Wednesday, 9 September 2015

सुनो मन

सुनो मन यूँ मत ऐंठो
मत ऐंठो कि इससे टूट जाते हैं ढेरों मधुर राग
क्षुब्ध हो उठती हैं अनगिनत रागिनियाँ
कोमल भाव के कई उच्च स्वर भी ,

कि तुम्हारा इस कदर ऐंठना
आसमां के धैर्य को थका देता है
रुला देता है बादलों की स्वाभाविकता को बेतहाशा
नमी को सुर्ख खुरचा हुआ धुआं बना देता है ,

इस कदर ऐंठने से
रात कुछ और काली हो जाती है
और काला हो जाता है उसकी पुतलियों में
ठुनकती चंचलता का भाव भी ,

तब वो मौसम का नजरिया टीका न होकर
सुकून देते तमाम अहसासों का अंगार कफ़न हो जाती है
बिखर गयी विभिन्न संवेदनाओं की इकठ्ठा नज़र हो जाती है ,

यूँ मत ऐंठो मन
इससे स्वजनित सरलता बाधित होती है
बाधित होता है स्वयं का स्वयं से अनिवार्य स्पर्श भी
ठिठका रहता है जो कम्पन के पाताल में
बड़ा सा एकपक्षीय आइना ओढ़े ,

देख नहीं  पाता तुम्हारी सुकोमलता को
कि जब तुम आनंदित ,प्रफ्फुलित व् बेबाक होते हो
कि जब तमाम ऋतुएं यात्रा से पहले तुम्हे सलामी नज़र भेजती हैं
कि जब समस्त आंतरिक व् बाह्य सौन्दर्य
तुम्हारी एक मुस्कान से छलछलाकर बह उठते हैं
कि जब प्रकृति पूरी उर्जा से तुम्हारे साथ विहंस उठती है ,

इसलिए ही सुनो मन
यूँ मत ऐंठो
कि तुम्हारे ही इस चमत्कृत धरातल पर
खुशियों , संवेदनाओं व् सुकून का आधार निर्धारण होता है !!












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