Tuesday, 2 April 2013

बेचारगी

तटों से टकराकर हर बार निराश लौट आना
भर देता है लहरों को असीम यातना से
मानो कोई आन्ना किसी ब्रोन्स्की के इंतज़ार मे उध्वेलित है
या फिर ज्ञानेन्द्र किसी चेतना पारीक के
पीड़ा बड़ी संजीदगी से चेतन है यहाँ...... अनवरत ,

यहाँ चाहतें गुलाबी पन्नों मे दर्ज़ नहीं होतीं
न ही दर्द उकेरने को किसी स्याही की दरकार है
बस नियंत्रित रहने की अथक कोशिश मे लहरों का जिस्म नीला पड़ जाता है
और स्वाद खारा------------तकलीफ नमकीन हो गयी है अब  ,

मुट्ठी भर रेत की संवेदना भी अपर्याप्त है  सुकून के लिए
विवशता मे  जो साथ ले आती हैं लहरें बड़ी बेचारगी से
उम्मीदों का चप्पू थामे
पर डूब नहीं पातीं उसमे पल भर को  भी
खालीपन अथाह है  ---- अनंत भी ,

सदियों की स्व-प्रताड़णा अब आदत सी हो गयी है
पर उनका कराहना रात की निस्तब्धता मे हाहाकार सरीखा होता है
सहम उठता है खुद तट भी उस दुख के अतिरेक से
पर विवशता यहाँ भी है----- पूर्वनियत
चाहकर भी वो आलिंगनबद्ध नहीं हो सकते
सवाल अस्तित्व का जो है
प्रतीक का भी ........

कुछ तकलीफ़ें अनिवार्यता है तो कुछ सहज स्वीकार्य
यहाँ लहरों की यातना असीम है पर निश्चित भी
और तटों की विवशता निश्चित है पर असीम भी !!!


अर्चना राज़















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