Saturday, 24 January 2015

उम्मीद

पीली सी आँखों में खाली शाम पडी थी
अलसाई मुरझाई सी
बिना किसी सपने को थामे ,

उतर रहा था एक परिंदा पर धीरे से
उम्मीदों की मुट्ठी बांधे
हुआ सुनहरा शर्बत जैसा
लगा फैलने शोर था अब चहुँओर
कि जैसे हो मंजीरा
या ढोलक की थाप हो कोई
या फिर कोई सारंगी हो
मदमाती सी गूँज उठी है सांस कि जैसे आस हो कोई
पर्वत पीछे प्रेम को भींचे
मधुर किलकती रास हो कोई ,

लेकर अंगडाई फिर शाम हुयी मतवाली
बाहों में भर ढेरों कंगन पैरों में छनकाती पायल
चली आलता संग लिए नाखूनों पर
सपनो के दामन को खुद में भींच लिया
सींच लिया फिर सूखा पौधा
पडा था जो बरसों से बस यूँ ही एकाकी
फूल लगे हैं खिलने उस पर
सरसों हो या रजनीगंधा
कुछ गुलाब है कुछ है गेंदा
कुछ थोड़े जो सूख गए थे बरसों पहले
उनमे भी अब प्यास जगी है जीवन की
उनमे भी अब आस जगी है प्रियतम की
कि लगी बिखरने खुशबू अब है
लगी बरसने प्रीत भी होकर मीत कि जैसे हो दीवानी
सपने भी अब फूट रहे हैं निर्झर सरिता के सोतों से
निर्मल होकर कोमल होकर जीवित होकर
हँसते -हँसते !!

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