Sunday, 31 January 2016

प्रेम

प्रेम के पंख गुलाबी हैं
साँसें सब्ज़ हरारत ली हुयीं ,
सीने में उतर आया है पूरा चाँद
नसों में बिजली
तलवों में तेज़ कसमसाहट 
हथेलियाँ बौराई सी
नज़रें सकपकाई सी
जिस्म में सहमापन बेहिसाब ,
आज मै फिर उम्र के सोलहवें दौर में हूँ !!




चूमा है कभी किसी का दर्द किसी की पीड़ा
रगों से रिसती है जो
तोड़-फोड़ देती है समूची व्यवस्था
अंतर्मन की ,
रौंद डालती है जिस्म को प्रेम के अतिरेक से 
प्रेम की उर्जा से भी अक्सर
तब होंठ ही नहीं तमाम जिस्म जाले सा हो जाता है ,
रेतती रहती है लहू में उबल आये फफोलों को
वक्त - बेवक्त
उनके छिलकों से ही फिर ज़ख्म भरती भी है
शेष बचे हुओं को सहेज लेती है
खाली वक्तों में पीड़ा की गोलियां बनाने के लिए
निगलने के लिए जब-तब
कि जब सह पाना
हदों को बिलकुल पार कर जाए
पीड़ा अस्तित्व से भटककर प्रेम हो जाए ,
कि प्रेम में पीड़ा का कोई सक्शन नहीं होता !!











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