Saturday, 18 May 2013

प्रेम शिशु

अँधियारे एकांत मे कभी बाहें पसारे अपलक निहारा है चाँद को
बूंद-बूंद प्रेम बरसता है -----रगों मे जज़्ब हो जाने के लिए
लहू स्पंदित होता है
धमनियाँ तड़कने लगती हैं
कि तभी कोई सितारा टूटता है एक झटके से
और पूरे वेग से दौड़ता है पृथ्वी की तरफ
समस्त वायुमंडल को धता बताते हुए ,

बिजलियाँ खुद मे महसूस होती हैं
तुरंत बाद एक ठहराव भी .... हल्के चक्कर के साथ ,

स्याहियाँ अचानक ही रंग बदलने लगती हैं
लकीरों मे जुगनू उग आते हैं
और नदी नगमे मे बदल जाती है
ठीक इसी पल जन्म होता है बेहद खामोशी से
एक प्रेम शिशु का खुद मे ,

तमाम उदासियाँ -तनहाइयाँ कोख की नमी हो जाती हैं
और महसूस होता है स्वयं का स्वयं के लिए प्रेम हो जाना ,

अब और किसी की दरकार नहीं ,
कि बहुत सुखद है प्रेम होकर आईना देखना
अकेले ही ---------- !!!

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