Sunday, 31 January 2016

उदास काला चश्मा

उसी शहर का उदास काला चश्मा है ये
जहां ख्वाब खिलते थे
इस कदर चमकीले कि नंगी आँखों से देख पाना
संभव नहीं था
इसलिए ही रात के कुछ उधार के धागों से बुना है इसे ,
जब - तब पहन लेती हूँ
जब उदास होना चाहती हूँ रोना चाहती हूँ
छिछली सतह पर दौड़ना चाहती हूँ
कि यादों के पैरहन में एक जोड़ा भर गुलाबी टांका
देखना चाहती हूँ
एक जोड़ी पैर जितना हाथों जितना
या फिर गहरी कटीली नज़रों जितना
कि जिसमे रस भर-भर कर तीखापन सजाया गया था ,
तब भी पहन लेती हूँ
जब कोई पुरानी तारीख किसी किताब के कवर से
मेरी तकलीफ में उतर जाती है
जब कोई पुराना दोस्त चुपचाप मेरे होने में
किसी और को तलाशने की कोशिश करते हुए भीग उठता है
कि कई दफे वो ज़िक्र किसी और का और उम्मीद किसी और की करता है ,
उदास काला चश्मा
कई मायनों में हमसफ़र से बेहतर है
कि ये कुरेदता नहीं कभी छीलता भी नहीं
साथ होने पर बस साथ भर होता है
कभी -कभी भावुक हो सहलाता है दुलराता है
जो ये भी न कर सके
तो बस मेरी पलकों को थामे रखता है
कम्पन की हर प्रक्रिया को छुपाकर
बनाये रखता है मुझे
गर्वीली सजीव जिंदादिल संतुष्ट स्त्री ,
ये मेरा उदास काला चश्मा
थोडा-थोडा अब भी रखता है मुझे
उसी शहर में
जहां चमकीले ख्वाब अब भी खिला करते हैं
पर जहां अब रात ने उधार देना बंद कर दिया है !!

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