Sunday, 31 January 2016

तुम हो

मै प्रेम में हूँ
वो खुद से कहती
पर फिर पाती खुद को संभ्रम में ,
लम्बी बार-बार दोहराई जाने वाली प्रक्रियाओं से 
अंततः बोझिल व् उदास हो वो थक गयी
और छोड़ दिया ये कहना ,
बरसों बाद बेहद अनपेक्षित
पर एक बार फिर उसने सुना खुद को कहते
मै प्रेम में हूँ
और अब आश्चर्य तो देखिये ,
इस बार वो सचमुच प्रेम में है
गहन गंभीर गरिमामय प्रेम की नदी में
हर सांस -सांस डूबी
एक संभ्रांत सुसंस्कृत महिला ,
क्या ये चरित्रहीनता है ?



देर तक सूरज पका आज फिर
शक की देगी में
अंगीठी उम्र जितनी लम्बी थी
आंच सांस जैसी घुटन लिए कसी हुयी,
टुकड़ा-टुकड़ा चांदनी बदलती रही
कोयले में
सितारे भी चिंगारी होते रहे
पर मौसम बारिशों का था
सो धूएँ की ढेरों गंध सीली ही रही ,
सूरज बेशक खूब पका हो देर तक
पर स्याह नहीं हुआ
न ही फीका
कि इस बार उसकी मुस्कान पारिजात सी थी
खिली-खिली और बेतरह बिखरी,
इस बार शक ने उसे सुगन्धित कर दिया था
आश्वस्त भी प्रेम के प्रति
जैसे तुम्हें
मेरे हमनफ़ज !!




चुप्पियों के दौरान
कशमकश की रस्सी थामे
कोई उस पार उतर गया,
कोई रह गया वहीँ पर 
बनने को राह का पत्थर
या फिर शिलालेख सा ही कुछ,
अब ये वक्त को तय करने दो
उसकी नियमावली के अनुसार।।




कभी ठहरकर कभी बरसकर
वो लिख रहा है
बस चंद लम्हे मोहब्बतों के,
हर एक लम्हा उदास है कुछ जरा सा टूटा 
मगर खनकता,
उन्हें समेटूं उतार लूँ खुद में
जैसे कोई नदी उतरती समंदरों में
विलीन होने हदों से आगे,
फिर कोई बादल है आज भी
देखो इतना तनहा
था जैसे ठिठका वो बरसों पहले
उसी सङक के उसी मोङ पर
कि जैसे तुम हो।।









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