Saturday, 18 May 2013

प्रेम की तासीर

और तुम लौट आए ,

बेशक मेरे पास तो नहीं ही
कि वक्त का जंगल कभी रास्ता नहीं देता
पगडंडियाँ जरूर होती हैं पर बहुत अव्यवस्थित सी ही
उन पर चलकर वापस मुझ तक ही आना तो नामुमकिन था ,

तुम्हारी आहटों से मैंने तुम्हें पहचान लिया
सांसें सहम गईं थीं
मुझे ये बताने मे कोई गुरेज नहीं कि तुमने मुझे नहीं पहचाना
तुम्हें अपनी स्मृतियों मे तलाश की जरूरत पड़ी
(कहीं कुछ टूट गया मुझमे ),

कुछ मुट्ठी भर नमी जो मुझमे लहर सी जिंदा थी
वो सूख गयी
ताप भी तो इतना कडा था
कि आजमाइश ने आज दम तोड़ दिया ,

मै मुसकुराती रही जख्म को कसकर भींचे
कि कहीं सुर्खियां टपक न पड़ें -----
कैक्टस हरियाने लगा आहिस्ता-आहिस्ता सीने मे ,

अनायास ही बर्फ की चट्टान ने पिघलना शुरू किया पूरी तीव्रता से
और अब हमारे बीच एक उबलती नदी मौजूद थी ,

तुमने देखा और सहम उठे
मैंने देखा और रो दी ,

प्रेम के एहसास जग चुके थे
तासीर अलग थी बस !!!

1 comment:

  1. विह्वलकारी,जबरदस्त और मन को कुरेदने वाला, बहुत शुभकामनाएं आपको!

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