Saturday 18 May 2013

कविता की बेचारगी

कविता की नसों में आक्रोश है अब --तकलीफ और दर्द भी
कि खुद को गुनगुनाती नहीं वो अब ,
बस जूझती -झगडती रहती है रात-दिन
निपटारा फिर भी नहीं होता ,

बड़ी मनहूसियत के साथ अमलतास उतर आया है उसकी गोद में
शाम के सुरमई आँचल से पीछा छुड़ाकर
जहां हर मुस्कान उसमे किसी अपने को तलाश रही होती है
किसी अपने को समेट रही होती है
कि जिसके न मिलने पर अमलतासों का रौंदा जाना तय है ,

अमलतास का पीलापन कविता की धडकनों में बिखर रहा है
उग रहा है एक जंगल अंतस में बहुत धीरे-धीरे
पर अपना अंतहीन विस्तार लिए ----पूरी तन्मयता से
कविता भी अब गुलाबी न रहकर क्रमशः पीली पड गयी है ,

सामने खडा गुलमोहर टकटकी लगाए देखता है ----महसूसता है
और सिर झुका लेता है मायूसी से
अमलतास का दर्द और कविता की बेचारगी दोनों ही अब उसमे संप्रेषित हो चुके हैं
अनजाने ----अनचाहे पर अनिवार्यता कि शक्ल में ,

खूबसूरत अहसास गुनगुनी खुशियों के बिना मरणासन्न से नज़र आते हैं
अस्तित्वहीनता की परिधि में घिरे हुए भी !!

अर्चना राज़

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