Wednesday 9 October 2013

इंतज़ार

धूप को तकलीफ के अनगिनत लम्हों मे गूँथकर लीप दिया था दरो-दीवार को
अक्षरों की शक्ल मे 
तनहाई मे लिपट -चिपटकर  जो बेकाबू हो जाते थे ,

कमरे की सफेदी हर रात गिरती थी  परत दर परत
हर रात कमरा उधड़ा सा हो जाता था
हर रात महसूस होता था इक अधूरी गजल का लिखा जाना
हर रात मेरा जिस्म सूखे पत्ते सा कंपकंपाता था 
महक आती थी तुम्हारे टुकड़ा -टुकड़ा साँसों की हर बार मेरी साँसों से ,

हर रात तनहाई को थोड़ा-थोड़ा काटकर चमकदार गोटे सा सिल देती थी
सूख चुके अश्कों को सितारों मे बदल देती थी 
काढ़ा करती थी अरमान दुपट्टों मे
कभी धूल तो कभी धूप या फिर तितलियों से ,

हर मौसम का मिजाज भी संभाले रखा है
उम्मीदों के पुल हर दिशा से आते हैं मुझ तक

कि मेरी रुखसती तुम्हारे पिघलते जज़्बातों के इंतज़ार की कैद मे है
हमनफ़ज मेरे !!

1 comment:

  1. इस पोस्ट की चर्चा, शुक्रवार, दिनांक :-18/10/2013 को "हिंदी ब्लॉगर्स चौपाल {चर्चामंच}" चर्चा अंक -27 पर.
    आप भी पधारें, सादर ....नीरज पाल।

    ReplyDelete