अब आगे -----------
इतना कहकर वो रुकी ......हल्की लम्बी सांस ली फिर मेरी तरफ देखकर हौले से मुस्कुरा दी .....मै भी ....पर अब उसके बारे में सब कुछ जानने की जिज्ञासा और भी तीव्र हो रही थी .कुछ देर के बाद उसने फिर से कहना शुरू किया ......पता है , मै माँ से अक्सर कहती थी कि आप मुझे लेकर नाना जी के यहाँ क्यों नहीं चली जातीं ....माँ मेरी तरफ देखतीं फिर हलके से मुस्कुरा देतीं और कहतीं ...जरूर चलूंगी बेटा....तुम्हारी छुट्टियाँ तो शुरू होने दो ....कई बार तो मै चुप रह जाती पर कभी-कभी जिद्द करने लगती कि नहीं ....हम तब तक इंतज़ार नहीं करेंगे ....हम अभी जायेंगे .....आप मेरा नाम वहीँ के स्कूल में लिखवा देना .....वहां पर तो सब लोग आपको कितना मानते हैं , कितना प्यार करते हैं ...आप जो कहती हैं सब होता है और वहां तो कोई आपको और मुझे डांटता भी नहीं .....मेरी माँ सुनतीं ....मेरी तरफ देखतीं ...और मुस्कुराकर टालने वाले अंदाज़ में कहतीं ......अच्छा ठीक है ....अभी चलेंगे पर अभी तो तुम जाओ खेलो ....मुझे कुछ काम करने दो ...इतना कहकर वो उठकर चली जातीं .....कुछ एक बार जब मै उनके पीछे जाती तो माँ को कभी चुपचाप तो कभी अपने कमरे का दरवाज़ा बंद करके रोता हुआ सुनती ......मै स्तब्ध हो जाती थी अर्चना ....मेरा मन ग्लानि से भर जाता था . मुझे लगता माँ मेरी वजह से रो रही हैं ....मैंने उन्हें रुला दिया ....मै कितनी बुरी हूँ ...फिर मै घंटों अकेले बिता देती थी ये सोचते हुए कि मैंने ऐसा क्यों किया या फिर आइन्दा ऐसा कभी नहीं करूंगी और माँ को खुश करने के कुछ तरीकों के बारे में सोचते हुए ....पर कई बार मुझे ये भी लगता था कि आखिर मैंने ऐसा कहा क्या कि माँ रोने लगीं ....मैंने तो कोई गलत बात नहीं कही फिर मुझे याद आता कि जब भी हम नानाजी के यहाँ जाते थे तो सभी हमें कितना प्यार करते थे ....हर छोटी-बड़ी जरूरत का ख़याल रखते थे फिर भी माँ वहां क्यों नहीं जाना चाहतीं ....क्यों यहीं रहकर पिता को बर्दाश्त करती हैं और मुझे भी उन्हें सहना पड़ता है . ऐसे ही ढेरों सवालों के बीच मै डूबती-उतराती रहती .....सुलझता तो कुछ भी नहीं पर बड़ी ख़ामोशी से कहीं मेरा व्यक्तित्व बहुत उलझता जा रहा था . अपने होने ..अपने पहचान के लिए भी मै कोशिश नहीं कर पा रही थी क्योंकि घर की आये दिन की कलह मुझे खामोश और दब्बू बनाती जा रही थी . जितना ही मै खुद को साबित करने के लिए आगे बढ़ती उतनी ही तीव्रता से मै खुद को हीनता के बोझ से दबा हुआ पाती . मेरी माँ हालांकि मुझे खुश रखने की हर संभव कोशिश करतीं पर मेरे अन्दर बहुत बुरी तरह से हो रहे मनोवैज्ञानिक बदलाव को शायद वो भी नहीं समझ पा रही थीं . ऐसा नहीं था कि मेरे पिता हमेशा बुरा व्यवहार ही करते थे ....कई बार वो बेहद शालीनता , अपनेपन और प्यार से भी पेश आते थे ...पर ये कुछ ही वक्त के लिए होता था और मै इसे जीने की बजाय ये सोच कर सहम जाती थी कि न जाने कब या किस बात से फिर पिता का मूड खराब हो जाएगा और वो बदल जायेंगे इसलिए मै इन पलों को बहुत सहेजकर रखना चाहती थी ...ये पल मेरी जिन्दगी के शानदार पल हुआ करते थे ....मै अपने उन सभी दोस्तों को बुलाकर दिखाना चाहती थी कि देखो मेरे पापा भी मुझसे प्यार करते हैं ....मेरा ख़याल रखते हैं जिन्हें कई बार मैंने उनकी आँखों में कौंधे प्रश्नों या फिर कई बार सीधा ही पूछ लिए जाने की अभद्रता करते हुए झेला था .....पर मै ऐसा नहीं कर पाती थी क्योंकि मुझे हमेशा ये डर रहता कि कहीं फिर से उनका मूड खराब न हो जाए ( पर मेरे समस्त डर,ख़याल और दुआओं के बाद भी ये तो होना निश्चित ही था और जिसके हो जाने पर कई बार अफ़सोस होता कि मैंने क्यों नहीं बुलाकर अपने दोस्तों को उनसे मिलवा ही दिया पर तब तक तीर कमान से निकल चुका होता था ).
शायद यही वजह थी कि घर में मै ,जो पूरा दिन मिलाकर बमुश्किल ही कुछ शब्द बोलती थी ....बस उतना ही जितना जरूरी हो .....घर के बाहर बहुत बिंदास हो जाती थी ....मै बिलकुल नहीं चाहती थी कि कोई मेरे घर की सच्चाइयों के बारे में जाने ....मेरे माता-पिता और मेरे बीच समान रूप से फैली तल्खियों और अधूरेपन को जाने ....मेरी बेचारगी को निशाना बनाए या फिर मुझसे सहानुभूति जताकर मेरा अपमान करे . पता है तुम्हें अर्चना , मै सब के लिए ...सब के पास होना चाहती थी पर कोई मेरे करीब आये इसे मै अनजाने ही स्वीकार नहीं कर पाती थी और खुद को बेहद सख्त कर लेती थी ....शायद यही वजह रही कि आज तक कोई मेरी बेस्ट frnd नहीं बनी बल्कि कहूं तो कोई दोस्त तक नहीं बनी .....मित्रता सबसे थी पर मेरा मित्र कोई नहीं था .बहुत से कोमल एहसास जो इस उम्र में होते हैं मै महसूस ही नहीं कर पायी ....कहीं कुछ विचलन होता तो था ...अंतस छटपटाता तो था मगर क्यों .....ये कभी समझ नहीं आया ...और किसी से पूछ सकूं इतनी हिम्मत नहीं थी और फिर ऐसा कोई था भी तो नहीं ...कहकर वैशाली बेचारगी से हंस पडी ....मै अन्दर से आर्द्र महसूस कर रही थी पर ऊपर से खुद को सामान्य बनाए रखा .
अब उसने कहा ....इसी माहौल में मै बड़ी होती रही ....थोड़े से अपनेपन ,प्यार पर बहुत सारे सवालों ...उलझनों और हीनता के बोध के साथ . फिर मेरे पिता का ट्रान्सफर उस शहर में हुआ जहां के कॉलेज में दाखिला लेने पर मेरी तुमसे पहचान हुई .पहचान भर ही न ? इतना कहकर वैशाली शरारत से मेरी तरफ देखकर मुस्कुरायी ....मैंने चौंककर उसकी तरफ देखा .....शायद इसलिए कि इतने विषाद के साथ वो मुस्कुरा कैसे पा रही है ...पर फिर मै भी मुस्कुरा दी .
उसने फिर कहा ,.... यहाँ आने पर मुझे लगा था कि शायद अब मुझे उस घुटन से निकलने का मौका मिलेगा जो बचपन से मेरे अन्दर और आस-पास पूरी चेतना के साथ मौजूद रहती थी ....क्योंकि अब मै कुछ बड़ी हो गयी थी ....बातों को और माहौल को अलग तरीके से देखने और जूझने के तरीके सीख रही थी ....मै इन दुश्वारियों के साथ लड़ना और जीतना चाहती थी ...अपनी माँ के लिए और उससे भी ज्यादा खुद अपने लिए ...क्योंकि मै खुद को ये यकीन दिलाना चाहती थी कि मै लड़ सकती हूँ और सफलता पूर्वक जीत भी सकती हूँ ...अपने पिता को भी अपने हौसलों और जिद्द से परिचित कराना चाहती थी क्योंकि इस उम्र में आपका अस्तित्वबोध पूरी सक्रियता के साथ चेतन होता है ....कुछ कर गुजरने के भाव के साथ .मै अब अपने पिता से टक्कर लेने लगी थी पर कुछ ही समय बाद मुझे महसूस हुआ कि ये तरीका पूरी तरह नाकाम ही साबित होगा क्योंकि उस दौरान मै माँ के चेहरे पर एक अलग किस्म का तनाव , विषाद ,डर और हार भी महसूस करती थी जो मैंने कभी नहीं चाहा और जो मै कभी भी स्वीकार नहीं कर सकती थी ...इसके साथ ही घटना के तुरंत बाद से ही घर के माहौल में घुटन और बढ़ जाती ....मेरी माँ असामान्य महसूस करने लगतीं ( बाद में मुझे अचानक ही एक दिन पता चला कि ऐसी घटनाओं के बाद पिता जिस हिकारत की नज़र से माँ को देखते थे वो शायद माँ को अपने परवरिश पर प्रश्नचिन्ह सी महसूस होती थी ......) और मै ऐसा कैसे होने दे सकती थी ...कभी भी और किसी भी कीमत पर नहीं . मैंने पिता का विरोध करना बंद कर दिया ( शायद मै माँ को अब कुछ बेहतर समझ पा रही थी ). मेरे पिता भी धीरे-धीरे अब कुछ सामान्य होने लगे थे ( कुछ ही ....क्योंकि आदतें कभी नहीं बदलतीं )शायद ये उम्र का तकाज़ा ही रहा हो क्योंकि उम्र की सच्चाई पूरी कठोरता से इंसान पर हावी होती है जिसे वो चाहे या न चाहे पर स्वीकारना ही पड़ता है .....अब .मेरी माँ थोडा खुश रहने लगी थीं और मेरे लिए मेरी माँ का खुश होना ज्यादा मायने रखता था बनिस्बत अपने पिता के सामान्य होने से .मैंने खुद को समेट लिया ....घर में मै ज्यादा से ज्यादा वक्त अपनी माँ के साथ बिताती . अब माँ मुझसे लगभग बराबरी का व्यवहार करने लगी थीं ...उन्हें लगता था कि मै अब बड़ी हो गयी हूँ ...शायद अब परिस्थितियों को समझने और स्वीकारने की क्षमता मुझमे ज्यादा विकसित रूप में है . वो मुझे कई बार अपने आरामदायक और रईसी के बीच बड़े हुए बचपन के बारे में बतातीं ....अपने खिलौनों के बारे में ...कपड़ों के बारे में ....जिद्द के बारे में और ये भी कि किस तरह वहां उनके सभी नखरे उठाये जाते थे ......बहुत आश्चर्यजनक सुकून मिलता था माँ के बचपन को जानकार पर सच कहूं अर्चना तो एक हलकी सी इर्ष्या भी बड़ी दुष्टता से अपने फन उठाती थी जिसके लिए मै खुद को कई बार धिक्कारती भी थी पर आज लगता है कि हर इंसान के लिए शायद उसका स्व ही सबसे पहले होता है ( पूरी निर्ममता और कटुता के साथ भी पर सच यही है ).
एक दिन बातों-बातों के दौरान मैंने कहा , माँ.....एक बात पूछूं ......आप नाराज़ तो नहीं होंगी ? वो हंसने लगीं और बोलीं , अच्छा ...तो अब तुम्हें मुझसे ये भी पूछना होगा ......मैंने कहा ...बताइये न माँ ......आप नाराज़ तो नहीं होंगी ? उन्होंने मुस्कुराते हुए मेरी तरफ देखकर ना में गर्दन हिलाई पर मेरी आँखों की गंभीरता देखकर वो भी शायद सचेत हो गयी थीं ( ऐसा मुझे महसूस हुआ ).मै कुछ देर चुप रही क्योंकि मेरी हिम्मत नहीं हो रही थी कि मै माँ से वो पूछूं जो मै वाकई जानना चाहती थी ......कुछ पलों की खामोशी के बाद माँ ने ही कहा ....अब पूछो भी ...इतना क्या सोचना .....बेटा, जो मन में हो कह देना चाहिए वरना गांठें पड जाती हैं ....मैंने एक पल उनकी तरफ देखा फिर चेहरा नीचे कर आहिस्ता से उनसे पूछ ही लिया .....माँ , आप क्यों इतने सालों तक पिता के साथ रहीं ? आप उन्हें छोड़कर भी तो जा सकती थीं न ? माँ चौंक उठीं ( उन्हें ये तो पता रहा ही होगा कि ये प्रश्न कभी न कभी उठेगा पर इस तरह से अचानक और इतनी जल्दी ....शायद इसकी उम्मीद नहीं थी उन्हें ....शायद अभी वो इसका सामना करने के लिए तैयार नहीं थीं या फिर शायद उन्हें मेरी उम्र की परिपक्वता पर भरोसा न रहा हो .....ये भी संभव है कि शायद उन्होंने खुद ही कोई समय और तरीका निश्चित किया हो मुझे ये सब बताने का पर अब तो प्रश्न सामने आ गया था जिसका जवाब उन्हें देना ही था ....आज वो इसे नहीं टाल सकती थीं )पर कुछ पलों बाद उन्होंने मेरे सिर पर हाथ फेरा ( एकबारगी मै अपने प्रश्न के लिए शर्म और असहजता महसूस करने लगी पर अब तो ये हो चुका था )माँ ने बड़ी शान्ति और तसल्ली के साथ कहना शुरू किया , बेटा इसकी दो वजहें थीं .....पहली तो ये कि हमारा समाज अन्दर ही अन्दर दो हिस्सों में बंटा हुआ है ...एक पुरुष का और एक स्त्री का ....पुरुष का समाज विस्तृत,ताकतवर और स्वार्थी है ...स्त्री का समाज़ सीमित , कमज़ोर और बंधनपूर्ण है ......हमारे दायरे सुनिश्चित हैं जहां की दहलीज़ हम कभी पार नहीं कर सकते ...हमें सिर्फ बन्धनों का अधिकार हासिल है स्वतन्त्रता का नहीं . तुम्हें पता है जब तुम छोटी थी तो अक्सर कहा करती थी कि हम नानाजी के यहाँ क्यों नहीं जाते ...वहीँ क्यों नहीं रहते ......तब मै तुम्हें टाल देती थी पर आज ऐसा लगता है कि मेरी बेटी बड़ी हो गयी है .....सच्चाई को समझने और स्वीकारने की क्षमता रखने लगी है इसलिए मै आज तुमको वो सबकुछ बताउंगी जो तुम जानना चाहती हो .मै माँ की तरफ देखती रही , खामोश ,जिज्ञासु और पूरी तरह सजग ......उन्होंने कहना शुरू किया ......ये ठीक है कि तुम्हारे नानाजी या मामा बहुत बड़े और बहुत प्रतिष्ठित हैं परन्तु वो सिर्फ उनके लिए है मेरे लिए नहीं ....थोडा -बहुत जो कुछ भी गर्व या सम्मान मुझे उनकी बेटी और बहन होने पर मिल पाता है वो सिर्फ इसलिए क्योंकि मै तुम्हारे पिता के साथ उनके घर में रह रही हूँ ...चाहे भले ही खुश और संतुष्ट न रहूँ .....रोज-रोज की प्रताड़ना झेलू.... साथ ही तुम्हें भी इस चक्की में पिसते हुए देखूं पर मै वहां नहीं जा सकती थी ....शादी के बाद उस घर में मेर लिए जगह सिर्फ एक मेहमान के बतौर थी न कि एक बेटी के जो वहां अपना हक़ समझकर कभी भी जाकर रह सके . मेरा खुद का और साथ ही तुम्हारा सम्मान भी तभी तक सुरक्षित है जब तक हम तुम्हारे पिता के घर में हैं . यदि मै सब-कुछ छोडकर तुम्हें लेकर वहां चली भी जाती तो जिस तरह से वहां का अपमानित जीवन मुझे और तुम्हें जीना पड़ता उससे ये भी हो सकता था कि किसी दिन मै खुद ही तुम्हें मारकर आत्महत्या कर लेती . बेशक वहां मेरी माँ हैं मुझे और तुम्हें संभालने के लिए पर उनकी स्थिति भी एक सामान्य स्त्री की स्थिति से बेहतर नहीं है ....वो चाहकर भी कुछ नहीं कर पातीं .....मेरे पिता और भाई भी हो सकता है मेरा ध्यान रखते और तुम्हें प्यार करते पर समाज के नियमो और पुरुष होने के दंभ का क्या करते ? एक समय के बाद जिस तरह का जीवन मुझे और तुम्हें वहां जीना होता उसको सोचकर ही मै कभी वहां जाने की हिम्मत नहीं कर पायी . कुछ समय के लिए जाने पर जो प्यार और मान-सम्मान हमें मिलता था हमेशा के लिए जाने पर वही धीरे-धीरे एक गलीज़ अपमान में बदल जाता जिसे मै कभी सहन नहीं कर पाती ....मेरी माँ भी नहीं ( और यहीं पर मेरे और माँ के बीच माँ-बेटी का एक गहरा तंतु और जुड़ गया ....मै हौले से मुस्कुरा उठी पर तुरंत ही खुद को सचेत कर लिया ). तुम्हारे पिता के घर में भले ही कुछ ( कुछ ???) मुश्किलें थीं ....तुम्हारा बचपन सहज स्वाभाविक नहीं रहा पर कम से कम ये तो था कि यहाँ हम दोनों ही एक सम्मानजनक जीवन जी रहे हैं .....तुम्हारे पिता के अलावा कोई भी दूसरा व्यक्ति हमसे दुर्व्यवहार करने का दुस्साहस नहीं दिखा सकता और फिर शील ( कभी कभी माँ मुझे इस नाम से भी पुकारती थीं ) बहुत बार तो तुम्हारे पिता भी तुमसे कितना प्यार करते हैं ....है न ? माँ ने मेरी तरफ बड़ी आशा भरी नज़रों से देखते हुए कहा ( ये क्या ? मै स्तब्ध थी ....क्या माँ को वाकई लगता था ऐसा ?) मैंने माँ की आँखों में देखा और फिर धीरे से सिर हाँ में हिला दिया ....माँ संतुष्टि के साथ मुस्कुरा उठीं .
कुछ देर की खामोशी के बाद उन्होंने अपेक्षाकृत धीमी आवाज़ में कहना शुरू किया ....दूसरी वजह ये थी बेटा कि तुम्हारे पिता दरअसल एक अच्छे इंसान हैं .....बहुत अच्छे ....बहुत प्रेम करने वाले ( ये मै क्या सुन रही थी ....मैंने तो ऐसा कभी महसूस नहीं किया था ).एक वक्त था कि जब वो मुझे बहुत मानते थे ....बहुत सम्मान करते थे ( अपनी बड़ी हो चुकी बेटी के सामने वो ...बहुत प्रेम करते थे ....जैसे वाक्य कहने से बच रही थीं इसे समझकर मै अन्दर ही अन्दर मुस्कुरा उठी ). मेरी हर इक्छा का ख़याल रखते थे ...शुरू-शुरू में कितनी ही बार तुम्हारी दादी के जबरदस्त गुस्से से उन्होंने मुझे बचाया था ....बिना कहे ही वो बहुत कुछ ऐसा कर देते थे और जताते तक नहीं थे .....जो मुझे पसंद होता था ( अब मेरे हैरान होने की बारी थी ). जब तुम पैदा हुई थी तब तुम्हारे पिता बहुत खुश हुए थे बावजूद इसके कि तब बेटियों के जन्म पर घोषित रूप से मातम मनाया जाता था ...तुम्हारे पिता के इस व्यवहार ने उस दिन मुझे कितना सम्मान दिया मै बता नहीं सकती . तुम्हारी दादी तुम्हारे पैदा होने से बहुत नाराज़ थीं ...कई बार तुम्हारे पिता और तुम्हारे दादाजी ने उन्हें समझाने की कोशिश की पर दिन ब दिन वो जब और भी मुखर रूप से मुझे कोसने लगीं तो फिर एक दिन तुम्हारे पिता ने मुझे और तुम्हें लेकर घर छोड़ दिया .इस बात का तुम्हारी दादी को बहुत सदमा लगा ...शायद अपमान भी महसूस हुआ होगा कि जिसकी वजह से उन्होंने मुझे कभी भी माफ़ नहीं किया ...तुम्हारे पिता ये सब समझते थे इसीलिए कई बार मेरे कहने और जिद्द करने के बावजूद भी कभी मुझे लेकर अपने गाँव दुबारा नहीं गए ( मै स्तब्धता की स्थिति में अपने पिता के इस नए रूप से परिचित हो रही थी )हालांकि वो नियमित तौर पर वहां जाते थे ....तुम्हारे दादा-दादी की देखभाल सही तरीके से हो इसका पूरा ध्यान रखते थे पर मुझे वापस कभी उस गाँव में लेकर नहीं गए . तुम्हारे दादा-दादी के देहांत के तकरीबन एक साल बाद जब वो गाँव से लौट रहे थे तभी उनके साथ एक जबरदस्त दुर्घटना हुई और उसके बाद से ही हम तीनो के जिन्दगी की दिशा बदल गयी . जिस डॉक्टर ने तुम्हारे पिता का इलाज़ किया था उसने मुझे कहा था कि अब आपको इनके साथ जीवन भर बहुत सावधानी से रहना होगा .....इनके दिमाग पर ज्यादा दबाव नहीं पडना चाहिए .....इनकी सहनशक्ति अब पहले से मात्र १० प्रतिशत ही रह गयी है ....अब आपको ही इन्हें पूरी तरह संभालना होगा . उस दिन बेटा मेरी ये तो समझ में आ गया कि अब काफी कुछ बदलने वाला है ...पर जिस तरह से और जितना बदला उतना मैंने नहीं सोचा था . आगे के हालात के लिए मै खुद को मजबूत करने लगी ...फिर भी दिन-प्रतिदिन के होने वाले क्लेश ने मुझे प्रभावित करना शुरू कर दिया . एक बात और आज मै तुम्हें बेहद ईमानदारी से बताना चाहती हूँ ....यकीन कर सको तो जरूर करना .....कई बार जब तुम्हारे पिता तुमको प्रताड़ित करते या तुम पर आघात करते तो उसके बाद उनको मैंने अकेले में बहुत विचलित और परेशान महसूस किया है .....कई बार तो शर्मिन्दा भी ....वो ये सब करना नहीं चाहते थे पर वो खुद को संभाल नहीं पाते थे और पिता होने और उससे भी ज्यादा पुरुष होने के अहम् ने ही शायद उन्हें कभी तुम्हारे सामने पश्चाताप नहीं करने दिया .....उनका नियंत्रण भी खुद पर काफी कम हो गया था ( आज मै अपने पिता के व्यक्तित्व के नए पहलुओं से परिचित हो रही थी एक सुखद अनुभूति के साथ .)ऐसे में तुम ही बताओ शील मै उन्हें छोड़कर कैसे जा सकती थी और अनजाने ही मेरी माँ के मुंह से एक वाक्य निकला जिससे मै स्तब्धता की पराकाष्ठा पर पहुँच गयी......मै अन्दर से हिल गयी थी अर्चना ...हल्की सी लम्बी सांस के साथ उन्होंने कहा ....उनके प्रेम के लिए तो मै उनके साथ न जाने कितने जन्म और जीने के लिए तैयार हूँ .....पर फिर तुरंत ही सचेत हो गयीं . उन्होंने मुझे अपने गले से लगाया ....मैंने अचानक ही महसूस किया कि हम दोनों की ही आँखें नम हैं ....कुछ पलों तक हम दोनों एक दुसरे को देखते रहे फिर उन्होंने मुझे थपथपाया और अपने कमरे में जाकर लेट गयीं ......शायद ये सब कह लेने के बाद वो खुद को बहुत खाली-खाली और हल्का महसूस कर रही थीं ....अपने आप को सामान्य करने के लिए उन्हें कुछ वक्त अपने साथ बिताने की जरूरत थी . मै धीरे-धीरे उनके पास गयी ...उन्हें चादर ओढाया और दरवाज़ा भिडकाकर बाहर आ गयी . दरअसल मुझे भी सब कुछ समझने और स्वीकारने के लिए खुद के साथ एकांत की जरूरत थी .....आज मै अपने पिता को एक नयी अंतर्दृष्टि से देख पा रही थी .....आज मुझे माँ और पिता के इतने घनिष्ठ सम्बन्ध का परिचय मिला था ....और ये सोचकर तो मुझमे कम्पन ही उभर आया था अर्चना कि मेरी माँ और मेरे पिता का प्रेम कितना गहन और कितना महान था और यही वो सूत्र था कि मेरी माँ इतने सालों तक सबकुछ बर्दाश्त करती रहीं ...यहाँ तक कि अपनी बेटी के साथ उनका दुर्व्यवहार को भी और फिर उनका एकांत पश्चाताप भी . ... आज मेरे पिता और मेरी माँ दोनों ही एक नए रूप में जन्मे थे मेरे लिए और मै भगवान् से सिर्फ दुआ करने की स्थिति में थी कि वो सभी नकारात्मकताओं को परे हटाकर मेरी माँ के साथ उनके प्रेम को ही सर्वोच्च बना दे , सर्वश्रेष्ठ बना दे ....मै रो रही थी ...पर ये वो तकलीफ और घुटन थी जो बचपन से मेरे अन्दर इकट्ठा थी और जो अब बहकर निकल रही थी क्योंकि मै अन्दर से पूरी तरह स्वक्ष और खाली हो जाना चाहती थी कि अब हर बार मै सिर्फ अपने पिता के प्रेम को चाहे वो बूँद भर ही मेरे लिए हो क्यों न हो पर उसे ही समेटूं ...खुले दिल , खुली सोच और खुली बाहों से . इतना कहकर वैशाली चुप हो गयी फिर धीरे से बोली ...पर जो सोचो जो चाहो वो हो ही जाए ....ऐसा तो कम ही होता है न . आहिस्ता से जब उसकी तरफ मैंने देखा तो वो कहीं खोयी हुई सी लग रही थी .
अब उसने फिर से कहना शुरू किया .....इस घटना के बाद मेरे अन्दर पिता के लिए जो भाव थे ...जो क्रोध और नफरत थी वो धीरे-धीरे बदलने लगी ( ख़त्म तो शायद आज तक नहीं हुई थी ऐसा मुझे उसे देखकर लगा ).
अब मै उनसे सलीके से व्यवहार करती ...उन्हें आश्चर्य तो जरूर होता होगा पर उन्होंने कभी कुछ पूछा नहीं पर हाँ इससे माँ के चेहरे पर संतोष और खुशी अवश्य ही झलकने लगी थी . कुछ समय के बाद धीरे-धीरे मेरे पिता बीमार रहने लगे ....मेरी माँ तो मानो इस स्थिति से बौखला ही उठी थीं .....उन्हें पिता के तेजतर्रार व्यक्तित्व की आदत पड गयी थी जो वो उन्हें इस तरह से नहीं स्वीकार कर पा रही थीं ....एक दिन पिता को हस्पताल में भरती कराना पडा ....अविनाश ने , जो वहीँ पर डॉक्टर थे ....इस मामले में हमारी बहुत मदद की ....और उसके बाद भी वो अक्सर हाल-चाल पूछने आते रहते थे . मेरी आँखों में कौंधे प्रश्न को समझकर वैशाली मुस्कुरा दी ..अविनाश ....वही जिनसे तुम अभी मिली थी और जिनसे मेरी मंगनी होने वाली है ....ये जानकार मै भी मुस्कुरा उठी . वैशाली ने फिर कहा ....हस्पताल में जिस समय मेरे पिता भर्ती थे लगभग उस पूरे समय अविनाश आस-पास ही बने रहे ....हर मदद को तैयार ...बिना कहे या जताए .
अब उसने मेरी तरफ देखा .....तुम्हें पता है अर्चना ......अविनाश को मेरे लिए मेरे पिता ने ही चुना है . जिस सच को मै ....मेरी माँ और खुद अविनाश भी नहीं समझ पाए थे उसे मेरे पिता समझ गए थे . जिस दिन उनका देहांत हुआ उसी दिन उन्होंने मुझसे कहा था ...वैशाली , बेटा....मैंने जिन्दगी में तुम्हारे साथ बहुत अन्याय किया है .....तुम्हें वो सब नहीं मिला जो तुम्हारा हक़ था ..पर बेटे एक बात मै आज तुम्हें कहना चाहता हूँ ...मानना या न मानना तुम्हारे ऊपर है ...मुझे तुम्हारे लिए अविनाश बहुत पसंद है . इतना कहकर वो चुप हो गए ...मै भी उनकी ये बात सुनकर अवाक रह गयी पर मैंने कुछ कहा नहीं ....कुछ ही देर के बाद पता चला कि पिता नहीं रहे ...तो क्या उन्होंने अपने मौत की आहट सुन ली थी जो वो इतनी बड़ी बात कह गए ....खैर , माँ तो जैसे पागल ही हो गयीं ......उसके बाद क्या हुआ ...कैसे हुआ ...मुझे कुछ पता नहीं .....सारा भार अविनाश ने अपने कन्धों पर ले लिया ....वो जो भी कहते मै कर देती . पिता की अंतिम क्रिया से लेकर बाक़ी की सारी रस्मे और साथ ही माँ को भी संभालना ये सारे दायित्व अविनाश ने स्वेक्छा से उठाये और किसी परिवार के सदस्य की तरह पूरे किये .....मुझे इसकी जटिलता का आभास तक नहीं होने दिया और इस तरह एक बार फिर खुशियाँ मुझ तक आते -आते रह गयीं ....इस बार वक्त ने बड़ी निर्ममता से अपनी लाठी चलाई थी और वो भी पूरे शोर के साथ .
कुछ समय के बाद जब सबकुछ सामान्य होने लगा .....धीरे-धीरे माँ भी और जिन्दगी एक बार फिर अपने पुराने ढर्रे पर वापस लौटने लगी तभी अचानक मुझे महसूस हुआ कि जैसे अविनाश मुझसे और माँ से कहीं जुड़ने से लगे हैं .....मैंने एक बार फिर आदतन खुद को बहुत सख्त कर लिया ....ये एक तरह की अहसानफरामोशी थी कि जिस अविनाश ने हमारे लिए इतना किया.....मुश्किलों में चट्टान की तरह खड़े रहे उनके साथ ही अब मै इतना रुखा व्यवहार करने लगी थी पर क्या करूं ...मै अपनी आदत से विवश थी ....मैंने उनसे कुछ कहा तो नहीं पर शायद वो समझ गए ...उन्होंने हमारे यहाँ आना कम कर दिया और कुछ समय के बाद एकदम ही बंद. मुझे उनकी कमी खलती तो थी पर मैंने अपने आपको पूरी तरह नियंत्रित किया हुआ था ......एक बार जब कई दिनों तक अविनाश नहीं आये तो एक शाम माँ ने मुझसे पूछा कि क्या बात है ....आजकल अविनाश नहीं आते ....कहीं तुमने उनसे कुछ कह तो नहीं दिया ....आने से मना तो नहीं कर दिया ...फिर मुझे अपनी तरफ देखता पाकर बोलीं .....एक बात कहूं बुटुल( बहुत प्यार से माँ मुझे इसी नाम से बुलाती थीं )...मैंने कहा ....बोलिए .....उनकी आँखें भर आयीं और उन्होंने कहा ......तुम्हारे पिता ने तुम्हारे बारे में अविनाश से कहा था .....उन्हें तुम्हारे लिए अविनाश बहुत पसंद थे .....अविनाश भी तुमको बहुत पसंद करते हैं ....उन्होंने तुम्हारे पिता से वादा किया था कि अगर तुम्हें कोई आपत्ति नहीं होगी तो वो तुमसे अवश्य ही विवाह करेंगे ....ये उनकी आखिरी इक्छा थी ....मैंने माँ की तरफ प्रश्नवाचक नज़रों से देखा तो ऐसा लगा जैसे माँ कह रही हों ..हाँ बुटुल मेरी भी ....मेरी ,क्योंकि ये तुम्हारे पिता की मर्जी थी इसलिए ही मेरी भी मर्जी है ...माँ चुप थीं ....मै चुपचाप उठकर वहां से चली आयी ....अब मुझे अपने अन्दर बेतरह बेचैनी और खालीपन का एक अजीब सा अहसास हुआ ....मै अचानक ही पिछले दिनों की अपनी उलझन का कारण समझ गयी थी.....उस सारी रात मै सो नहीं पायी .....मेरी पिछली पूरी जिन्दगी किसी चलचित्र की तरह मेरी आँखों से , जहन से और भावनाओं के उफान से गुजर रही थी....रात भर मै माँ-पिता और अपने बारे में सोचती रही ...उन परिस्थितियों और घटनाक्रम के बारे में सोचती रही ....कारण और परिणाम के बारे में ....फिर एक पल रुककर वैशाली ने कहा और सबसे ज्यादा अपनी माँ के उस अद्भुत और महान प्रेम के बारे में ....अपने पिता की मूक भावनाओं के बारे में ...अपने प्रेम को दर्शा न पाने और फिर उनकी बेचैनी के बारे में ...मेरे प्रति अनियंत्रित दुर्व्यवहार और फिर परिणामस्वरूप उत्पन्न ग्लानी के बारे में और फिर जैसे अचानक ही कुछ कौंध गया मेरे अन्दर .....अब मै एक निर्णय ले चुकी थी ( भावनाओं का मनोविज्ञान बहुत गहराई से असर करता है ये उस रात ही जाना था मैंने ) . अगले दिन सुबह तैयार होकर मैंने माँ से कहा .....माँ , मै अविनाश से मिलने जा रही हूँ .....माँ ने हाँ में सिर हिलाया और मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए संतुष्टि से मुस्कुरा दीं . मै हस्पताल आयी तो ये जानकर सन्न रह गयी कि अविनाश अब वहां काम नहीं करते ....मै छटपटा उठी थी ....एक नर्स से उनका पता लेकर मै उनसे मिलने यहाँ आयी ......हॉस्पिटल में अचानक ही अपने सामने मुझे पाकर अविनाश चौंक उठे .....अरे तुम ....यहाँ .......फिर मुझे लेकर अपने घर आये ..........बात-चीत के दौरान उन्होंने बताया कि वो अनाथ हैं ...पढ़-लिखकर डॉक्टर तो बन गए पर हैं बिलकुल अकेले ही ......मैंने अनायास ही कहा ......क्या अब भी ? और अचानक ही ये खुलकर मुस्कुरा उठे ....कहा , .....नहीं ..अब नहीं ......और फिर माँ को फोन करके बताया कि कुछ ही दिनों में ये यहाँ से त्यागपत्र देकर मेरे साथ वापस लौटेंगे शादी करने के लिए .और बस उसी की खरीदारी करते वक्त तुम मिल गयीं ......पर सच कहती हूँ अर्चना ....आज लगता है कि काश पापा होते ....उसका गला भर आया था .....मै भी उसके इन शब्दों से द्रवित हो उठी पर कुछ पलों के बाद उसने फिर कहा ....पर फिर भी जब आज तुमको सब सच बता ही दिया है तो एक और सच जरूर कहूंगी .....मै अपने बचपन और उस प्रेम , अधिकार और व्यक्तित्व की जटिलताओं के लिए शायद कभी भी अपने पिता को पूरी तरह माफ़ न कर पाऊं बावजूद इसके कि अब मै भी कहीं न कहीं उनसे प्रेम करने लगी हूँ ..इसके बाद कुछ देर तक निस्तब्धता की स्थिति रही ......अचानक ही वैशाली खुलकर मुस्कुराई ......मै भी . ....उसने कहा ...तो ये थी इस वैशाली की अब तक की कहानी . अब हम ही दोनों एक दुसरे की हथेली थामकर कुछ देर बैठे रहे ...जो कुछ इस दरमियान घटा था उसे महसूसते रहे ...एक दिशा देते रहे .
कुछ देर के बाद उसने बड़ी सहजता से फोन करके अविनाश को बुला लिया जो बेहद अधीरता से उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे ...उनके आने पर मैंने उनसे वैशाली का इतना वक्त लेने के लिए माफी माँगी साथ ही ये भी कहा कि अब तो ये हमेशा आपके साथ ही रहने वाली है इसलिए उम्मीद है कि आप ज्यादा नाराज़ नहीं होंगे ....वैशाली मुस्कुरा दी और स्थिति का अंदाजा लगते ही अविनाश खिलखिलाकर हंस पड़े ....जाते वक्त दोनों ने मुझे अपनी शादी में आमंत्रित किया ...मैंने भी हामी भरी बावजूद इसके कि मुझे पता था कि ये संभव नहीं होगा . मैंने उन दोनों को शुभकामनायें दीं और वो चले गए .
इस तरह से आज मै वैशाली को समझ पायी थी ....अविनाश को देखकर ऐसा लगा कि शायद कुछ ही समय में वैशाली अपने सारे ज़ख्मों और प्रश्नों को भुलाकर एक सुखद जीवन जी सकेगी पर कहीं न कहीं मुझे ये भी महसूस हुआ कि अपनी बचपन की त्रासदियों और अधूरेपन के लिए शायद वो अपने पिता को कभी भी पूरी तरह माफ़ नहीं कर पायेगी बावजूद इसके कि इस सबमे उसके पिता कोई ख़ास दोषी नहीं थे ....पर मन तो ये सब नहीं समझता न .....................और वो भी एक बेटी का भावुक मन ( यही बात उसने खुद भी मुझसे कही थी ).....उसकी जिन्दगी के लिए मैंने दिल से दुआ की और संतुष्टि के साथ अपने घर की तरफ बढ़ चली . आज कई प्रश्नों के उत्तर पूरी साफगोई और ईमानदारी से मिल चुके थे और अंतर्मन बहुत शांत, बहुत राहत महसूस कर रहा था .
ये कहानी पढ़ते वक्त शायद कईयों को लग सकता है कि आजकल तो ऐसा नहीं होता पर मै आप सबको यकीन दिलाना चाहती हूँ कि आज भी असंख्य घरों में कई वैशालियाँ रहती हैं ....सबको नज़र नहीं आतीं बस ...जैसे ये वैशाली सबको नज़र नहीं आयी थी ...या फिर अगर आई भी हो तो किसीने भी इसे समझने की कोशिश नहीं की उलटा घमंडी और असभ्य तक कहा.....अपनी मासूमियत में ही सही पर उसके दोस्तों ने उसके सामने ही उसका मजाक तक उड़ाया ...ऐसे समय में क्या उनके माता-पिता का या समाज का ये दायित्व नहीं बनता था कि वो उनकी सोच और समझ को सही और उचित दिशा देते .....और तब शायद वैशाली का व्यक्तित्व इस कदर उलझा और अधूरा न होता ....तब शायद वो अपने पिता से इतना नफरत भी न करती और तभी शायद वो उनसे कहीं न कहीं प्रेम भी कर पाती और उनका सम्मान भी .हमारे आपके घरों के आस-पास भी हो सकता है कुछ वैशालियाँ रहती हों ...बस इन्हें कुछ ख़ास अंतर्दृष्टि से देखने और समझने की जरूरत होती है ...ये हमारे साथ की न कि उपेक्षा की हकदार हैं ..........और वैसे भी अगर न समझ सकें तो आप ये कहने के लिए पूरी तरह आज़ाद हैं कि हुंह ...ये कहानी तो एक पीढी पुरानी हैं!!
अर्चना राज़
इतना कहकर वो रुकी ......हल्की लम्बी सांस ली फिर मेरी तरफ देखकर हौले से मुस्कुरा दी .....मै भी ....पर अब उसके बारे में सब कुछ जानने की जिज्ञासा और भी तीव्र हो रही थी .कुछ देर के बाद उसने फिर से कहना शुरू किया ......पता है , मै माँ से अक्सर कहती थी कि आप मुझे लेकर नाना जी के यहाँ क्यों नहीं चली जातीं ....माँ मेरी तरफ देखतीं फिर हलके से मुस्कुरा देतीं और कहतीं ...जरूर चलूंगी बेटा....तुम्हारी छुट्टियाँ तो शुरू होने दो ....कई बार तो मै चुप रह जाती पर कभी-कभी जिद्द करने लगती कि नहीं ....हम तब तक इंतज़ार नहीं करेंगे ....हम अभी जायेंगे .....आप मेरा नाम वहीँ के स्कूल में लिखवा देना .....वहां पर तो सब लोग आपको कितना मानते हैं , कितना प्यार करते हैं ...आप जो कहती हैं सब होता है और वहां तो कोई आपको और मुझे डांटता भी नहीं .....मेरी माँ सुनतीं ....मेरी तरफ देखतीं ...और मुस्कुराकर टालने वाले अंदाज़ में कहतीं ......अच्छा ठीक है ....अभी चलेंगे पर अभी तो तुम जाओ खेलो ....मुझे कुछ काम करने दो ...इतना कहकर वो उठकर चली जातीं .....कुछ एक बार जब मै उनके पीछे जाती तो माँ को कभी चुपचाप तो कभी अपने कमरे का दरवाज़ा बंद करके रोता हुआ सुनती ......मै स्तब्ध हो जाती थी अर्चना ....मेरा मन ग्लानि से भर जाता था . मुझे लगता माँ मेरी वजह से रो रही हैं ....मैंने उन्हें रुला दिया ....मै कितनी बुरी हूँ ...फिर मै घंटों अकेले बिता देती थी ये सोचते हुए कि मैंने ऐसा क्यों किया या फिर आइन्दा ऐसा कभी नहीं करूंगी और माँ को खुश करने के कुछ तरीकों के बारे में सोचते हुए ....पर कई बार मुझे ये भी लगता था कि आखिर मैंने ऐसा कहा क्या कि माँ रोने लगीं ....मैंने तो कोई गलत बात नहीं कही फिर मुझे याद आता कि जब भी हम नानाजी के यहाँ जाते थे तो सभी हमें कितना प्यार करते थे ....हर छोटी-बड़ी जरूरत का ख़याल रखते थे फिर भी माँ वहां क्यों नहीं जाना चाहतीं ....क्यों यहीं रहकर पिता को बर्दाश्त करती हैं और मुझे भी उन्हें सहना पड़ता है . ऐसे ही ढेरों सवालों के बीच मै डूबती-उतराती रहती .....सुलझता तो कुछ भी नहीं पर बड़ी ख़ामोशी से कहीं मेरा व्यक्तित्व बहुत उलझता जा रहा था . अपने होने ..अपने पहचान के लिए भी मै कोशिश नहीं कर पा रही थी क्योंकि घर की आये दिन की कलह मुझे खामोश और दब्बू बनाती जा रही थी . जितना ही मै खुद को साबित करने के लिए आगे बढ़ती उतनी ही तीव्रता से मै खुद को हीनता के बोझ से दबा हुआ पाती . मेरी माँ हालांकि मुझे खुश रखने की हर संभव कोशिश करतीं पर मेरे अन्दर बहुत बुरी तरह से हो रहे मनोवैज्ञानिक बदलाव को शायद वो भी नहीं समझ पा रही थीं . ऐसा नहीं था कि मेरे पिता हमेशा बुरा व्यवहार ही करते थे ....कई बार वो बेहद शालीनता , अपनेपन और प्यार से भी पेश आते थे ...पर ये कुछ ही वक्त के लिए होता था और मै इसे जीने की बजाय ये सोच कर सहम जाती थी कि न जाने कब या किस बात से फिर पिता का मूड खराब हो जाएगा और वो बदल जायेंगे इसलिए मै इन पलों को बहुत सहेजकर रखना चाहती थी ...ये पल मेरी जिन्दगी के शानदार पल हुआ करते थे ....मै अपने उन सभी दोस्तों को बुलाकर दिखाना चाहती थी कि देखो मेरे पापा भी मुझसे प्यार करते हैं ....मेरा ख़याल रखते हैं जिन्हें कई बार मैंने उनकी आँखों में कौंधे प्रश्नों या फिर कई बार सीधा ही पूछ लिए जाने की अभद्रता करते हुए झेला था .....पर मै ऐसा नहीं कर पाती थी क्योंकि मुझे हमेशा ये डर रहता कि कहीं फिर से उनका मूड खराब न हो जाए ( पर मेरे समस्त डर,ख़याल और दुआओं के बाद भी ये तो होना निश्चित ही था और जिसके हो जाने पर कई बार अफ़सोस होता कि मैंने क्यों नहीं बुलाकर अपने दोस्तों को उनसे मिलवा ही दिया पर तब तक तीर कमान से निकल चुका होता था ).
शायद यही वजह थी कि घर में मै ,जो पूरा दिन मिलाकर बमुश्किल ही कुछ शब्द बोलती थी ....बस उतना ही जितना जरूरी हो .....घर के बाहर बहुत बिंदास हो जाती थी ....मै बिलकुल नहीं चाहती थी कि कोई मेरे घर की सच्चाइयों के बारे में जाने ....मेरे माता-पिता और मेरे बीच समान रूप से फैली तल्खियों और अधूरेपन को जाने ....मेरी बेचारगी को निशाना बनाए या फिर मुझसे सहानुभूति जताकर मेरा अपमान करे . पता है तुम्हें अर्चना , मै सब के लिए ...सब के पास होना चाहती थी पर कोई मेरे करीब आये इसे मै अनजाने ही स्वीकार नहीं कर पाती थी और खुद को बेहद सख्त कर लेती थी ....शायद यही वजह रही कि आज तक कोई मेरी बेस्ट frnd नहीं बनी बल्कि कहूं तो कोई दोस्त तक नहीं बनी .....मित्रता सबसे थी पर मेरा मित्र कोई नहीं था .बहुत से कोमल एहसास जो इस उम्र में होते हैं मै महसूस ही नहीं कर पायी ....कहीं कुछ विचलन होता तो था ...अंतस छटपटाता तो था मगर क्यों .....ये कभी समझ नहीं आया ...और किसी से पूछ सकूं इतनी हिम्मत नहीं थी और फिर ऐसा कोई था भी तो नहीं ...कहकर वैशाली बेचारगी से हंस पडी ....मै अन्दर से आर्द्र महसूस कर रही थी पर ऊपर से खुद को सामान्य बनाए रखा .
अब उसने कहा ....इसी माहौल में मै बड़ी होती रही ....थोड़े से अपनेपन ,प्यार पर बहुत सारे सवालों ...उलझनों और हीनता के बोध के साथ . फिर मेरे पिता का ट्रान्सफर उस शहर में हुआ जहां के कॉलेज में दाखिला लेने पर मेरी तुमसे पहचान हुई .पहचान भर ही न ? इतना कहकर वैशाली शरारत से मेरी तरफ देखकर मुस्कुरायी ....मैंने चौंककर उसकी तरफ देखा .....शायद इसलिए कि इतने विषाद के साथ वो मुस्कुरा कैसे पा रही है ...पर फिर मै भी मुस्कुरा दी .
उसने फिर कहा ,.... यहाँ आने पर मुझे लगा था कि शायद अब मुझे उस घुटन से निकलने का मौका मिलेगा जो बचपन से मेरे अन्दर और आस-पास पूरी चेतना के साथ मौजूद रहती थी ....क्योंकि अब मै कुछ बड़ी हो गयी थी ....बातों को और माहौल को अलग तरीके से देखने और जूझने के तरीके सीख रही थी ....मै इन दुश्वारियों के साथ लड़ना और जीतना चाहती थी ...अपनी माँ के लिए और उससे भी ज्यादा खुद अपने लिए ...क्योंकि मै खुद को ये यकीन दिलाना चाहती थी कि मै लड़ सकती हूँ और सफलता पूर्वक जीत भी सकती हूँ ...अपने पिता को भी अपने हौसलों और जिद्द से परिचित कराना चाहती थी क्योंकि इस उम्र में आपका अस्तित्वबोध पूरी सक्रियता के साथ चेतन होता है ....कुछ कर गुजरने के भाव के साथ .मै अब अपने पिता से टक्कर लेने लगी थी पर कुछ ही समय बाद मुझे महसूस हुआ कि ये तरीका पूरी तरह नाकाम ही साबित होगा क्योंकि उस दौरान मै माँ के चेहरे पर एक अलग किस्म का तनाव , विषाद ,डर और हार भी महसूस करती थी जो मैंने कभी नहीं चाहा और जो मै कभी भी स्वीकार नहीं कर सकती थी ...इसके साथ ही घटना के तुरंत बाद से ही घर के माहौल में घुटन और बढ़ जाती ....मेरी माँ असामान्य महसूस करने लगतीं ( बाद में मुझे अचानक ही एक दिन पता चला कि ऐसी घटनाओं के बाद पिता जिस हिकारत की नज़र से माँ को देखते थे वो शायद माँ को अपने परवरिश पर प्रश्नचिन्ह सी महसूस होती थी ......) और मै ऐसा कैसे होने दे सकती थी ...कभी भी और किसी भी कीमत पर नहीं . मैंने पिता का विरोध करना बंद कर दिया ( शायद मै माँ को अब कुछ बेहतर समझ पा रही थी ). मेरे पिता भी धीरे-धीरे अब कुछ सामान्य होने लगे थे ( कुछ ही ....क्योंकि आदतें कभी नहीं बदलतीं )शायद ये उम्र का तकाज़ा ही रहा हो क्योंकि उम्र की सच्चाई पूरी कठोरता से इंसान पर हावी होती है जिसे वो चाहे या न चाहे पर स्वीकारना ही पड़ता है .....अब .मेरी माँ थोडा खुश रहने लगी थीं और मेरे लिए मेरी माँ का खुश होना ज्यादा मायने रखता था बनिस्बत अपने पिता के सामान्य होने से .मैंने खुद को समेट लिया ....घर में मै ज्यादा से ज्यादा वक्त अपनी माँ के साथ बिताती . अब माँ मुझसे लगभग बराबरी का व्यवहार करने लगी थीं ...उन्हें लगता था कि मै अब बड़ी हो गयी हूँ ...शायद अब परिस्थितियों को समझने और स्वीकारने की क्षमता मुझमे ज्यादा विकसित रूप में है . वो मुझे कई बार अपने आरामदायक और रईसी के बीच बड़े हुए बचपन के बारे में बतातीं ....अपने खिलौनों के बारे में ...कपड़ों के बारे में ....जिद्द के बारे में और ये भी कि किस तरह वहां उनके सभी नखरे उठाये जाते थे ......बहुत आश्चर्यजनक सुकून मिलता था माँ के बचपन को जानकार पर सच कहूं अर्चना तो एक हलकी सी इर्ष्या भी बड़ी दुष्टता से अपने फन उठाती थी जिसके लिए मै खुद को कई बार धिक्कारती भी थी पर आज लगता है कि हर इंसान के लिए शायद उसका स्व ही सबसे पहले होता है ( पूरी निर्ममता और कटुता के साथ भी पर सच यही है ).
एक दिन बातों-बातों के दौरान मैंने कहा , माँ.....एक बात पूछूं ......आप नाराज़ तो नहीं होंगी ? वो हंसने लगीं और बोलीं , अच्छा ...तो अब तुम्हें मुझसे ये भी पूछना होगा ......मैंने कहा ...बताइये न माँ ......आप नाराज़ तो नहीं होंगी ? उन्होंने मुस्कुराते हुए मेरी तरफ देखकर ना में गर्दन हिलाई पर मेरी आँखों की गंभीरता देखकर वो भी शायद सचेत हो गयी थीं ( ऐसा मुझे महसूस हुआ ).मै कुछ देर चुप रही क्योंकि मेरी हिम्मत नहीं हो रही थी कि मै माँ से वो पूछूं जो मै वाकई जानना चाहती थी ......कुछ पलों की खामोशी के बाद माँ ने ही कहा ....अब पूछो भी ...इतना क्या सोचना .....बेटा, जो मन में हो कह देना चाहिए वरना गांठें पड जाती हैं ....मैंने एक पल उनकी तरफ देखा फिर चेहरा नीचे कर आहिस्ता से उनसे पूछ ही लिया .....माँ , आप क्यों इतने सालों तक पिता के साथ रहीं ? आप उन्हें छोड़कर भी तो जा सकती थीं न ? माँ चौंक उठीं ( उन्हें ये तो पता रहा ही होगा कि ये प्रश्न कभी न कभी उठेगा पर इस तरह से अचानक और इतनी जल्दी ....शायद इसकी उम्मीद नहीं थी उन्हें ....शायद अभी वो इसका सामना करने के लिए तैयार नहीं थीं या फिर शायद उन्हें मेरी उम्र की परिपक्वता पर भरोसा न रहा हो .....ये भी संभव है कि शायद उन्होंने खुद ही कोई समय और तरीका निश्चित किया हो मुझे ये सब बताने का पर अब तो प्रश्न सामने आ गया था जिसका जवाब उन्हें देना ही था ....आज वो इसे नहीं टाल सकती थीं )पर कुछ पलों बाद उन्होंने मेरे सिर पर हाथ फेरा ( एकबारगी मै अपने प्रश्न के लिए शर्म और असहजता महसूस करने लगी पर अब तो ये हो चुका था )माँ ने बड़ी शान्ति और तसल्ली के साथ कहना शुरू किया , बेटा इसकी दो वजहें थीं .....पहली तो ये कि हमारा समाज अन्दर ही अन्दर दो हिस्सों में बंटा हुआ है ...एक पुरुष का और एक स्त्री का ....पुरुष का समाज विस्तृत,ताकतवर और स्वार्थी है ...स्त्री का समाज़ सीमित , कमज़ोर और बंधनपूर्ण है ......हमारे दायरे सुनिश्चित हैं जहां की दहलीज़ हम कभी पार नहीं कर सकते ...हमें सिर्फ बन्धनों का अधिकार हासिल है स्वतन्त्रता का नहीं . तुम्हें पता है जब तुम छोटी थी तो अक्सर कहा करती थी कि हम नानाजी के यहाँ क्यों नहीं जाते ...वहीँ क्यों नहीं रहते ......तब मै तुम्हें टाल देती थी पर आज ऐसा लगता है कि मेरी बेटी बड़ी हो गयी है .....सच्चाई को समझने और स्वीकारने की क्षमता रखने लगी है इसलिए मै आज तुमको वो सबकुछ बताउंगी जो तुम जानना चाहती हो .मै माँ की तरफ देखती रही , खामोश ,जिज्ञासु और पूरी तरह सजग ......उन्होंने कहना शुरू किया ......ये ठीक है कि तुम्हारे नानाजी या मामा बहुत बड़े और बहुत प्रतिष्ठित हैं परन्तु वो सिर्फ उनके लिए है मेरे लिए नहीं ....थोडा -बहुत जो कुछ भी गर्व या सम्मान मुझे उनकी बेटी और बहन होने पर मिल पाता है वो सिर्फ इसलिए क्योंकि मै तुम्हारे पिता के साथ उनके घर में रह रही हूँ ...चाहे भले ही खुश और संतुष्ट न रहूँ .....रोज-रोज की प्रताड़ना झेलू.... साथ ही तुम्हें भी इस चक्की में पिसते हुए देखूं पर मै वहां नहीं जा सकती थी ....शादी के बाद उस घर में मेर लिए जगह सिर्फ एक मेहमान के बतौर थी न कि एक बेटी के जो वहां अपना हक़ समझकर कभी भी जाकर रह सके . मेरा खुद का और साथ ही तुम्हारा सम्मान भी तभी तक सुरक्षित है जब तक हम तुम्हारे पिता के घर में हैं . यदि मै सब-कुछ छोडकर तुम्हें लेकर वहां चली भी जाती तो जिस तरह से वहां का अपमानित जीवन मुझे और तुम्हें जीना पड़ता उससे ये भी हो सकता था कि किसी दिन मै खुद ही तुम्हें मारकर आत्महत्या कर लेती . बेशक वहां मेरी माँ हैं मुझे और तुम्हें संभालने के लिए पर उनकी स्थिति भी एक सामान्य स्त्री की स्थिति से बेहतर नहीं है ....वो चाहकर भी कुछ नहीं कर पातीं .....मेरे पिता और भाई भी हो सकता है मेरा ध्यान रखते और तुम्हें प्यार करते पर समाज के नियमो और पुरुष होने के दंभ का क्या करते ? एक समय के बाद जिस तरह का जीवन मुझे और तुम्हें वहां जीना होता उसको सोचकर ही मै कभी वहां जाने की हिम्मत नहीं कर पायी . कुछ समय के लिए जाने पर जो प्यार और मान-सम्मान हमें मिलता था हमेशा के लिए जाने पर वही धीरे-धीरे एक गलीज़ अपमान में बदल जाता जिसे मै कभी सहन नहीं कर पाती ....मेरी माँ भी नहीं ( और यहीं पर मेरे और माँ के बीच माँ-बेटी का एक गहरा तंतु और जुड़ गया ....मै हौले से मुस्कुरा उठी पर तुरंत ही खुद को सचेत कर लिया ). तुम्हारे पिता के घर में भले ही कुछ ( कुछ ???) मुश्किलें थीं ....तुम्हारा बचपन सहज स्वाभाविक नहीं रहा पर कम से कम ये तो था कि यहाँ हम दोनों ही एक सम्मानजनक जीवन जी रहे हैं .....तुम्हारे पिता के अलावा कोई भी दूसरा व्यक्ति हमसे दुर्व्यवहार करने का दुस्साहस नहीं दिखा सकता और फिर शील ( कभी कभी माँ मुझे इस नाम से भी पुकारती थीं ) बहुत बार तो तुम्हारे पिता भी तुमसे कितना प्यार करते हैं ....है न ? माँ ने मेरी तरफ बड़ी आशा भरी नज़रों से देखते हुए कहा ( ये क्या ? मै स्तब्ध थी ....क्या माँ को वाकई लगता था ऐसा ?) मैंने माँ की आँखों में देखा और फिर धीरे से सिर हाँ में हिला दिया ....माँ संतुष्टि के साथ मुस्कुरा उठीं .
कुछ देर की खामोशी के बाद उन्होंने अपेक्षाकृत धीमी आवाज़ में कहना शुरू किया ....दूसरी वजह ये थी बेटा कि तुम्हारे पिता दरअसल एक अच्छे इंसान हैं .....बहुत अच्छे ....बहुत प्रेम करने वाले ( ये मै क्या सुन रही थी ....मैंने तो ऐसा कभी महसूस नहीं किया था ).एक वक्त था कि जब वो मुझे बहुत मानते थे ....बहुत सम्मान करते थे ( अपनी बड़ी हो चुकी बेटी के सामने वो ...बहुत प्रेम करते थे ....जैसे वाक्य कहने से बच रही थीं इसे समझकर मै अन्दर ही अन्दर मुस्कुरा उठी ). मेरी हर इक्छा का ख़याल रखते थे ...शुरू-शुरू में कितनी ही बार तुम्हारी दादी के जबरदस्त गुस्से से उन्होंने मुझे बचाया था ....बिना कहे ही वो बहुत कुछ ऐसा कर देते थे और जताते तक नहीं थे .....जो मुझे पसंद होता था ( अब मेरे हैरान होने की बारी थी ). जब तुम पैदा हुई थी तब तुम्हारे पिता बहुत खुश हुए थे बावजूद इसके कि तब बेटियों के जन्म पर घोषित रूप से मातम मनाया जाता था ...तुम्हारे पिता के इस व्यवहार ने उस दिन मुझे कितना सम्मान दिया मै बता नहीं सकती . तुम्हारी दादी तुम्हारे पैदा होने से बहुत नाराज़ थीं ...कई बार तुम्हारे पिता और तुम्हारे दादाजी ने उन्हें समझाने की कोशिश की पर दिन ब दिन वो जब और भी मुखर रूप से मुझे कोसने लगीं तो फिर एक दिन तुम्हारे पिता ने मुझे और तुम्हें लेकर घर छोड़ दिया .इस बात का तुम्हारी दादी को बहुत सदमा लगा ...शायद अपमान भी महसूस हुआ होगा कि जिसकी वजह से उन्होंने मुझे कभी भी माफ़ नहीं किया ...तुम्हारे पिता ये सब समझते थे इसीलिए कई बार मेरे कहने और जिद्द करने के बावजूद भी कभी मुझे लेकर अपने गाँव दुबारा नहीं गए ( मै स्तब्धता की स्थिति में अपने पिता के इस नए रूप से परिचित हो रही थी )हालांकि वो नियमित तौर पर वहां जाते थे ....तुम्हारे दादा-दादी की देखभाल सही तरीके से हो इसका पूरा ध्यान रखते थे पर मुझे वापस कभी उस गाँव में लेकर नहीं गए . तुम्हारे दादा-दादी के देहांत के तकरीबन एक साल बाद जब वो गाँव से लौट रहे थे तभी उनके साथ एक जबरदस्त दुर्घटना हुई और उसके बाद से ही हम तीनो के जिन्दगी की दिशा बदल गयी . जिस डॉक्टर ने तुम्हारे पिता का इलाज़ किया था उसने मुझे कहा था कि अब आपको इनके साथ जीवन भर बहुत सावधानी से रहना होगा .....इनके दिमाग पर ज्यादा दबाव नहीं पडना चाहिए .....इनकी सहनशक्ति अब पहले से मात्र १० प्रतिशत ही रह गयी है ....अब आपको ही इन्हें पूरी तरह संभालना होगा . उस दिन बेटा मेरी ये तो समझ में आ गया कि अब काफी कुछ बदलने वाला है ...पर जिस तरह से और जितना बदला उतना मैंने नहीं सोचा था . आगे के हालात के लिए मै खुद को मजबूत करने लगी ...फिर भी दिन-प्रतिदिन के होने वाले क्लेश ने मुझे प्रभावित करना शुरू कर दिया . एक बात और आज मै तुम्हें बेहद ईमानदारी से बताना चाहती हूँ ....यकीन कर सको तो जरूर करना .....कई बार जब तुम्हारे पिता तुमको प्रताड़ित करते या तुम पर आघात करते तो उसके बाद उनको मैंने अकेले में बहुत विचलित और परेशान महसूस किया है .....कई बार तो शर्मिन्दा भी ....वो ये सब करना नहीं चाहते थे पर वो खुद को संभाल नहीं पाते थे और पिता होने और उससे भी ज्यादा पुरुष होने के अहम् ने ही शायद उन्हें कभी तुम्हारे सामने पश्चाताप नहीं करने दिया .....उनका नियंत्रण भी खुद पर काफी कम हो गया था ( आज मै अपने पिता के व्यक्तित्व के नए पहलुओं से परिचित हो रही थी एक सुखद अनुभूति के साथ .)ऐसे में तुम ही बताओ शील मै उन्हें छोड़कर कैसे जा सकती थी और अनजाने ही मेरी माँ के मुंह से एक वाक्य निकला जिससे मै स्तब्धता की पराकाष्ठा पर पहुँच गयी......मै अन्दर से हिल गयी थी अर्चना ...हल्की सी लम्बी सांस के साथ उन्होंने कहा ....उनके प्रेम के लिए तो मै उनके साथ न जाने कितने जन्म और जीने के लिए तैयार हूँ .....पर फिर तुरंत ही सचेत हो गयीं . उन्होंने मुझे अपने गले से लगाया ....मैंने अचानक ही महसूस किया कि हम दोनों की ही आँखें नम हैं ....कुछ पलों तक हम दोनों एक दुसरे को देखते रहे फिर उन्होंने मुझे थपथपाया और अपने कमरे में जाकर लेट गयीं ......शायद ये सब कह लेने के बाद वो खुद को बहुत खाली-खाली और हल्का महसूस कर रही थीं ....अपने आप को सामान्य करने के लिए उन्हें कुछ वक्त अपने साथ बिताने की जरूरत थी . मै धीरे-धीरे उनके पास गयी ...उन्हें चादर ओढाया और दरवाज़ा भिडकाकर बाहर आ गयी . दरअसल मुझे भी सब कुछ समझने और स्वीकारने के लिए खुद के साथ एकांत की जरूरत थी .....आज मै अपने पिता को एक नयी अंतर्दृष्टि से देख पा रही थी .....आज मुझे माँ और पिता के इतने घनिष्ठ सम्बन्ध का परिचय मिला था ....और ये सोचकर तो मुझमे कम्पन ही उभर आया था अर्चना कि मेरी माँ और मेरे पिता का प्रेम कितना गहन और कितना महान था और यही वो सूत्र था कि मेरी माँ इतने सालों तक सबकुछ बर्दाश्त करती रहीं ...यहाँ तक कि अपनी बेटी के साथ उनका दुर्व्यवहार को भी और फिर उनका एकांत पश्चाताप भी . ... आज मेरे पिता और मेरी माँ दोनों ही एक नए रूप में जन्मे थे मेरे लिए और मै भगवान् से सिर्फ दुआ करने की स्थिति में थी कि वो सभी नकारात्मकताओं को परे हटाकर मेरी माँ के साथ उनके प्रेम को ही सर्वोच्च बना दे , सर्वश्रेष्ठ बना दे ....मै रो रही थी ...पर ये वो तकलीफ और घुटन थी जो बचपन से मेरे अन्दर इकट्ठा थी और जो अब बहकर निकल रही थी क्योंकि मै अन्दर से पूरी तरह स्वक्ष और खाली हो जाना चाहती थी कि अब हर बार मै सिर्फ अपने पिता के प्रेम को चाहे वो बूँद भर ही मेरे लिए हो क्यों न हो पर उसे ही समेटूं ...खुले दिल , खुली सोच और खुली बाहों से . इतना कहकर वैशाली चुप हो गयी फिर धीरे से बोली ...पर जो सोचो जो चाहो वो हो ही जाए ....ऐसा तो कम ही होता है न . आहिस्ता से जब उसकी तरफ मैंने देखा तो वो कहीं खोयी हुई सी लग रही थी .
अब उसने फिर से कहना शुरू किया .....इस घटना के बाद मेरे अन्दर पिता के लिए जो भाव थे ...जो क्रोध और नफरत थी वो धीरे-धीरे बदलने लगी ( ख़त्म तो शायद आज तक नहीं हुई थी ऐसा मुझे उसे देखकर लगा ).
अब मै उनसे सलीके से व्यवहार करती ...उन्हें आश्चर्य तो जरूर होता होगा पर उन्होंने कभी कुछ पूछा नहीं पर हाँ इससे माँ के चेहरे पर संतोष और खुशी अवश्य ही झलकने लगी थी . कुछ समय के बाद धीरे-धीरे मेरे पिता बीमार रहने लगे ....मेरी माँ तो मानो इस स्थिति से बौखला ही उठी थीं .....उन्हें पिता के तेजतर्रार व्यक्तित्व की आदत पड गयी थी जो वो उन्हें इस तरह से नहीं स्वीकार कर पा रही थीं ....एक दिन पिता को हस्पताल में भरती कराना पडा ....अविनाश ने , जो वहीँ पर डॉक्टर थे ....इस मामले में हमारी बहुत मदद की ....और उसके बाद भी वो अक्सर हाल-चाल पूछने आते रहते थे . मेरी आँखों में कौंधे प्रश्न को समझकर वैशाली मुस्कुरा दी ..अविनाश ....वही जिनसे तुम अभी मिली थी और जिनसे मेरी मंगनी होने वाली है ....ये जानकार मै भी मुस्कुरा उठी . वैशाली ने फिर कहा ....हस्पताल में जिस समय मेरे पिता भर्ती थे लगभग उस पूरे समय अविनाश आस-पास ही बने रहे ....हर मदद को तैयार ...बिना कहे या जताए .
अब उसने मेरी तरफ देखा .....तुम्हें पता है अर्चना ......अविनाश को मेरे लिए मेरे पिता ने ही चुना है . जिस सच को मै ....मेरी माँ और खुद अविनाश भी नहीं समझ पाए थे उसे मेरे पिता समझ गए थे . जिस दिन उनका देहांत हुआ उसी दिन उन्होंने मुझसे कहा था ...वैशाली , बेटा....मैंने जिन्दगी में तुम्हारे साथ बहुत अन्याय किया है .....तुम्हें वो सब नहीं मिला जो तुम्हारा हक़ था ..पर बेटे एक बात मै आज तुम्हें कहना चाहता हूँ ...मानना या न मानना तुम्हारे ऊपर है ...मुझे तुम्हारे लिए अविनाश बहुत पसंद है . इतना कहकर वो चुप हो गए ...मै भी उनकी ये बात सुनकर अवाक रह गयी पर मैंने कुछ कहा नहीं ....कुछ ही देर के बाद पता चला कि पिता नहीं रहे ...तो क्या उन्होंने अपने मौत की आहट सुन ली थी जो वो इतनी बड़ी बात कह गए ....खैर , माँ तो जैसे पागल ही हो गयीं ......उसके बाद क्या हुआ ...कैसे हुआ ...मुझे कुछ पता नहीं .....सारा भार अविनाश ने अपने कन्धों पर ले लिया ....वो जो भी कहते मै कर देती . पिता की अंतिम क्रिया से लेकर बाक़ी की सारी रस्मे और साथ ही माँ को भी संभालना ये सारे दायित्व अविनाश ने स्वेक्छा से उठाये और किसी परिवार के सदस्य की तरह पूरे किये .....मुझे इसकी जटिलता का आभास तक नहीं होने दिया और इस तरह एक बार फिर खुशियाँ मुझ तक आते -आते रह गयीं ....इस बार वक्त ने बड़ी निर्ममता से अपनी लाठी चलाई थी और वो भी पूरे शोर के साथ .
कुछ समय के बाद जब सबकुछ सामान्य होने लगा .....धीरे-धीरे माँ भी और जिन्दगी एक बार फिर अपने पुराने ढर्रे पर वापस लौटने लगी तभी अचानक मुझे महसूस हुआ कि जैसे अविनाश मुझसे और माँ से कहीं जुड़ने से लगे हैं .....मैंने एक बार फिर आदतन खुद को बहुत सख्त कर लिया ....ये एक तरह की अहसानफरामोशी थी कि जिस अविनाश ने हमारे लिए इतना किया.....मुश्किलों में चट्टान की तरह खड़े रहे उनके साथ ही अब मै इतना रुखा व्यवहार करने लगी थी पर क्या करूं ...मै अपनी आदत से विवश थी ....मैंने उनसे कुछ कहा तो नहीं पर शायद वो समझ गए ...उन्होंने हमारे यहाँ आना कम कर दिया और कुछ समय के बाद एकदम ही बंद. मुझे उनकी कमी खलती तो थी पर मैंने अपने आपको पूरी तरह नियंत्रित किया हुआ था ......एक बार जब कई दिनों तक अविनाश नहीं आये तो एक शाम माँ ने मुझसे पूछा कि क्या बात है ....आजकल अविनाश नहीं आते ....कहीं तुमने उनसे कुछ कह तो नहीं दिया ....आने से मना तो नहीं कर दिया ...फिर मुझे अपनी तरफ देखता पाकर बोलीं .....एक बात कहूं बुटुल( बहुत प्यार से माँ मुझे इसी नाम से बुलाती थीं )...मैंने कहा ....बोलिए .....उनकी आँखें भर आयीं और उन्होंने कहा ......तुम्हारे पिता ने तुम्हारे बारे में अविनाश से कहा था .....उन्हें तुम्हारे लिए अविनाश बहुत पसंद थे .....अविनाश भी तुमको बहुत पसंद करते हैं ....उन्होंने तुम्हारे पिता से वादा किया था कि अगर तुम्हें कोई आपत्ति नहीं होगी तो वो तुमसे अवश्य ही विवाह करेंगे ....ये उनकी आखिरी इक्छा थी ....मैंने माँ की तरफ प्रश्नवाचक नज़रों से देखा तो ऐसा लगा जैसे माँ कह रही हों ..हाँ बुटुल मेरी भी ....मेरी ,क्योंकि ये तुम्हारे पिता की मर्जी थी इसलिए ही मेरी भी मर्जी है ...माँ चुप थीं ....मै चुपचाप उठकर वहां से चली आयी ....अब मुझे अपने अन्दर बेतरह बेचैनी और खालीपन का एक अजीब सा अहसास हुआ ....मै अचानक ही पिछले दिनों की अपनी उलझन का कारण समझ गयी थी.....उस सारी रात मै सो नहीं पायी .....मेरी पिछली पूरी जिन्दगी किसी चलचित्र की तरह मेरी आँखों से , जहन से और भावनाओं के उफान से गुजर रही थी....रात भर मै माँ-पिता और अपने बारे में सोचती रही ...उन परिस्थितियों और घटनाक्रम के बारे में सोचती रही ....कारण और परिणाम के बारे में ....फिर एक पल रुककर वैशाली ने कहा और सबसे ज्यादा अपनी माँ के उस अद्भुत और महान प्रेम के बारे में ....अपने पिता की मूक भावनाओं के बारे में ...अपने प्रेम को दर्शा न पाने और फिर उनकी बेचैनी के बारे में ...मेरे प्रति अनियंत्रित दुर्व्यवहार और फिर परिणामस्वरूप उत्पन्न ग्लानी के बारे में और फिर जैसे अचानक ही कुछ कौंध गया मेरे अन्दर .....अब मै एक निर्णय ले चुकी थी ( भावनाओं का मनोविज्ञान बहुत गहराई से असर करता है ये उस रात ही जाना था मैंने ) . अगले दिन सुबह तैयार होकर मैंने माँ से कहा .....माँ , मै अविनाश से मिलने जा रही हूँ .....माँ ने हाँ में सिर हिलाया और मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए संतुष्टि से मुस्कुरा दीं . मै हस्पताल आयी तो ये जानकर सन्न रह गयी कि अविनाश अब वहां काम नहीं करते ....मै छटपटा उठी थी ....एक नर्स से उनका पता लेकर मै उनसे मिलने यहाँ आयी ......हॉस्पिटल में अचानक ही अपने सामने मुझे पाकर अविनाश चौंक उठे .....अरे तुम ....यहाँ .......फिर मुझे लेकर अपने घर आये ..........बात-चीत के दौरान उन्होंने बताया कि वो अनाथ हैं ...पढ़-लिखकर डॉक्टर तो बन गए पर हैं बिलकुल अकेले ही ......मैंने अनायास ही कहा ......क्या अब भी ? और अचानक ही ये खुलकर मुस्कुरा उठे ....कहा , .....नहीं ..अब नहीं ......और फिर माँ को फोन करके बताया कि कुछ ही दिनों में ये यहाँ से त्यागपत्र देकर मेरे साथ वापस लौटेंगे शादी करने के लिए .और बस उसी की खरीदारी करते वक्त तुम मिल गयीं ......पर सच कहती हूँ अर्चना ....आज लगता है कि काश पापा होते ....उसका गला भर आया था .....मै भी उसके इन शब्दों से द्रवित हो उठी पर कुछ पलों के बाद उसने फिर कहा ....पर फिर भी जब आज तुमको सब सच बता ही दिया है तो एक और सच जरूर कहूंगी .....मै अपने बचपन और उस प्रेम , अधिकार और व्यक्तित्व की जटिलताओं के लिए शायद कभी भी अपने पिता को पूरी तरह माफ़ न कर पाऊं बावजूद इसके कि अब मै भी कहीं न कहीं उनसे प्रेम करने लगी हूँ ..इसके बाद कुछ देर तक निस्तब्धता की स्थिति रही ......अचानक ही वैशाली खुलकर मुस्कुराई ......मै भी . ....उसने कहा ...तो ये थी इस वैशाली की अब तक की कहानी . अब हम ही दोनों एक दुसरे की हथेली थामकर कुछ देर बैठे रहे ...जो कुछ इस दरमियान घटा था उसे महसूसते रहे ...एक दिशा देते रहे .
कुछ देर के बाद उसने बड़ी सहजता से फोन करके अविनाश को बुला लिया जो बेहद अधीरता से उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे ...उनके आने पर मैंने उनसे वैशाली का इतना वक्त लेने के लिए माफी माँगी साथ ही ये भी कहा कि अब तो ये हमेशा आपके साथ ही रहने वाली है इसलिए उम्मीद है कि आप ज्यादा नाराज़ नहीं होंगे ....वैशाली मुस्कुरा दी और स्थिति का अंदाजा लगते ही अविनाश खिलखिलाकर हंस पड़े ....जाते वक्त दोनों ने मुझे अपनी शादी में आमंत्रित किया ...मैंने भी हामी भरी बावजूद इसके कि मुझे पता था कि ये संभव नहीं होगा . मैंने उन दोनों को शुभकामनायें दीं और वो चले गए .
इस तरह से आज मै वैशाली को समझ पायी थी ....अविनाश को देखकर ऐसा लगा कि शायद कुछ ही समय में वैशाली अपने सारे ज़ख्मों और प्रश्नों को भुलाकर एक सुखद जीवन जी सकेगी पर कहीं न कहीं मुझे ये भी महसूस हुआ कि अपनी बचपन की त्रासदियों और अधूरेपन के लिए शायद वो अपने पिता को कभी भी पूरी तरह माफ़ नहीं कर पायेगी बावजूद इसके कि इस सबमे उसके पिता कोई ख़ास दोषी नहीं थे ....पर मन तो ये सब नहीं समझता न .....................और वो भी एक बेटी का भावुक मन ( यही बात उसने खुद भी मुझसे कही थी ).....उसकी जिन्दगी के लिए मैंने दिल से दुआ की और संतुष्टि के साथ अपने घर की तरफ बढ़ चली . आज कई प्रश्नों के उत्तर पूरी साफगोई और ईमानदारी से मिल चुके थे और अंतर्मन बहुत शांत, बहुत राहत महसूस कर रहा था .
ये कहानी पढ़ते वक्त शायद कईयों को लग सकता है कि आजकल तो ऐसा नहीं होता पर मै आप सबको यकीन दिलाना चाहती हूँ कि आज भी असंख्य घरों में कई वैशालियाँ रहती हैं ....सबको नज़र नहीं आतीं बस ...जैसे ये वैशाली सबको नज़र नहीं आयी थी ...या फिर अगर आई भी हो तो किसीने भी इसे समझने की कोशिश नहीं की उलटा घमंडी और असभ्य तक कहा.....अपनी मासूमियत में ही सही पर उसके दोस्तों ने उसके सामने ही उसका मजाक तक उड़ाया ...ऐसे समय में क्या उनके माता-पिता का या समाज का ये दायित्व नहीं बनता था कि वो उनकी सोच और समझ को सही और उचित दिशा देते .....और तब शायद वैशाली का व्यक्तित्व इस कदर उलझा और अधूरा न होता ....तब शायद वो अपने पिता से इतना नफरत भी न करती और तभी शायद वो उनसे कहीं न कहीं प्रेम भी कर पाती और उनका सम्मान भी .हमारे आपके घरों के आस-पास भी हो सकता है कुछ वैशालियाँ रहती हों ...बस इन्हें कुछ ख़ास अंतर्दृष्टि से देखने और समझने की जरूरत होती है ...ये हमारे साथ की न कि उपेक्षा की हकदार हैं ..........और वैसे भी अगर न समझ सकें तो आप ये कहने के लिए पूरी तरह आज़ाद हैं कि हुंह ...ये कहानी तो एक पीढी पुरानी हैं!!
अर्चना राज़
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