Wednesday, 22 August 2012

इंतज़ार

तुम्हारी बेजारी ने मेरे दर्द को
अब और भी सख्त कर दिया है
शून्य सी हो गयी हूँ मै
तुम्हारे निरंतर अस्वीकार के आघात से ,

मै सहम जाती हूँ तन्हाई के उस अंदेशे भर से ही
जहां  तुम्हारी यादें मुझे मेरी कांपती  हसरतों से रूबरू कराती हैं
आंसुओं की अनगिनत सूखी लकीरें भी सुलगती मोमबत्तियों सी महसूस होती हैं
जो अंततः थक कर मुझमे ही बेतरतीब दरिया सी पसर जाती हैं ,

धूप  का स्वाद भी अब पहले सा गुनगुना नहीं रहा
और न ही हवाओं में तुम्हारी बेताबियों की आहट बाकी  है
बेचैन रात  भी अब मुझमे तुम्हारी उमंगें  नहीं जगा पाती
क्योंकि शायद ढलती शाम ने अब तक भी तुमसे मिलाने का वादा पूरा नहीं किया है ,

कहीं कुछ बदल सा गया है
या संभव है तुम्हारी चाहतों ने ही शक्ल बदल ली है
पर मै अब भी वहीँ हूँ ठहरी हुई तुम्हारे इन्जार में
उसी परकोटे में 
जहां तब थी जब तुम थे  !!


               अर्चना राज 

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