Sunday 31 January 2016

कवितायेँ

बूँद भर लफ्ज़ सौंप दिया था तुम्हें
तुम्हारी हथेली में
सूखकर तिल सा उभर आया है अब जो
लाल तिल ,
काला तो भाग्य का अग्रदूत होता है
पर लाल रंग में ऐसा कोई मुगालता नहीं ,
दिनों दिन तुम्हारी हथेली
एक बड़े से सूर्य के आसमां सी हो रही है
जैसे दिनों दिन मेरा मौन
मेरे दर्द में विस्तार पा रहा हो
पनाह के साथ ही !!



उदासियों के अक्स से नकाब नोंचकर फेंक दी है
नज़र आते हैं पीड़ा से भरपूर कोटर कई
छिछला गयी चमडियों के फर्श
और ढेरों पसरी मनहूस काई,
इन्हें मिटाने की कोई शीघ्रता नहीं
वरन पाले जाने का जूनून है
एक और जिद्द भी
तकलीफों के गह्वर से सुकून के तलाश की,
इनका पाला जाना आवश्यक भी है
खुद को जीवंत कहे जाने का भ्रम सहेजने को
और मशहूर करने को खुद को खुद के जटिल अंतर्मन में,
बाह्य स्वप्न काईयों में तितलियाँ सहेजते हैं
अंतरतम के स्वप्न कोटरों में मधुमक्खी
दोनों मिलकर ही रचते हैं छिछलाई हुयी चमड़ियों में मीठी चंचलता
और ये सहज खेला अनवरत प्रवाहित होता है ढेरों कोकूनो की लुगदी के नीचे
ढका छिपा निरंतर इतिहास रचता,
उदासियाँ यूँ ही सम्मान के काबिल नहीं बनतीं
हमनफ़ज मेरे !!



ICU में ढेरों विचित्र औषधीय गंधों
ढेरों बिधी सुईयों, उनसे जुड़े ट्यूब के जालों
व रह रहकर
सिरींज भर खून निकाले जाने की
तकलीफदेह प्रक्रियाओं से 
बिना पीडा बिना शिकवा जाहिर किए
जूझते हुए भी,
कि जब पहचान करने में नाकाबिल करार हों
तब उनका एकदम से मुझे देख मुस्कुराना
और कहना ----मेरी बेटी
पुकारना मेरा नाम
अदभुत सुख संतोष और उतनी ही पीङा से भी भर गया मुझे,
आज मैंने भी अपने अंदर की माँ को जाना
पहचाना,
और अपनी बेटी को भी
पहले से कहीं बेहतर,
यूँ लगा कि नीले कपड़ों में लिपटी गुङमुङाई मेरी माँ
आज सुंदर शब्दों से सजी कविता का इंद्रधनुषी भावार्थ बन गयीं।।

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