Sunday, 31 January 2016

ओक वृक्ष

खामोश निढाल शाम थककर टिक गई
Oak tree के सीने पर
तरंगित हो उठा तना,
उदासी बूंद -बूंद घुलती रही उसमें 
अगन तहों तक जलने लगी उसमें
पर वो मुस्कुराता रहा,
टपक उठीं कुछ बूंदें क्यारियों तक भी
जो अनगिनत रंगबिरंगे फूलों की खुराक हो उठीं
फूल खिलखिला उठे.... दमक उठे
कभी -कभी किसी का दर्द किसी की उर्जा हो जाता है,
आह्लादित अनियंत्रित हो वे लिपट गये
शाम की हथेलियों से
कुछ उसके चेहरे तक भी पहुंचे
बस चूमा भर ही था कि मुरझा कर गिर गये
अचानक अपनी ही पत्तियों पर
ताप कङा था,
दर्द अब भी बूंद- बूंद Oak tree में भर रहा था
Oak tree अब भी शाम पर मर रहा था,
अंतत: मुक्त हो शाम हँस पड़ी
हँस पङा Oak tree भी,
शाम अब भी आती है गाहे -बगाहे
ढेरों दर्द ढेरों उदासियां समेटे
उङेल देती है Oak tree के सीने में
अपनी अंतिम बूंद तक
Oak tree हर रोज तकलीफ से भर उठता है
फिर भी मुस्कुराता है
हर रोज इंतजार करता है शाम के आने का
जो भर देती है उसे
असीम अगाध अनंत मीठी गरम तकलीफ से
अप्रतिम गरिमा से,
जाती हुई शाम पर कभी नहीं देख पाती
Oak tree की सूखी श्वेत आंखों को
बोझ से झुक आयी डालियों को
या फिर उसकी जङो पर घिर आए
खारे पानी के गहरे कुएं को,
Oak tree अब भी हर शाम मुस्कुराता है
कुआं हर रोज कुछ और गहरा जाता है।।

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