मन टूटता रहता है छोटे छोटे टुकड़ों में
कभी उदासी कभी एकांत तो कभी तकलीफ का बहाना लेकर
थोडा फलसफाना होकर,
कभी उदासी कभी एकांत तो कभी तकलीफ का बहाना लेकर
थोडा फलसफाना होकर,
उस रोज भी टूटा था
जब गिट्टियों के लिए हुई लड़ाई हार गयी थी वो
और एकहथेली सांत्वना स्वरुप उसकी मुट्ठियों पर कस आई थी
उस रोज भी कि जब उसके चाय की प्याली
सरका दी गयी थी धीरे से किसी अज़ीज़ की ओर बिना उससे पूछे
मुस्कुराकर---- बदले में वो भी मुस्कुराई थी बढ़ी हथेलियों को पीछे खींचते हुए
चेहरे पर अचानक घिर आई अदृश्य परत को संभाले हुए भी
उस रोज भी कि जब सिनेमा देखना बस इसलिए मना हुआ कि वो लेट नाईट था
और २५ पारिवारिक लोगों में कोई एक ऐसा था जो अवांछित था
अप्रिय था---- पर किसके लिए ----- क्यों
उस रोज भी कि जब कोई मुस्कुराता सा उसकी तरफ देखते-देखते
किसी और की तरफ देखने लगा था
और उसकी पीड़ा पारे की तरह सीने से होते हुए आँखों तक नज़र आई थी
और फिर एकांत के थर्मामीटर में खामोश कैद हो गयी थी
अनेकों बार तब भी कि जब उसके बेहद छोटे-छोटे मामूली से सुख
परिवार की विराट मर्यादाओं के यज्ञ का ईधन हो गए थे,
जब गिट्टियों के लिए हुई लड़ाई हार गयी थी वो
और एकहथेली सांत्वना स्वरुप उसकी मुट्ठियों पर कस आई थी
उस रोज भी कि जब उसके चाय की प्याली
सरका दी गयी थी धीरे से किसी अज़ीज़ की ओर बिना उससे पूछे
मुस्कुराकर---- बदले में वो भी मुस्कुराई थी बढ़ी हथेलियों को पीछे खींचते हुए
चेहरे पर अचानक घिर आई अदृश्य परत को संभाले हुए भी
उस रोज भी कि जब सिनेमा देखना बस इसलिए मना हुआ कि वो लेट नाईट था
और २५ पारिवारिक लोगों में कोई एक ऐसा था जो अवांछित था
अप्रिय था---- पर किसके लिए ----- क्यों
उस रोज भी कि जब कोई मुस्कुराता सा उसकी तरफ देखते-देखते
किसी और की तरफ देखने लगा था
और उसकी पीड़ा पारे की तरह सीने से होते हुए आँखों तक नज़र आई थी
और फिर एकांत के थर्मामीटर में खामोश कैद हो गयी थी
अनेकों बार तब भी कि जब उसके बेहद छोटे-छोटे मामूली से सुख
परिवार की विराट मर्यादाओं के यज्ञ का ईधन हो गए थे,
ऐसे हर एक लम्हे में वो कछुआ हो जाती
दुबक जाती अपने महत्त्वहीन अपहचान अस्वीकार्य असम्मान के सुरक्षित मजबूत खोल के भीतर
पर मन ------वो चिड़िया हो जाता
इन तमाम अनगिनत लम्हों के छोटे-छोटे टुकड़ों को तिनकों सा कर बुन देता
अपने घोंसले की एक और पंक्ति
जिसके तमाम कमरों में से एक कमरा बुना जाना बाक़ी है अभी
कि जिसमे वो रखना चाहती है
बचपन से अब तक के तमाम उन लम्हों के पीड़ा जनित अपमान की जिज्ञासा
उनके तमाम प्रश्नवाचक चिन्ह
कि जब वो न रहे शायद तब कोई समझ सके , महसूस कर सके और देना चाहे
असंख्य भावपूर्ण प्रश्नों के ईमानदार जवाब
और पालना चाहे कोई चिड़िया
बना सके उसके लिए एक घोंसला मजबूत सुरक्षित और सम्मानजनक
और सुन सके वो तमाम गीत उससे
जो लिखे जा रहे हैं अनवरत दर्द के पन्नों पर
नमक की स्याहियों से !!
दुबक जाती अपने महत्त्वहीन अपहचान अस्वीकार्य असम्मान के सुरक्षित मजबूत खोल के भीतर
पर मन ------वो चिड़िया हो जाता
इन तमाम अनगिनत लम्हों के छोटे-छोटे टुकड़ों को तिनकों सा कर बुन देता
अपने घोंसले की एक और पंक्ति
जिसके तमाम कमरों में से एक कमरा बुना जाना बाक़ी है अभी
कि जिसमे वो रखना चाहती है
बचपन से अब तक के तमाम उन लम्हों के पीड़ा जनित अपमान की जिज्ञासा
उनके तमाम प्रश्नवाचक चिन्ह
कि जब वो न रहे शायद तब कोई समझ सके , महसूस कर सके और देना चाहे
असंख्य भावपूर्ण प्रश्नों के ईमानदार जवाब
और पालना चाहे कोई चिड़िया
बना सके उसके लिए एक घोंसला मजबूत सुरक्षित और सम्मानजनक
और सुन सके वो तमाम गीत उससे
जो लिखे जा रहे हैं अनवरत दर्द के पन्नों पर
नमक की स्याहियों से !!
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