दूसरों के लिए भी नहीं होती थी या फिर शायद उनके लिए मेरा होना कोई मायने नहीं रखता था . ये बोध एक बालमन को धीरे-धीरे अकेला और तनावग्रस्त कर देता फिर परिणाम स्वरुप हीनता का जबरदस्त बोझ मुझ पर हावी होने लगता ... . कभी-कभी ये अहसास इतना भारी होता था कि लगता मानो मेरा बचपन जबरदस्त घुटन के दौर से गुजर रहा है .दरअसल मेरे पिता जो एक बहुत ही अच्छे इंसान थे .....ईमानदार , मेहनती , सच्चे , प्रतिष्ठित व्यक्ति और मेरी माँ जो अपेक्षाकृत बड़े घर से थीं ..उनका आपसी सामंजस्य ठीक नहीं था ....जहां मैंने पिता को हर वक्त क्रोधित ,मनमाना और बस आदेश देते हुए ही देखा था वहीँ माँ को हमेशा स्थितियों को सँभालते , चुपचाप सहते और हर वक्त इस कोशिश में लगे देखा कि घर की बात घर में ही रहे ...किसी भी कीमत पर घर की बेईज्ज़ती न होने पाए चाहे भले ही इसके लिए कितने भी झूठ क्यों न बोलने पड़ें . यहाँ पर एक बात और कहना जरूरी है कि अपनी अवहेलना ,अपमान और खुद को प्रताड़ित किया जाना तो माँ चुपचाप सह लेती थीं पर जब कभी भी मेरे पिता मुझ पर नाराज़ होते या आघात करते तो माँ की विवशता और उस वक्त कुछ पलों के लिए ही सही पर माँ की आँखों में उठता विरोध भी मै साफ़ पढ़ लेती थी . मुझे उनकी ये विवशता उत्तेजित और अनियंत्रित कर देती थी ...विरोध के लिए कई बार मुखर भी पर तुरंत ही माँ मुझे अपने में समेट लेतीं ( ये उनका अपना तरीका था मुझे शांत करने का ) .परन्तु धीरे -धीरे यही पारिवारिक माहौल मुझे कहीं न कहीं दुर्भाग्यपूर्ण तरीके से प्रभावित भी कर रहा था ....मेरे अन्दर अनजाने ही एक घुटन बढ़ने लगी थी .....मेरा व्यक्तित्व दबने लगा था ....एकांगी होने लगा था ......मै सबके साथ खुद को एडजस्ट नहीं कर पाती थी .....दरअसल मै दिनों-दिन हीनता और अकेलेपन का शिकार हो रही थी और इसी के परिणामस्वरूप बेहद जिद्दी और विद्रोही भी . मेरा बचपन धीरे-धीरे मर रहा था अर्चना जिसे मै और मेरी मिलकर भी नहीं बचा पा रहे थे माँ की तमाम कोशिशों के बावजूद भी . माँ के चेहरे पर एक ख़ास किस्म की पीड़ा मै कई बार देखती थी पर उसे सही तरह से समझ न पाने की वजह से खुद को बहुत लाचार महसूस करती थी....पर खैर .

एक घटना का ज़िक्र यहाँ जरूरी मालूम देता है ....सभी बच्चे दिवाली उत्सव की तैयारी कर रहे थे .. उस दौरान एक सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन  होता था जिसमे ज्यादातर बच्चे भाग लेते थे .....बड़े लोग इसकी तैयारियां करवाते थे जैसे किस कार्यक्रम के लिए किस बच्चे को सेलेक्ट करना है और उससे क्या करवाना है ...वगैरह-वगैरह .
मुझे भी एक डांस के लिए चुना गया पर जब प्रैक्टिस करवाई जाने लगी तो मै कुछ कर ही नहीं पा रही थी ...मेरा हीनता बोध बुरी तरह मुझे प्रभावित कर रहा था ,,,दो-तीन बार सिखाने के बावजूद भी जब मै ठीक तरीके से नहीं कर पाई तो स्वभावतः सिखाने वाली आंटी ने थोडा झुंझलाकर कहा ....बेटे, ऐसे नहीं ...इस तरह करो ....देखो ------- कितना अच्छा कर रही है ,,,उसे देखकर करो ...मैंने जब उसकी तरफ देखा तो वो मुझे देखकर मुस्कुरा रही थी .....हो सकता है कि वो एक सहज -सामान्य मुस्कान रही हो और आज ऐसा लगता भी है कि वो सामान्य और दोस्ताना किस्म की मुस्कान ही थी पर उस वक्त की मनोदशा में मुझे ऐसा लगा कि मानो वो मुझ पर हंस रही है ...मेरा मज़ाक बना रही है ....क्रोध और शर्मिंदगी के अतिरेक से मै रो पड़ी ..इतना कि मेरी हिचकियाँ बंध गयीं ....वो लड़की और बाक़ी सब भी घबरा गए कि अचानक मुझे क्या हो गया . काफी समझा -बुझाकर मुझे इस आश्वासन के साथ घर भेज दिया गया कि आज रहने दो कल से प्रक्टिस के लिए आ जाना ...तुम डांस में अब भी हो ......घर पहुँचने पर मेरी अवस्था देखकर मेरी माँ चिंतित हुईं और पूछने लगीं कि क्या हो गया ...तुम रो क्यों रही हो  ...और फिर मुझे बाहों में भर लिया ( इस बार मुझे शांत करने का उनका ये तरीका बहुत कारगर नहीं रहा था )....मुझे अपनी नाकामी पर और शर्म आने लगी और मै जल्दी से अपने आपको छुडाकर अपने कमरे की तरफ भागी और अन्दर जाकर दरवाजा बंद कर लिया . दरअसल मै उस समय अकेले रहना चाहती थी और किसी को भी सवाल करने का मौका नहीं देना चाहती थी.....माँ को भी नहीं ....असफलता इंसान को अकेला कर देती है ...ये पहली सीख थी उस दिन शायद मेरे लिए अर्चना .... ..ये कहकर वैशाली हंस पडी .....पर मेरे अन्दर झन्न से कुछ टूट गया ......मैंने उसकी तरफ देखा पर वो शांत थी फिर उसने कहना शुरू किया ........इसी तरह की कुछ घटनाओं ने  मेरे व्यक्तित्व में हीनता का बीज बोया था शायद ......., बाहर से मुझे अपनी माँ और साथ बैठी कुछ आंटियों की आवाज़ आई कि कोई बात नहीं ...घबरा गयी है शायद ....नहीं करना चाहती है तो न करे क्या फरक पड़ता है . और मै अन्दर बैठी ये सब सुनकर कुढ़ रही थी क्योंकि मै उन्हें बताना चाहती थी .....पूरी ताकत से चिल्लाकर बताना चाहती थी कि फर्क पड़ता है .....असल में बहुत फर्क पड़ता है ....मै भी करना चाहती हूँ....मै भी चाहती हूँ कि ये कहा जाए कि मै ये अच्छा करती हूँ या मेरे बिना ये नहीं हो सकता . प्रशंसा और आत्मगौरव के उस अहसास को मै भी महसूस करना चाहती हूँ ....पर मै नहीं कह पायी .....कुछ भी नहीं कह पायी और इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि मुझे बिना बताये ही मुझे डांस से निकाल दिया गया और मेरे पड़ोस में रहने वाली मेरी एक दोस्त को वो जगह दे दी गयी .....इस घटना ने मुझे गहरी चोट दी थी और फिर मैंने अपनी पड़ोस वाली अच्छी दोस्त से भी कभी बात नहीं की.....निकाले जाने के अपने अपमान और शर्मिंदगी को मैं अनायास ही  विद्रोह और उद्दंडता के सांचे में  ढालती चली जा रही थी . कुछ न कह पाना और अन्दर ही अन्दर घुटते रहना मेरी जिन्दगी का एक अटूट हिस्सा बनता जा रहा था . ये पहली घटना तो नहीं थी पर शुरुआती घटनाओं में से एक जरूर थी . पर मेरे पिता के लिए तो ये कोई घटना ही नहीं थी जिसका मलाल मुझे आज तक है .

अब मुझमे एक चुप और एक विद्रोह दोनों ही पनपने लगे .....मै जिद्दी होती गयी और क्योंकि मेरी जिद्द को कभी ख़ास तवज्जो नहीं मिलती ( शायद छोटा समझकर टाल दिया जाता था )तो मै कुछ बदतमीजियों पर उतर आई जैसे बात न मानना या फिर पलटकर जवाब देना ......कभी-कभी चीजों का तोड़-फोड़ करना .वजह साफ़ थी कि मुझ पर भी ध्यान दिया जाए ...मुझे भी ख़ास माना जाए पर ये तरीका बेहद अफसोसनाक तरीके से विफल रहा और बदले में मेरे लिए मेरी माँ की निराशा बढ़ गयी जिससे मुझे बहुत चोट पहुंची पर मै विवश थी क्योंकि और कुछ कह,कर या सुन पाने की समझ ही नहीं थी उस उम्र में मुझे .

इतना कहकर वैशाली चुप हो गयी ....ऐसा लगा मानो उसका अंतर्मन रिस रहा है .....ज़ख्म भी तो छिल रहे थे ......मैंने उसकी हथेलियाँ थाम लीं और हलके से दबाया ......वो सजग होकर धीरे से मुस्कुराई और फिर कहना शुरू किया ---

लगभग इसी समय एक और घटना घटी जिसने मेरे किशोरवय की तरफ बढ़ते जहन पर अमिट और क्रूर छाप छोड़ी जो आज भी मानो वैसी ही ताज़ा है .....एक शाम मै और मेरी माँ कॉलोनी में ही फिल्म देखने गए ( मेरे पिता अक्सर नहीं जाते थे ), लौटने में कुछ देर हो गयी पर ये उतना ही वक्त था जितनी देर में फिल्म ख़तम हुई .....लौटने पर मेरे पिता जो न जाने किस गुस्से से उबल रहे थे उन्होंने बड़ी फटकार के साथ माँ को तो अन्दर आने दिया पर मुझे बाहर कर दिया ....12-१३ साल की उम्र में मै वजह नहीं समझ पा रही थी और फिर भी मैंने जब जबरदस्ती अन्दर जाने की एक नाकाम कोशिश की तो मेरा सामना बहुत सख्ती के साथ मारे गए एक झन्नाटेदार थप्पड़ से हुआ  ...... कान तक सुन्न हो गए ...जब तक मै संभल पाती तब तक पतले और मोड़े गए वायरों से ( जो आमतौर पर exteintion का काम करते हैं )तीन चार बार मुझे कसकर पीटा गया .......मै थर्रा उठी ....सहम उठी और इसके साथ ही मुझे फिर से वापस धकेल दिया गया ...मै लडखडाकर गिर पडी और मेरे पिता ने अन्दर से ताला लगा दिया . मेरी माँ खिडकी से मुझे देखती रहीं ....रोती-सिसकती रहीं ...पिता से उन्होंने कहा भी कि कम से कम  उसे अन्दर तो आ लेने दीजिये फिर जो करना होगा करियेगा पर मेरे पिता की कहर बरसाती क्रोध भरी आँखों के आगे वो इसे दोहराने की हिम्मत नहीं कर पायीं . मुझे कुछ पल तो ये समझने में लगे कि अचानक ही मेरे साथ ये क्या हुआ है ? क्यों हुआ है ? दरअसल मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था ..मै भ्रमित और स्तब्ध सी अपने चारों ओर देख रही थी . ...रात के तकरीबन दस - साढे  दस बज रहे थे ....अक्टूबर के महीने की हल्की -हल्की ठण्ड शुरू हो चुकी थी ....सड़क पर लगभग सन्नाटा था और कुछ आवारा कुत्ते जिनसे मै बेहद खौफ खाती थी पर जहां मुझे कब तक रहना था मुझे नहीं पता था ......घर के सामने ही सड़क निर्माण के लिए पत्थरों की एक ढ़ेरी बनी हुई थी ..मै उसी पर जाकर बैठ गयी दो वजहें थीं ....एक तो हल्का अन्धेरा था वहाँ जिससे अगर कोई आ भी जाए तो मुझे आसानी से देखकर पहचान न पाए और दूसरी ये कि अगर कोई कुत्ता मेरे सामने आये तो मै पत्थर से उसे डरा और भगा सकूं . ये दोनों ही युक्तियाँ कारगर रहीं और ऐसी कोई घटना नहीं होने पायी पर उसका क्या करती जो मेरे अन्दर घट रहा था ......बेवजह अचानक एक झन्नाटेदार थप्पड़ और उसके बाद ताबड़तोड़ तारों से कई बार पिटाई जिसकी वजह से मेरे हाथों और चेहरे की त्वचा छिल गयी थी और बेहद दर्द हो रहा था ....मै रो रही थी पर इस सजगता के साथ कि आवाज़ न निकलने पाए वरना अगर किसी ने सुन लिया तो बहुत बदनामी होगी और मेरी माँ के लिए जवाब देना मुश्किल हो जाएगा और जो मै कत्तई नहीं होने देना चाहती थी  .......पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा मै अपनी माँ से ही प्यार करती हूँ या परवाह करती हूँ ...शायद इसलिए भी कि एक ही समय में हम दोनों का दुःख और प्रश्न साझा हो जाते थे .....खामोशियाँ भी ........तकरीबन डेढ़ से दो घंटे मै वहां बैठी रही ....डरी -सहमी ....पर खुद को अन्दर से बदलते हुए महसूस करती .... मेरे अन्दर अपने पिता के लिए अथाह क्रोध और नफरत पनपने लगी थी तो माँ पर भी चुपचाप सबकुछ बर्दाश्त करते रहने के लिए गुस्सा कम नहीं था पर एक समय के बाद जब आरंभिक उध्वेग कम होने लगा तो मुझे माँ की बेचारगी पर भी रहम आने लगा ....मुझे उनके टुकड़ों में कभी-कभी अनायास ही कह दिए गए शब्द याद आने लगे ....उनके अर्थों को तलाशने की कोशिश में उनकी भरी आँखें याद आने लगीं .....अब मेरा बालमन पिघलने लगा था ....रो रहा था ...पर साथ ही गुस्से और नफरत से जल भी रहा था .....और ये सारी घटनाएं एक साथ ही घटित हो रही थीं मानो किसी तस्वीर में एक साथ बर्फ और आग दोनों ही पलने लगे थे ......भूख और प्यास से बेहाल थी ...नींद भी बहुत  तेजी से मुझे अपनी  गिरफ्त में लेने को आतुर थी इतनी कि मै शायद वहीँ लुढ़क जाती पर इससे पहले कि मै गिर जाऊं मेरी माँ ने आकर मुझे संभाल लिया .....उनकी फुसफुसाती सी आवाज़ आई ....और मैने उनकी हथेलियों की नरमी अपने चेहरे पर महसूस की .......मै माँ की ज़रा सी उष्मा मिलते ही भरभराकर रो पडी ......माँ ने मुझे अपनी बाँहों में भर लिया ....कुछ वक्त तक चुपचाप सहलाती रहीं फिर मेरे आंसू पोछे .....अन्दर चलने का इशारा किया ...मै अबोध बच्चे की तरह उनकी उंगली पकडे-पकडे अन्दर आने लगी ....एकबारगी  मैंने सहमकर उनकी आँखों में देखा ...वो रो रही थीं पर उन्होंने मुझे आश्वस्त किया कि मेरे पिता अब तक सो चुके हैं इसलिए अब मै भी अन्दर आ सकती हूँ ....कल सुबह जो भी होगा उसका सामना करने के लिए हम दोनों को ही हिम्मत और आराम की सख्त जरूरत थी जो मुझे माँ से और माँ को भी शायद मुझसे मिल रही थी .....अन्दर आने पर बिना लाइट जलाए टॉर्च की रौशनी में ( ताकि मेरे पिता जग न जाएँ ) उन्होंने मुझे मलहम लगाया ...खाना खिलाया और फिर अपने बगल में थपकियाँ देकर ( सिसकियाँ लेते हुए )सुला दिया . सुबह उठने पर मैंने देखा कि माँ की आँखें लाल थीं ...वो शायद रात भर सो नहीं पायी थीं और सुबह एक बार फिर से उन्हें पिता  के गुस्से का सामना करना पडा था और सबसे ख़ास बात ये कि इस सारे घटनाक्रम की जो वजह मुझे पता चली वो जानकर तो मै सन्न रह गयी और खुद को ये समझाने के लिए तैयार ही नहीं कर पा रही थी कि केवल इतनी छोटी सी वजह कि खातिर मेरे पिता ने मेरे और माँ के साथ ऐसा किया था ...अजीब स्तब्धता कि स्थिति थी वो .दरअसल वजह ये थी कि मेरी एक मित्र से उन्हें मेरी मित्रता पसंद नहीं थी जिसके लिए उन्होंने मुझे एक बार हिदायत भी दी थी पर फिर भी वो मेरे घर आ गयी थी मेरे साथ कुछ वक्त बिताने ( ये बात दीगर है कि मेरे घर में होने के बावजूद मेरी माँ ने ये कहलवा दिया कि मै घर पर नहीं हूँ ...फिर मेरी तरफ देखकर हौले से मुस्कुरा दीं जिसमे अर्थपूर्ण गंभीरता ज्यादा थी ...मै भी समझ गयी थी ....) इस घटना के बाद से जहां इस उम्र से ही मेरे अन्दर पिता के लिए अगाध नफरत ने अपनी जगह बनानी शुरू कर दी थी वहीँ अपनी माँ के लिए असीम सम्मान ...अपनापन और आपसी समझ का निर्माण भी होने लगा था ...पर इसके बावजूद भी कभी-कभी मुझे उनकी लाचारी और चुप्पी पर भयंकर क्रोध आता था पर फिर स्वयं ही मै खुद को शांत कर लेती थी .




























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