हर ज़र्रा कायनात का धूप की आंधियों मे बहा ले जाता था मुझको
मै भीगता रहता था ------ निरंतर
इंसानी दर्द के वाष्पीकरण की प्रक्रिया अनवरत थी
तकलीफदेह भी -----------
मै सिहर उठता था ,
मै देखता रहता था वो भीड़ जो इकट्ठा थी तेरे दरवाजे पर सदियों से
अनजाने -अनदेखे सुकून की ----सुख की तलाश मे
पर अब भी उतनी ही नाकाम -- नाखुश
झुके हुए बोझिल कंधों के साथ ,
वो भी नासमझ थी मुझ जैसी ही
नहीं जानती थी कि
तू किसी महवर का गुलाम नहीं
तू किसी वर्ग या वक्त विशेष का नुमाइंदा भर नहीं ,
एक रोज़ इक बुलंद आवाज़ का आगाज हुआ
जहान मे -------- सभी के लिए ---------
इबादत नहीं -----------
मुझे चाहो ----प्यार करो -------मुझे महसूस करो
खुद मे ----- खुद सा ,
वैसे ही जैसे रूहें मिल जाती हैं रूहों मे
वैसे ही जैसे जिस्मो मे जागती है गुलाबी खुशबू
वैसे ही जैसे साँसों मे जन्मती हैं सासें
जिंदा होकर -----जीवन होकर ,
इस एहसास के साथ ही
मै भीगने लगा तुम्हारी इस अज़ीम रहमतों की रौशनी मे
मै दुआ सा हो गया
मै महसूस करने लगा तुम्हें खुद मे
मै तुम सा हो गया
कि ऐ खुदा ----- तेरे इश्क मे
तुझमे जज़्ब होकर -----मै खुद ही खुदा हो गया !!
मै भीगने लगा तुम्हारी इस अज़ीम रहमतों की रौशनी मे
ReplyDeleteमै दुआ सा हो गया
मै महसूस करने लगा तुम्हें खुद मे
मै तुम सा हो गया
कि ऐ खुदा ----- तेरे इश्क मे
तुझमे जज़्ब होकर -----मै खुद ही खुदा हो गया !!
.......................वाह!!! बेहतरीन।
बेहद शुक्रिया
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